रविवार, 27 दिसंबर 2009

असमय मासूमियत खोते बच्चे .......आपका क्या कहना है ....??

कल शाम को हम सभी डांस पर आधारित एक रिअलिटी शो देख रहे थे ....आजकल के बच्चों की प्रतिभा देख कर बहुत हैरानी होती है ....पढना लिखना खेल कूद और साथ साथ ही नाच गाने में उनकी प्रवीणता प्रभावित किये बिना नहीं रहती ....तभी एक बहुत ही छोटी मासूम सी बच्ची अपना डांस परफोर्म करने आई तो उसकी ड्रेस और भाव भंगिमाएं देखकर तो आँखे फटी ही रह गयी ....



बिपाशा बासु के गाने " जबां पे लागा लागा रे नमक इश्क़ का " पर उसी के अंदाज में उसी के इशारों के साथ थिरकती उस नन्ही बच्ची को देखकर मन जार जार रोया ...मैं सोचने पर विवश हो गयी क्या वह छोटी सी बच्ची इस गाने का मतलब समझती है , और गाने के साथ जो मुद्राएँ उसे सिखाई जा रही है उसे भी ...?

आज के प्रतिस्पर्धी समय में बच्चों को एक मुकाम हासिल करने की अभिभावकों की असीम महत्वाकांक्षा उनके साथ किस तरह का अन्याय कर रही है ....

इसमें कोई शक नहीं कि अधिकांश अभिभावक जो अपनी जिंदगी में जो स्थान स्वयं प्राप्त नहीं कर सके...जो सपने पूरे नहीं हो सके उसे अपने बच्चों द्वारा पूरा करते हुए देखना चाहते हैं ...यह कोई अस्वाभाविक इच्छा नहीं है ...मगर इन लालसाओं की पूर्ति के लिए बच्चों से उनकी मासूमियत छीन ली जाए , यह कहाँ तक उचित है ....यह कैसी अंधी दौड़ है जो इस नाजुक उम्र में उन्हें व्यस्क बना रही है ....बच्चों में संस्कारों के जो बीज हम बो रहे हैं , सबसे आगे बढ़ने के लिए उनसे जो अपेक्षाएं की जा रही है , उन पर जो मानसिक दबाव बनाया जा रहा है ......उसके बाद उनके दिशाहीन होने की शिकायत करना कहाँ तक वाजिब है ....

मांसाहारी परिवारों में बच्चे बहुत छुटपन से ही मांस खाते है , उनके लिए साग भाजी और मांस मछली में कोई अंतर नहीं होता ....यह तो वे व्यस्क होने पर ही समझ सकते हैं के मांस प्राप्त करने के लिए पक्षियों और जानवरों को जिबह होने के लिए कितनी पीड़ा से गुजरना पड़ता है ....
वैसे ही ये मासूम बच्चे जब तक यह समझ पायें कि ये अंधी दौड़ पतन की किस राह पर लेकर जायेगी , उस राह पर चलने के आदि हो जाते हैं ....

नाच गाना अभिनय यह सब स्वाभाविक कलाएं है और इन्हें सीखना और सिखाना कोई असामान्य इच्छा नहीं है मगर जिस तरह रिअलिटी शोज में छोटी उम्र के या व्यस्क बच्चे प्रतियोगिताएं संचालित किये जाने वाले जजों के आगे गिडगिडाते हैं , विभिन्न प्रकार के इशारे मान मनुहार कर उन्हें बस एक चांस देने के लिए मिन्नतें करते हैं .... यह सब देखना बहुत ही पीड़ादायक होता है ....

अभिभावकों द्वारा अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बच्चों की मासूमियत को हथियार बनाकर उन्हें वक्त से पहले व्यस्क बनाने की इस घिनौनी प्रक्रिया पर मुझे तो सख्त ऐतराज़ है ...

आपका क्या कहना है .........??


चित्र गूगल के सौजन्य से ...

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32 टिप्‍पणियां:

  1. हम्म!! यह भी एक पक्ष है.

    यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

    हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

    निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    आपका साधुवाद!!

