रविवार, 6 जून 2010

शादी निभाने के लिए क्या आवश्यक है ... ..." प्रेम " या "समझौता" ...??

भयंकर अलर्जी की शिकायत के कारण आजकल काम कम और आराम ज्यादा हो रहा है । गृहिणियों के लिए ज्यादा आराम का मतलब ज्यादा टीवी शो देखना ...आजकल एक धारावाहिक " ससुराल गेंदा फूल " नियमित देख रही हूँ ।

संयुक्त परिवार की महत्ता को कायम करता हुआ यह धारावाहिक परिवार के सदस्यों के आपसी तालमेल और उनके बीच प्यार सद्भाव बनाये रखने के लिए घर की मुख्य धुरी बड़ी बहू के त्याग और समर्पण को दिखाता है ।

बड़ा बेटा पत्नी और बच्चों को छोड़ अपना दूसरा घर बसा चुका है , जबकि उसकी पत्नी इसी घर में रहते हुए अपने सास ससुर और देवर की मदद से पूरे परिवार को एकजुट रखने का संकल्प निभा रही है । कहानी का मूल विषय है ..." शादी का बंधन सिर्फ एक व्यक्ति से नहीं , पूरे परिवार से जोड़ता है "

धारावाहिक के इस अंक में गृहत्यागी बड़े बेटे का जन्मदिन है और सभी सदस्य बड़ी बहू को प्रसन्न करने के प्रयास में लगे हैं । फ्लैश बैक में बेटे का घर छोड़ कर जाने का कारण और उसकी अंतिम पाती को याद करते उसके माता पिता और पत्नी का अपने परिवार से संवाद को दिखाया जा रहा है ।


धारावाहिक देखते हुए शुरू हुई दिल दिमाग की रस्साकसी इस पोस्ट का विषय बन गयी है ....

बेटा (ईश्वर ) ईमानदारी से स्वीकार करता है कि उसका अपनी पत्नी से प्रेम नहीं रहा और जिस दूसरी स्त्री से उसे प्रेम हो गया है , वह उसके बगैर रह नहीं सकता इसलिए अपने इस रिश्ते को समाप्त करते हुए वह दूसरे देश में अपनी दूसरी पत्नी के साथ घर बसा रहा है ....

जब प्रेम नहीं है या अब नहीं रहा तो इसका दिखावा करते हुए साथ क्यों रहा जाए ...यह ईमानदारी ठीक ही लगती है ....वही दूसरी ओर यह प्रश्न भी है कि प्रेम नहीं था तो इतने वर्ष साथ क्यों रहा गया ...और इस साथ के कारण जन्मे बच्चों का क्या ....बच्चों की परवरिश में लिए माता -पिता दोनों का योगदान समान होता है ...तो
क्या अपने प्रेम के लिए बच्चों से उनका स्वाभाविक हक़ छीन लेना उचित है ...??

क्या शादियाँ सिर्फ प्रेम से निभती हैं , निभानी चाहिए ...??

पास बैठी बेटी से मैंने मेरे दिमाग ने पूछ लिया " शादियाँ निभती तो समझौते से ही है ...यदि प्रेम विवाह भी किया जाए तो वह भी समझौते के बिना निभ नहीं सकता ...वास्तव में शादिया निभायी ही जाती हैं , निभती नहीं "

ठीक उसी क्षण यह ख़याल भी दिल में आया ...

" पर यदि प्रेम हो तो समझौता करने का दिल करता होगा ना , अपने आप ही हो जाता होगा सामंजस्य , यदि प्रेम नहीं है तो सामंजस्य सिर्फ मजबूरी बन कर रह जाएगा "


क्या यह सही है कि प्रेम निभाया नहीं जाता , अपने आप निभता है , जबकि शादियाँ निभानी पड़ती हैं ...
सफल वैवाहिक जीवन के लिए क्या आवश्यक है ....." प्रेम या समझौता " ....

ससुराल गेंदा फूल .....इस धारावाहिक को देखते हुए मेरे दिल और दिमाग की इस रस्साकसी को सुलझाने में मेरी मदद नहीं करेंगे आप ....??



