रविवार, 11 सितंबर 2011

आप क्यों जुड़े हैं इन नेट्वर्किंग साईट्स से !!!

एक दिन एक ब्लॉगर का सवाल था -  भारतीय संस्कृति को मानने वाले लोग फेसबुक पर क्या कर रहे हैं...
सोचा , मगर इस पर  आपत्ति का कोई कारण मुझे समझ नहीं आया.
फेसबुक या ऐसी और सोशल नेट्वर्किंग साईट्स देश- विदेश से लोगों को एक मंच पर जुड़ने की सुविधा देती हैं .इसका किसी संस्कृति से क्या लेना- देना हो सकता है !
बड़े लोगों की वे जाने ,मैं अपनी बात रख दूं ...

मैं एक सामान्य मध्यम वर्गीय गृहिणी हूँ जो ज्यादा समय घर में ही बिताती है . स्वाभाविक तौर पर हमारा मेल मिलाप भी ऐसे ही परिवारों में अधिक रहा है या हो सकता है, जहाँ स्त्रियाँ इकट्ठी होती है तो उनकी बहस और बातचीत का केंद्र धार्मिक परम्परायें ,कर्मकांड , व्रत- त्यौहार , कपड़े , गहने , परिवार ही होता है . परंतु जो  स्त्रियाँ कर्म क्षेत्र घर ही होने के बावजूद कुएं का मेंढक नहीं बने रहना चाहती हैं  और देश- विदेश की संस्कृतियों की जानकारी में रुचि रखती हैं , आस- पास या दूर देश की दुनिया में क्या घट रहा है की जिज्ञासा रख  जागरूक रहना चाहती हैं , उनके लिए इन्टरनेट कम कीमत पर अधिक जानकारी देने वाला एक  साधन है .
यहाँ कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि यदि सिर्फ जानकारी के लिए इन्टरनेट से जुड़े हैं तो सोशल नेट्वर्किंग की जरुरत क्या है. यह सही है कि प्रचुर मात्रा में सामग्री है इन्टरनेट पर  परंतु हर कोई इतना जानकार नहीं हो सकता है . भाषा के अल्पज्ञान के कारण, वायरस आदि की जानकारी हो या जो लिखा है उसको उसी तरह समझ पाना , सबके लिए इतना आसान नहीं होता . यह भी सही है कि यहाँ किसी की पहचान और इरादों को समझना मुश्किल है . आप जिसे अपना समझकर अपने विचार या समस्या बाँट रहे हैं  वह कब आपको दूसरों की नजरों में उपहास का पात्र बना दें , कहना मुश्किल है  परंतु यह समस्या तो सामान्य जीवन में भी कम नहीं है .
सोचें, वास्तविक जीवन में भी रिश्तेदारों या आपके आस- पास रहने वाले लोगों में भी अवांछित तत्त्व होते ही हैं . आखिर उनका सामना भी करना ही होता है .  कम से कम इन्टरनेट यह सुविधा तो देता है कि जिसको आप नापसंद करते हैं , उससे दूर रह सकें या उनको उचित जवाब दे सकें . ब्लॉक या इग्नोर करने की सुविधा/असुविधा वास्तविक जीवन में कहाँ है !!!
ये सोशल नेट्वर्किंग साईट्स ना सिर्फ विभिन्न परिवेश के लोगों को जानने और समझने का एक जरिया बनते हैं, बल्कि दूर प्रदेश या विदेश में रहने वाले आपके परिचितों /रिश्तेदारों या अनजान लोगों से भी जुड़े रहने का भी एक सहज और सस्ता माध्यम बनते है . इन साईट्स के माध्यम से मैं स्वयं अपने सहपाठी , मित्र ,ब्लॉगर्स आदि के अलावा परिवार /खानदान के उन लोगों से भी जुडी हुई हूँ ,दूरियों के कारण जिन्हें मैंने कभी देखा भी नहीं. किसकी जिंदगी में क्या चल रहा है से परिचित होने के के अतिरिक्त  एक दूसरे के सुख- दुःख से भी जुड़ना होता है !
किसी भी संस्कृति या अपसंस्कृति से इसका सम्बन्ध मैं नहीं जोड़ पा रही हूँ .
आप क्यों जुड़े हैं इन नेट्वर्किंग साईट्स से !!!
व्यर्थ वाद- विवाद में उलझने जितना समय ,सामर्थ्य या शक्ति मुझमे नहीं है . यह समझते हुए सार्थक , विवादरहित , मुद्दों से जुडी टिप्पणी करना चाहते हैं तो आपका स्वागत है !

