रविवार, 8 नवंबर 2009

खुल रही है यादों की परतें ....




माथे
पर चढ़ गयी है त्योरियां
खून उतर आया है आंखों में
तमतमा गए है चेहरे कई
भींच गयी हैं मुट्ठियाँ
तीखी हो गयी है जबान की धार भी
सज गए है चाकू छुरियां
संभाल लिए है भाले बर्छियां
चढ़ गए कांधे पर तीर कमान
म्यान से निकल पड़ी है तलवारें
ढाल की आड़ लिए पहन लिए है बख्तरबंद
तेल पिला दी गयी हैं सभी लाठियाँ
दुनाली का रुख भी है अब इसी तरफ़

कहीं यादों की परतें खुलने लगी हैं
जख्मों की सीवन उधड़ने लगी है ......



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17 टिप्‍पणियां:

  1. और
    'देखकर हाथ लम्बे, मौत के सौदागरों के,
    लाचार ज़िन्दगी फिर सिसकने लगी है....'

    जय हिंद...

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  2. काश ऐसा असर डालने वाली यादें न आयें !

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  3. ऐसी यादों को भूल जाना ही श्रेयस्कर है. हर इंसान का अतीत कुछ ना कुछ कहता है. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  4. याद ऐसी अगर यादों में हो बसी
    जिन्दगी जिन्दगी से झिझकने लगी

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  5. इतना गुस्सा क्यों भाई। सब्र से काम लीजिए।

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  6. bhul jao, kahna aasaan hai, bin bulaye ye jehan me aate hain ....... aur mann ki halat badal dete hain

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  7. काश ऐसी यादों दिल में ही दफ़न हो जाए ........... पर इंसान की हवस खून की प्यासी होती है ......अच्छी अभिव्यक्ति है ...

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  8. कमाल की रचना...जितनी प्रशंशा की जाए कम है...वाह...
    नीरज

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  9. इ का है भाई...?
    आप तो ऐसे न थे ?
    इ कौन सी यादों की बारात है ?
    और किसकी शामत आई है ?
    बाकी तो फिर भी ठीक इ लाठी कौन भाँजेगा ?
    काफी खतरनाक यादें हैं.......!!!

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  10. आपकी कविता पढ कर सोच रही हूं कि यादें हमेश दुख ही क्यों देती हैं।
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    और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
    एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।

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  11. बहुत गहराई मे उतरती रचना
    बहुत खूबसूरत्

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  12. ओह ,तांडव विप्लव ,विध्वंस ! आखिर यह रौद्र रूप क्यों ? .
    ओंम शान्ति शांति शांति देवी !
    डराती हुयी रचना !

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  13. इसका अप्रत्याशित और अनजाना मोड़ या अंत हमें विचलित कर देता है।

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  14. सुन्दर रचना. मगर बडी खतरनाक सी यादें हैं..

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