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32 टिप्‍पणियां:

  1. समझौता अगर प्रेम की भूमि पर हो तो भूकंप का खतरा नहीं होता
    क्योंकि सच्चा प्रेम केवल त्याग सिखाता है
    तो इस समझोते में दोनों पक्ष अपने से ज्यादा दूसरे के फायदे के लिए ही सोचते हैं
    टी वी के माध्यम से कुछ घरों को कहानियाँ पूरे मसाले के साथ दिखाई जाती है
    यही केस "हम आपके दिल में रहते हैं" फिल्म मे भी दिखने की कोशिश की गयी थी
    और ज्यादा उत्तर के लिए मेरी संडे पोस्ट देखें मेरे ब्लॉग पर

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  2. जब आप नहीं सुलझा पा रही हैं इस वैचारिक रस्साकशी को तो फिर मुश्किल है ....मुझे लगता है बस एक ही फार्मूला है बृहत्तर हितों के लिए खुद का त्याग -त्याग से बढ़कर दूसरा जीवन मूल्य नहीं है भारतीय मनीषा /लोकजीवन में ...
    सीरियल कम देखा करिए -ये अवास्तविक जिन्दगी की ओर ले जाते हैं -देखना है तो रानी लक्ष्मी बाई क्यों नहीं देखती ?

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  3. चलिए एक बात मैं आपको एडवांस में बताता हूँ सभी धारावाहिकों में सबसे चरित्रवान व्यक्ति सबसे ज्यादा दुखी होता है
    ये सब हमारे अवचेतन मस्तिष्क तक ये सन्देश पहुंचाते हैं की अगर आप चरित्रवान हैं तो दुखी रहेंगे
    जो की सच नहीं है, चरित्र से बड़ी पूँजी तो होती ही नहीं है

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  4. मुझे तो ऐसे धारावाहिकों से ही एलर्जी है....बालिका वधू और तमाम ऐसे धारावाहिकों में मरघट वाला संगीत होता है और साथ ही आssss का बैकग्राउंड में लगातार बजते रहना एक तरह की मनहूसियत सी लगता है। रोना धोना अलग।

    घर में आने पर सबसे पहले इस तरह के सिरियल बंद करवाता हूँ....बेटी और श्रीमती जी दोनों ही बहुत मगन हो कर ऐसे सीरियल देखती हैं और मुझे लगता है कि कम्बख्तों को रोने रूलाने के अलावा और कोई काम नहीं है क्या।

    सब टीवी जैसे हल्के फुल्के कार्यक्रम न जाने क्यों कम बनते हैं।

    बुरा मत मानिएगा पर- आपने जिस तरह से कहानी का वर्णन किया है वह रोचक तो लग रहा है लेकिन मुझे लगता है कि मुझमें क्षमता ही नहीं है ऐसे सिरियल्स झेलने की :)

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  5. मैं 'सास बहू' या इस तरह के सीरियल नहीं देखता। सब कुछ कृत्रिम लगता है। पहले 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' देखता था, अब वह भी छूट गया।
    लक्ष्मीबाई पर महाश्वेता का उपन्यास पढ़ रहा हूँ। उनका पहला उपन्यास होने और कहीं कहीं बिखराव के बावज़ूद वस्तुनिष्ठता और विश्लेषण की क्षमता पर मुग्ध हूँ। विषयांतर हो रहा है ...
    संसार का हर बन्धन समझौते से ही निभता है। साथ चलते चलते समझौते स्वाभाविक ही होने लगते हैं। उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता।
    वैसे मेरा व्यक्तिगत मत है कि तेजी से बदलते संसार में विवाह और परिवार का वर्तमान रूप टिक नहीं पाएगा।

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  6. @ यह धारावाहिक आम सास- बहू , षड्यंत्रों टाइप नहीं है ...ऐसे धारावाहिक तो मैं खुद भी नहीं देखती ...
    यह बिलकुल ही अलग तरह का धारावाहिक है ...जिसमे जीवन मूल्यों और परिवार को जोड़े रखने में हर सदस्य के योगदान को दिखाता है ...

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  7. मेरा व्यक्तिगत मत है कि तेजी से बदलते संसार में विवाह और परिवार का वर्तमान रूप टिक नहीं पाएगा।

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो'
    ye to mera psanddita dharawahik hai......