    शुभकामनाएँ!
    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

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  2. वाणी गीत जी,

    ये भौतिकवादी मानसिकता की पराकाष्ठा ही तो है जो मासूम बचपन को भी दांव पर लगा देती है...भला कोई इन अक्ल के अंधे मां-बापों को समझाए कि बचपन छीनकर इन नौनिहालों पर क्यों ज़ुल्म ढा रहे हो...बचपन से बड़ी कोई नेमत नहीं...बच्चों को खुलकर उनका बचपन जीने दो...बाकी बड़े होकर अंधी दौड़ में तो उन्हें जीवन भर भागना ही है...

    ज्वलंत मुद्दा उठाने के लिए आभार...

    जय हिंद...

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  3. मुझे तो ऐसे शो को आग लगा देने का दिल करता है....आँखों के सामने बचपने को ख़तम होते हम तो देख ही नहीं पाते..वैसे भी आज कल हर शो सिनेमा से शुरू होता है और सिनेमा पर ख़तम...ऐसा लगता है जीवन का एक मात्र उद्देश्य ही फिल्म रह गए हों...कहाँ देखने तो मिलते हैं अब प्रोग्राम्स जो विज्ञानं या गणित या लिटरेचर पर हो....हर जगह सिर्फ और सिर्फ सिनेमा...हम अभी तक समझ नहीं पाए इस सिनेमा ज्ञान में पारंगत होकर मिलगा क्या..??
    बहुत सही मुद्दा उठाया है....अच्छा obeservation है..हम लोग तो अक्सर ऐसी बच्चियों को देख कर समझ ही नहीं पाते की खुश होवे की माथा पीटें.....
    वाणी जी की जय...

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  4. सचमुच यह बहुत दुखद है -बच्चों से उनका बचपना छीनना एक अपराध है ! क्या ऐसे कुकृत्यों का समाज पुरजोर विरोध करेगा?

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  5. एक डर मनों में बैठ गया है कि कहीं हमारा बच्चा भीड़ में फंसकर पीछे न रह जाए..डर के कारण ही तो हम ईश्वर में विश्वास करते हैं, अगर हमने ऐसा नहीं किया तो भगवान दंड देंग़े। भगवान कोई बॉस नहीं जो आपको कम काम करने पर जॉब से निकाल देगा। वो ही डर है जो बच्चों से उनका बचपन छीन रहा है... आज तक ज्यादा लोग कहते हैं मुझे मेरा वो बचपन लौट दो..कुछ साल होगा मुझे मेरा यौवन लौटा दो..बचपन तो बचने की उम्मीद ही नहीं है।
    शौचालय से सोचालय तक

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  6. प्रतिस्पर्धा की दौड़ में माता पिता के महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ते हैं ये छोटे छोटे बच्चे , जिसका शायद उनके माता पिता को भान ही नहीं होता या अपने महत्वाकांक्षा के आगे उसे नज़र अंदाज़ कर देते हैं .

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  7. मुझे लगा है की अभिभावक तो प्रतिभा -प्रदर्शन के नाम पर कुछ छूट ले लेते हैं पर समय बीतने पर अपने बच्चों से कोई भी सवाल पूछने का भी अधिकार खो देते हैं..!

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  8. मायने बदल से गये हैं
    यह देख हैरान हो जाता हूं मैं
    कहते हैं...
    हम सुधरेंगे जग सुधरेगा
    इतनी तेज रफ्तार से भागती जिन्दगी में
    मासूमियत दम तोड़ न दे
    इसके लिये आगे आना होगा
    नहीं तो कहीं ऐसा ही न हो जाय कि
    हमारी आखों के सामने हमारे ही
    ये बच्चे भविष्य के सारे फाटक
    एक दिन में ही तोड़ डालने को
    आतुर हो जांय ....!

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  9. बहुत सटीक सवाल ऊठाया है आपने. बिल्कुल गलत बात है पर लगता है आजकल येन केन प्राकारेण धन कमाना ही एक मात्र उद्देष्य होगया है. भले ही बच्चों का बचपन उनसे छिन जाये.

    नये साल की रामराम.

