रविवार, 29 अगस्त 2010

एक प्रेम कथा ऐसी भी ....

एक प्रेम कथा ऐसी भी ....

 मैं तुझे इतनी अच्छी लगती हूँ . मेरे चेहरे पर झुर्रियां हैं. काले धब्बे हैं. उम्र भी बहुत हो गयी है.
फिर भी !!

हाँ . तू मुझे बहुत बहुत अच्छी लगती है .मुझे तेरी उपरी सुन्दरता से क्या मतलब. खूबसूरत तो मन होना चाहिए . मेरी नजरों में तू सबसे अधिक कीमती है.

आँखें बंद कर इत्मिनान से कंधे पर सर टिकाते दुर्लभ रक्त ग्रुप की वह स्वस्थ स्त्री उस कुटिल मुस्कान को नहीं देख पायी .

प्रेमी मानव अंगों का व्यापारी था ....!

24 टिप्‍पणियां:

  1. ओह ....गज़ब का लिखा है ...हर चीज़ जैसे व्यापार बन गयी है .

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  2. वाह! बहुत खूब लिखा है आपने ! दिल को छू गयी!

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  3. उफ़्………………ये क्या कह दिया………………हृदयविहीनता की पराकाष्ठा।

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  4. आपकी पिछली तीन पोस्टों पर तो चोर जैसा ही बर्ताव किया हूँ , यानी नहीं टीपा पर पढ़ा ! , किन्तु यहाँ प्रेम-प्रविष्टि-चोर नहीं बनूंगा ! :)

    ईश्वर करे की ऐसी प्रेम-दुर्घटनाएं न ही हों ताकि इश्क की पाकीजगी व्यापार-वृत्ति से खुद को बचाती रहे ! आभार !

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  5. उफ्फ्फ्फ़...बात का ऐसा अंत नहीं सोचा था...
    नीरज

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  6. ओह्ह!! इतनी छोटी सी रचना और इतनी मारक...मन द्रवित हो गया...इसे पढ़

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  7. बहुत ही काम शब्दों में आपने इतनी अर्थपूर्ण बात कह दी ...... अच्छा लगा आपका ये छोटा सा लेख

    कुछ लिखा है, शायद आपको पसंद आये --
    (क्या आप को पता है की आपका अगला जन्म कहा होगा ?)
    http://oshotheone.blogspot.com

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  8. मार्मिक लेकिन एक सच..... मैने देखे हे इस से भी बडे कमीने.धन्यवाद

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  9. ओह, मानव मन को चुभती रचना...

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  10. शातिर! शिकारी! शैतान!
    सुन्दर रचना!

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  11. आज तो यहाँ आकर निःशब्द हो गई ....

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  12. ओह !
    कितनी छोटी पर कितनी बडी रचना !

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