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  10. आपने जिस सीरियल का बताया है वह तो नहीं देखा.

    सबसे बड़ी समस्या है सीरियलों की स्क्रिप्ट. क्या ज़रूरी है की जब दो लोग किसी महत्वपूर्ण बात पर चर्चा कर रहे हों तो कोई उनकी बातें सुनने के लिए कहीं छिपा रहे? सीरियलों में यह न हो पाना बड़ा मुश्किल है.

    और किरदारों का गायब होना, मर जाना, फिर वापस आ जाना, और तभी वापस आना जब रिश्ते बदल गए हों --- उफ़!

    प्रेम स्वतः निभता है. 'सफल' वैवाहिक जीवन के लिए प्यार की ही दरकार है.

    अच्छी पोस्ट.

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  11. शादी निभानी चाहिये या जीनी चाहिये ?? कभी ये प्रश्न क्यूँ नहीं उठता । क्यूँ प्रेम और समझोते के बीच मे लटकाने कि बात होती हैं हर जगह ।

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  12. प्रेम की अद्भुत परीक्षा में आप असहमत होते हैं, लेकिन एक-दुसरे का हाथ थामे रहते हैं..........
    ye maine kahin padha tha......:)

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  13. यह धारावाहिक मैं भी देखती हूँ....इसमे पूरा परिवार एक दूसरे के प्रति समर्पित है...एक तरफ बड़े बेटे की स्पष्टवादिता सही है तो दूसरी तरफ अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी निभाने की कमी भी है...औरों की खुशी के लिए ज़िंदगी में बहुत समझौते करते हैं...जहाँ प्रेम होता है वहाँ स्वत: हो जाते हैं और पता भी नहीं चलता...जहाँ तक मैं समझती हूँ कि प्रेम कोई ऐसी भावना नहीं है तो आजीवन एक समान रूप धारण कर सके....लेकिन ज़िंदगी में समझौते भी तभी होते हैं जहाँ हम अपनापन समझते हैं....बाकी तो सब मजबूरी होती है....और यह एक कटु सत्य है कि शादी अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर निबाहते हैं...और निभानी भी चाहिए....इस निबाहने में भी तो प्रेम झलकता है...

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  14. सीरियल की बात तो नहीं कर सकती क्यूंकि देखती नहीं...बस म्यूजिक ,डांस ,डिबेट,क्रिकेट ही देखती हूँ..टी.वी.पर...ब्लॉग्गिंग में नहीं थी तब भी...और अब भी..

    पर तुम्हारे द्वारा उठाया गया प्रश्न वाजिब है और उलझन भरा भी...पहले तो तय यह करना होगा कि 'समझौते' की परिभाषा क्या है...अगर पति/पत्नी एक दूसरे को प्रताड़ित करते हैं, दोनों का शादी के बाहर कोई अफयेअर है , फिर भी साथ है तो उसे 'समझौता 'ही कहेंगे...बाद में प्रेम रहता तो है पर रूप बदल जाते हैं...और ज़िन्दगी के हर फेज़ में बदलते रहते हैं पर अन्तर्निहित 'प्रेम' रहता है कहीं ना कहीं.

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  15. प्रश्न बहुत ही बढिया उठाया है…………………ये मै भी देखती हूँ…………………वैसे जहाँ प्रेम होता है वहाँ अगर त्याग होता भी है तो जताया नही जाता और जहाँ समझौते होते हैं वहाँ प्रेम नही होता सिर्फ़ आपसी सामंजस्य से ज़िन्दगी जीते हैं लोग्……………एक बात कहूँ ---------अगर आप देखेगी तो पायेंगी कि प्रेम तो किसी को किसी से कभी होता ही नही सब ज्यादातर समझौतों पर जी रहे होते हैं………बेशक लगाव होता है एक दूसरे से मगर प्रेम बहुत ऊँची चीज़ है और उसे इस दुनिया मे कोई कोई ही निभा पाता है।जहाँ तक आपके प्रश्न का ताल्लुक है तो यही कहुँग़ी कि शादियाँ समझौतों पर ही टिकी होती हैं बस अगर उसमें यदि जिसे आप प्रेम कहती हैं उसकी चाशनी भी डाल दी जाये तो जीना सरस हो जाता है………………सिर्फ़ प्रेम के सहारे ही ज़िन्दगी नही कटती और ना ही सिर्फ़ समझौतों के सहारे ही ………………दोनो रेल की पटरी की तरह साथ साथ चलते है।