    रामराम.

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  10. किसी टिप्पणी में पढ़ा था ............

    "बच्चों को नाजु़क हाथों से चांद सितारे छुने दो,
    दो चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे"

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  11. इस अंधी दौड़ ने, अजीबो-गरीब चाहत ने पूरा रंगमच ही सृष्टि का बदल डाला है,
    कहाँ से ऐसी चाहतें पनपी हैं? कहाँ जायेंगे हम ?
    बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ...............

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  12. maataa-pita apne yash ke liye bachcho ka istemaal karate hai. aapne jis geet ka udaharan diya hai, vaise ane geet hai, jis par bachchiyan tharakati hai. yah sab ashleel lagta hai. hamako lag raha hai, ashleel, lekin mata-pita gadgad hote rahate hai. itani samajh to honi chahiye ki kis geet ka chayan kiya jae. lekin nahi, patan ke is naye daur me aisa likhana bhi aaptijanak ho jata hai. aapne ek samajik mudda uthaya, aapki soch ko mai naman karta hoo.

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  13. ऐतराज़ तो हमे भी है ........ ये भोंडे प्रदर्शन हमको कहाँ ले जा रहे हैं इसका कोई जवाब नही है इन टी वी वालों के पास ......... भाग रहे हैं हम सब इस पाश्चात्य की अंधी दौड़ में ............

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  14. आपके आलेख से पूरी तरह सहमत हूं। इसी सप्ताहांत में एक टीवी शो पर दो बच्चियां आईं थी। सात-आठ साल से अधिक की उमर तो नहीं ही होगी। एक अपने लिए रोमांटिक लड़का ढ़ूंढ़ रही थी और दूसरी तीसेक साल के एक फिल्मी हीरो को विवाह प्रस्ताव दे रही थी। और डायलॉग जो उनको दिए गए थे वे एक व्यस्क को भी भरी सभा में बोलने में शर्म आए। कुछ प्रश्न अनायास ही मन में उठ खड़े हुए
    • क्या बच्चे अपने बड़ों की अधूरी आकांक्षाओं को पूरा करने का साधन बन गए हैं ?
    • क्या बच्चे जीवन में जो भी चुनते हैं वास्तव में वह उन्हीं का चुनाव है ?
    बहुत-बहुत धन्यवाद
    आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  15. इसके लिए मेरे मुताबिक़ पूरी तरह माता-पिता ज़िम्मेदार हैं। मालूम नहीं आपने ये शो देखा या नहीं लेकिन, इंडियाज़ गॉट टैलेन्ट के स्टेज़ पर ऐसे कई बच्चे आए थे और उन सभी को तीनों जज ने बाहर कर दिया था। साथ ही माता-पिता को ये नसीहत दी थी कि वो इस उम्र में उन्हें इतना बड़ा न बना दे। लेकिन, वो नसीहत किसी को नहीं पची थी।

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  16. हम खाक सभ्य है '' जब बचपन
    इतना कंगाल हो जा रहा है ! ''
    ........ आभार ,,,

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  17. आप के लेख से सहमत हुं, हमारे यहां भी कुछ भारतिया परिवार ऎसे ही है जो अपनी बच्चियो से ऎसे भॊंडे डांस करवा कर बहुत खुश होते है, लेकिन उस मासुम को आज नही पता, लेकिन मां बाप को तो अकल होनी चाहिये कि वो अपने बच्चो का भविष्या किस ओर धकेल रहे है

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  18. सचमुच यह दुखद है वह भोली तुतलाती baaten ab badhi gahri baaton mein lipti jab sunaayi deti है तो lagta है bahut kuch kahin ham jaldi se khote ja rahe hain ..

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  19. हां यह सांस्कृतिक भोंडापन कई परिवारों में देखा है और वहां बड़ों से बच्चों में घर कर रहा है!
    दुखद है यह!

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  20. इस पोस्ट की महत्ता को देखते हुए इसे आज सुबह की चर्चा मंच की पोस्ट में लगा दिया है!

