सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

जा कर दिया आजाद तुझे

जा कर दिया आजाद तुझको दिल की गहराईयों से ना माने तो पूछ लेना अपनी ही तन्हाईओं से बादे सबा नही लाएगी अब कोई भी पैगाम बर ना करना कोई सवाल आती जाती पुरवाईओं से पीछे छोड़ आए कबकी वो दरो दीवार माजी की चढ़ने लगे थे रंग जिनपर ज़माने की रूसवाईयों से नजरे चुराए फिरते थे जिन गलियों और चौबारों में क्या अच्छा लगता था बचते रहना अपनी ही परछाईओं से टीसते थे इस कदर जख्म गहरे बेवफ़ाईओ के भरते नही अब किसी बावफा की लुनाईओं से ....!!
साभार .....शरद काकोस

19 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर ... बेवफाई कि टीस साफ़ महसूस हों रही है

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  2. बेमिसाल रचना, बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  3. तब यह उदगार ही क्यों ? साफ़ है की यादे अभी भी हैं और रहनी भी चाहिए ! अब दिल को इतना क्लोस भी कर लेना ठीक नहीं !
    कोमल भावनाओं की अच्छी अभिव्यक्ति !

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  4. हम बेवफ़ा हर्गिज न थे,
    पर हम वफ़ा कर न सके...
    हमको मिली इसकी सज़ा,
    पर हम गिला कर न सके...

    जय हिंद...

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  5. बहुत सुन्दर शरद जी का भी आभार

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  6. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना, भावमय प्रस्‍तुति के लिये बधाई ।

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  7. ओह! जिसको आजाद किया जाता है, वह आजाद नहीं होता। आजाद तो आदमी अपने मनस से होता है।
    यह डिलेमा मैने बहुधा देखा है जीवन में!

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  8. भावमय ......अर्पण कर दिया वो सारे भाव, दिल की तन्हाईयो से ......वाह वाह

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  9. कह देना कितना आसान है..... क्या सच मै करना आसान है?
    बहुत अच्छी लगी कविता लेकिन दर्द फ़िर भी झलकता है .
    धन्यवाद

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  10. कौन बचा है अपनी परछाई से
    दर्द तो उठता ही है पुरवाई से

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  11. किसी को मुक्त कर कर खुद भी हल्का हो जाता है इंसान ...........
    बहुत ही भाव से लिखी है यह रचना ...........

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  12. दर्द न हो तो जीवन कैसा ?
    बढिया अभिव्यक्ति

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  13. वाणी जी,
    आप ग़ज़ल पर भी अपने हाथ आजमा रही हैं यह देख कर अच्छा लगा...और यकीन जानिए कुछ दिनों में आपका नाम भी अच्छे गज़लकारों में शुमार हो जाएगा....
    ग़ज़ल बहुत ही नपी तुली और पकीज़ा ख्यालों से लबरेज़ लगी.....
    खुदा आपकी कलम को ऐसी ही ताक़त बक्शे.....

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  14. आपकी इस रचना के अल्फाज़ अजीब-सा सुकून देते हैं ।
    गज़ल उसकी जातीय शब्दावली में लिखने की कोशिश की है आपने ।

    हमसे तो नहीं होता । न हिन्दी की गज़ल रहती है, न उर्दू की ।

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