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  16. वाणी जी ! ये टीवी ड्रामे तो मैं देखती नहीं ..पर आपने जिस धारावाहिक की बात की हैं उसके कुछ अंश देखे हैं ,रोचक हैं पर सच्चाई से फिर भी कोसो दूर ही होते हैं .
    हाँ आपका प्रश्न जरुर जायज़ है और ये भी सच है कि इसका उत्तर भी शायद कोई नहीं ढूंढ पाया अबतक ..और ये प्रेम है क्या? मेरे ख्याल से तो आप जिससे करना चाहें प्रेम उससे किया जा सकता है अर्थात निभाया जा सकता है .शादी समझौता ओर प्रेम दोनों से ज्यादा मेरे ख्याल से जिम्मेदारी है जो साथ रहते एक लगाव के कारण हम निभाते हैं .और निभानी भी चाहिए...

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  17. पढ़ा तो रात में ही था लेकिन कमेन्ट करने से पहले सोच लेना चाहती थी ..इसलिए देर से कर रही हूँ....मैं तो खैर कभी भी टी वी serials देखती ही नहीं हूँ, कारण मुझे पसंद ही नहीं हैं अब के सिलिअल्स , पहले कथा सागर, मालगुडी डेज, चाणक्य इत्यादि ठीक भी लगते थे....अब तो मैंने हिंदी चैनल्स ही हटा दिए...खैर बात शादी की हो रही है...अरेंज्ड मैरेज में शुरुआत के कुछ साल प्रेम पनपने में बीत जाता है....जबतक प्रेम परवान चढ़ता है जिम्मेदारियां आ जातीं हैं...प्रेम के लिए समय ही नहीं रहता....प्रेम के अलावा दूसरी priorities आजातीं हैं....जैसे बच्चों की जिम्मेदारियां... फिर सारा समय जिम्मेदारियां निभाने में बीत जाता है ....उसके बाद का समय समझौते और आदत निभाने में...फिर हिन्दुस्तानी जोड़ों में तो वैसे भी प्रेम by default मान लिया जाता है और taken for granted भी....सही मायने में जीवन 'जीना' बहुत कम लोगों के नसीब में होता है....अधिकतर लोग बस जी लेते हैं....हाँ जीवन के आखरी दिनों में देखा है असली प्रेम मैंने जब सचमुच लोग एक दुसरे के प्रति समर्पित होते हैं...जैसे मेरे माँ-पिताजी ..अब देख कर लगता है की वो एक दुसरे के बिना नहीं जी सकते हैं...
    पता नहीं मेरा कमेन्ट ठीक है या नहीं...नहीं पसंद आये तो डिलीट कर देना....

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  18. वाणी जी प्रशन बहुत पेचीदा और सार्थक है. आपका ख्याल मुझे सही लगा की जहाँ प्रेम होगा वहा समझोता करने का दिल अपने आप करेगा. वर्ना तो यह मजबूरी ही है. लेकिन कई बार प्रेम भी अपने आप नहीं निभता जहाँ समझोते की बात आ गयी तो वहां निभाना वाली बात तो आ ही गयी न. बेशक वो समझौता मजबूरी में नहीं हे.

    और अंत में यही निष्कर्ष निकलता है की सफल वैवाहिक जीवन ही वाही है जहाँ प्रेम है...तो प्रेम जरुरी है सफल वैवाहिक जीवन के लिए. समझौते से कब तक वैवाहिक जीवन चलेगा और चलेगा तो सफल नहीं कहा जा सकता.