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  21. नसीहत किसी को नहीं भाती
    क्या करें

    बी एस पाबला

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  22. नव - वर्ष की अनेक शुभ कामनाएं
    आपकी बात से पूर्णतः सह,मत हूँ
    बाजारवाद
    हमारी प्राचीन सभ्यता की अच्छाईयों को निगल रहा है :-(
    क्या किया जाए ? कोइ सुझाव ?
    स्नेह,
    - लावण्या

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  23. आपके विचार से पूर्णतया सहमत.
    लेकिन यह बात समझाने पर समझ में नहीं आती!
    जब तक ऐसे अभिभावक खुद ठोकर नहीं खाते, नहीं संभलते.
    ये बात और है कि हल्की ठोकर से ही संभल जाते हैं या छत से गिरने के बाद!
    भगवान इन मासूम बच्चों का ध्यान रक्खे....

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  24. वाणीजी
    आपने बिलकुल सही कहा है रियलिटी शो के नाम पार बच्चो से पूरी तरह उनका बचपन छीना जा रहा है और विडम्बना ये है कि उसमे इन बच्चो के माता पिता कि पूर्ण सहमती होती है |इस प्रक्रिया में मै भी अपना पूरा विरोध दर्ज करती हूँ |
    कभी कभी ऐसा लगता है जैसे सडक पर छोटे छोटे बच्चे भीख मांगते दिखाई देते है कुछ इसी तरह ये बच्चे भी उनके समान ही
    मासूम और निर्दोष होते है जिनपर उनके अभिभावक अपनी अपरिपक्व म्ह्त्वकांक्षाओ का रंग चढ़ा देते है |\मैंने भी कुछ ऐसे ही बच्चो के बारे में लिखा था था क्रपया लिंक देखे |
    http://shobhanaonline.blogspot.com/2009/07/blog-post_11.html

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  25. मासूम मन के पोषक तत्वों का चार्ट अब किस मन में होता है सब भौतिक है और स्थूल भी... आपके सवाल आने वाली पीढी में और भयावह हो जायेंगे.

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  26. बिलकुल हम खुद ही धकेल रहे हैं उन्हें एक विचित्र-सी मनोदशा में ।

    अदा जी के आक्रोश पर हमारी भी पैरोकारी ! और अमरेन्द्र जी की बात कि हम खाक सभ्य हैं.... इससे भी सहमति !

    प्रविष्टि की संवेदना को महसूस कर रहा हूं । आभार ।

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  27. वाणी, बहुत सही मुद्दा उठाया...मैं भी अक्सर सहेलियों से यही चर्चा करती हूँ...कि इनके कपड़े देखो जरा और इनके लटके झटके...इतनी जल्दी बडा कर रहें हैंबेचारों से इनका बचपन छीना जा रहा है...एक बार जावेद जाफरी ने भी ऐतराज़ किया था और स्पेशली उस लड़की के माता-पिता से आग्रह किया था कि जो गाने बच्चों पर सूट करें,वही सिखाएं..लेकिन अफ़सोस हुआ देख,फिर उस लड़की को विजेता भी घोषित कर दिया ..इस से क्या सन्देश जायेगा?,..और प्रश्रय मिलेगा,इस तरह के डांस को.

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  28. हमारे घर में तो इसलिये ऐसे टीवी कार्यक्रम दिखाये ही नहीं जाते...

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  29. वाणी गीत जी, मैं आशादीप जी से सहमत हूँ!

    ये भौतिकवादी मानसिकता की पराकाष्ठा ही तो है जो मासूम बचपन को भी दांव पर लगा देती है...भला कोई इन अक्ल के अंधे मां-बापों को समझाए कि बचपन छीनकर इन नौनिहालों पर क्यों ज़ुल्म ढा रहे हो...बचपन से बड़ी कोई नेमत नहीं...बच्चों को खुलकर उनका बचपन जीने दो...बाकी बड़े होकर अंधी दौड़ में तो उन्हें जीवन भर भागना ही है...

    ज्वलंत मुद्दा उठाने के लिए आभार...

    जय हिंद...

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  30. कहने को रहा क्या है अब - सबकुछ खोता जा रहा है पाने के भ्रम में

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