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  19. मै कभी भी ये टीवी ड्रामे नही देखता,लेकिन प्यार ओर त्याग दोनो मै होना चाहिये, ओर यह भी गलत है जब बच्चे हो जाये तो बोलो मुझे प्यार नही इस ऒरत से..... उस गधे से पुछॊ की प्यार की परिभाषा पहले बताओ.जिस भी नारी की आप बात कर रही है वो अपनी मर्जी से सास सस्रुर ओर ब्च्चो के संग रह रही है, यह भी एक तरह का प्यार है, एक सच्चा प्यार

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  20. दी....हर रिश्ता निभाने के लिए प्रेम और समझौते करने पड़ते हैं.... शादी तो सेकंडरी है.... यहाँ तो दोनों ही मस्ट है.... शादी में तो प्रेम और समझौते दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं.... रही बात .... टी.वी.सीरियल देखने की.... तो वो मैं कभी नहीं देखता... एक बार ऐसे ही अपने कमरे में जूते पहनते हुए रिमोट पर बैठ गया.... और स्टार प्लस लग गया.... ठीक उसी वक़्त मेरा एक दोस्त आ गया.... उसने मेरा इतना मज़ाक उड़ाया... कि स्टार प्लस देखता है... और सब दोस्तों में हल्ला कर दिया... कि महफूज़ स्टार प्लस देखता है.... बिलो स्टैण्डर्ड का हो गया है... तो मैं एक महीने तक अपने दोस्तों से मुँह छिपाता फिरता रहा.... सच! लड़कों को टी.वी .सीरियल देखने से अच्छा है ..... वही टाइम बाथरूम में गुज़ार लें.... ही ही ही ही ..... तबसे मैंने ....कलर्ज़... स्टार प्लस.... सोनी... सब... ज़ी और एन.डी.टी.वी. इमैजिन .... सबको मैंने स्किप पर लगा दिया.... .... ही ही ही ....

    दी.... क्या इस कमेन्ट पर भी बवाल होगा? और कोई ऐसी पोस्ट भी नहीं है.... इस जैसी .... जहाँ मैं दो टाइप कमेन्ट दूं.... ही ही ही .... दी...एक बात बोलूँ? मैं बहुत कम लोगों की पोस्ट पूरी पढ़ता हूँ.... और आपका ब्लॉग उनमें से है... जिसे मैं पूरी शिद्दत से पढ़ता हूँ.... क्यूंकि यह मेरी दी....का ब्लॉग है ना....

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  21. वैसे तो मैं टी वी धारावाहिक देखती नहीं हूं .. पर पिछले महीने दिल्‍ली में यह सीरियल देखा था .. वे पति पत्‍नी बहुत खुशनसीब होते होंगे .. जो सिर्फ प्रेम कर निभा लेते हैं .. वो पति पत्‍नी बहुत बदनसीब होते होंगे जो सिर्फ समझौता करके भी शादी निभाते हैं .. अधिकांश जिंदगी में शादी निभाने के लिए तो प्रेम और समझौते दोनो का सहयोग लेना पडता है।

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  22. शादी एक संस्था है...उसे बनाए रखने के लिए प्रेम या समझौते से भी ज़्यादा ज़रूरी होती है अंडरस्टैंडिंग (एक दूसरे की भावनाओं को समझने की समझदारी)...

    जय हिंद...

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  23. शादी करना एक सामाजिक कर्म है..ईमानदारी से किया गया कमिटमैंट ...प्रेम या समझौता तो बाद की बात है...दो साथी मिलकर समाज को बढ़ाते हैं उसे नया रूप देते हैं बच्चों को जन्म देकर फिर उनका सही पालन पोषण करके...जो यह काम नहीं कर पाते वही प्रेम और समझौते की बात करते हैं जैसे इस टीवी सीरियल में हुआ...प्रेम की कोई सीमा नहीं होती लेकिन अपनी जिम्मेदारी से भाग कर प्रेम भी नहीं होता...!!

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  24. सीरियल नहीं देखा..देखता भी नहीं !
    गिरिजेश जी की बात से सहमत हूँ -
    "साथ चलते चलते समझौते स्वाभाविक ही होने लगते हैं। उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता।"
    पर यह साथ चलना कैसे हो ?
    थोड़ा उलट देते हैं...'समझौते करने आ जायें तो साथ चलना आसान हो जाए..फिर धीरे-धीरे यह स्वाभाविक गति हो जाय !'
    तब भी प्रेम ?
    कहीं-न-कहीं प्रेम अभी भी दूर खड़ा मुस्करा रहा है !

    वापस लौटता हूँ तो सबसे पहले आपको ही ढूँढ़ता हूँ...क्या लिखा आपने..क्या कहा आपने !

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  25. प्रेम स्वाभाविक है...हर एक रिश्ते को फलने-फूलने के लिए. प्रेम हो तो सामंजस्य आसानी से हो जाता है, मैं इसे समझौता नहीं कहती, सामंजस्य कहती हूँ.
    शादी निश्चित ही एक सामाजिक कर्म है क्योंकि इसके फलस्वरूप होने वाले बच्चे न सिर्फ माता-पिता, परिवार, बल्कि समाज की भी जिम्मेदारी होते हैं. इसलिए मैं ये मानती हूँ कि यदि प्रेम-विवाह भी किया जाए, तो सबकी स्वीकृति से ही होना चाहिए. और अगर किसी कारणवश शादी टूटती है, तो भले ही पति पत्नी को छोड़ दे, पर उसे उसकी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, अगर वो आत्मनिर्भर नहीं है तो, और बच्चों को किसी भी कीमत पर पिता के प्यार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए.
    इस धारावाहिक में बेटे की स्पष्टवादिता सही है और बहू का त्याग भी अपनी जगह सही है यदि उसका अपना चयन है तो, पर बेटे को कम से कम अपने बच्चों का तो ध्यान रखना ही चाहिए.

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  26. @ All

    अविवादित सार्थक प्रतिक्रिया देने का बहुत आभार

    @ हिमांशु ,
    तुम्हारे जैसे असाधारण रचनाकार (प्रतिभा कभी उम्र की मोहताज नहीं होती ) का मेरे साधारण लेखन को इतना सम्मान देना बहुत प्रेरणा देता है मगर ...मैं जो लिखती हूँ वह कोई भी साधारण गृहस्थ महिला लिख सकती है ...यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है ..
    ब्लॉगजगत के लिए तुम्हारा साहित्य लेखन ज्यादा महत्वपूर्ण है ...
    हमें तुम्हारी प्रविष्टियों का इन्तजार है ...विशेषकर सिद्धार्थ के बौद्ध बनने की नाट्य श्रृंखला का ..

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  27. सबसे पहले तो मुझे यही प्रश्न उलझता है कि - प्रेम क्या है ?? बिना इस प्रश्न का समाधान किये आगे बढ़ना ठीक नहीं है...

    जितना मैं जानती हूँ,जिस सम्बन्ध में एकनिष्ठा,समर्पण,सहानुभूति,सामान और इमानदारी नहीं,वह प्रेम नहीं...और जहाँ यह सब है वहां टूटने छूटने अलग होने जैसी कोई बात ही नहीं हो सकती कभी...
    इसलिए यह कहना कि कभी प्रेम था और अब नहीं है..और अब जो हुआ है वह प्रेम है,लेकिन कभी यह भी टूट सकता है...
    यह टूटने छूटने वाले सम्बन्ध को ही मतलब के सम्बन्ध कहते हैं और जिनपर रोक लगाने के लिए सामाजिक बंधन नियम कायदे बनाये गए हैं....
    यदि आचरण ऐसा हो कि हर कुछ दिन पर नए सम्बन्ध कि आवश्यकता महसूस होती हो..तो मान लेना चाहिए कि इन्हें प्रेम करना नहीं आता और इधर उधर न भटक ,बस अपने कर्तब्यों को समझें और दांपत्य जीवन सम्हालें...

    जहाँ तक बात टी वी सीरियलों की है...इस फेर में न ही पड़ें...सीधे सीधे ये दिमाग के दीमक हैं....

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  28. धारावाहिकों का अनुभव नहीं है ..
    मैं धारावाहिकों की बात से हट कर बात करता हूँ .
    यशपाल का एक उपन्यास है 'दिव्या' , बिखरे तंतुओं पर सोचता - सोचुआता ! देखना दिलचस्प होगा !

    जहां तक 'प्रेम' की बात है , यह मूर्त से ज्यादा अमूर्त सा हो चला है , सब मनोनिर्मिति सा ! ज्यों ही मूर्तीकरण होने को होता है समझौते शुरू ! फिर 'वह कौन सी जमीं है जहां आसमां नहीं' !

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