38 टिप्‍पणियां:

  1. नज़रिया अपना -अपना सोचा अपनी -अपनी लेकिन इनका महत्व कम नहीं जानकारियों के आदान प्रदान में, और भी कई ऐसे बिंदु हैं जीवन और समाज से जुड़े हुए जो इन सोशल नेट्वर्किंग साइट्स के माध्यम से सामने आते हैं .....बस हमें सार्थक सोच और खुद को सँभालते हुए कम करने की जरुरत है .....!

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  2. वो तो ऐसा है कि कुछ लोगो को हर कार्य ही "भारतीय संस्कृति के विरुद्ध" नजर आता है !

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  3. आपकी बातों से सहमत। इस‍ीलिए तो मैं वहां पर बस अपनी पोस्‍ट के लिंक लगाने जाता हूं। :)
    ------
    कब तक ढ़ोना है मम्‍मी, यह बस्‍ते का भार?
    आओ लल्‍लू, आओ पलल्‍लू, सुनलो नई कहानी।

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  4. मनुष्य एक सामजिक प्राणी है ... आज कल शहरों में तो किसी के पास वक्त ही नहीं है एक दूसरे के लिए और बहुत मिलना पसंद भी नहीं है .. इंटरनेट यह सुविधा देता है की वृहद जानकारी के साथ साथ हम बहुत लोगों से जुडते हैं और अपने परिवार और सम्बन्धियों से भी ..ऐसा नहीं महसूस होता की हम ज़िंदगी काट रहे हैं ... लगता है कि जी रहे हैं ..

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  5. लो जी पता नहीं था की ये भी भारतीय संस्कृति के खिलाफ है :)
    मेरे लिए तो फेसबुक अपने परिवार और करीबी दोस्तों से जुड़े रहने का जरिया है सब एक दूसरे से दूर रहते है तो कभी बातचीत तो कभी फोटो आदि देखने के काम आ जाता है नहीं तो एक दूसरे का चेहरा देखे महीनो हो जाता था पहले अब वीडियो चैट की भी सुविधा वहा पर परिवार के बाहर के लोगों को नहीं जोड़ती और ब्लॉग बाकि सभी लोगों से विचारो के आदान प्रदान के लिए है | वैसे ये भारतीय संस्कृति के खिलाफ कैसे है ये बात अभी भी समझ नहीं आई |

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  6. भारतीये संस्कृति के खिलाफ
    ये बाते जब भी कहीं जाती हैं मोरल पुलिसिंग के लिये कहीं जाती हैं वो भी नारियों की पुरुषो के द्वारा जैसे जींस पहनना , धूम्र पान करना , पब जाना इत्यादि तो मेरा पलट कर जवाब होता हैं क्या आप सोशल नेट वर्क साईट पर हैं जब वो सज्जन कहते हैं हां हूँ तो मै कहती हूँ की ये भारतीये संस्कृति के खिलाफ हैं क्यूँ क्युकी ये नेट वर्क साईट किसी विदेशी कम्पनी और सभ्यता की देन हैं . जो लोग भारतीये संस्कृति को महिला को "सबक " सिख्नाने के लिये इस्तमाल करते हैं ये मारक मन्त्र वहा काम आता हैं .

    शायद मैने किसी सन्दर्भ में ऐसा किसी के लिये आप से भी कहा हो , पूरी तरह याद नहीं हैं पर कहती हूँ ये याद हैं . अगर आप से कहा भी हो तो पूरा सन्दर्भ क्या था वो भी पता चले तो कुछ और कहूँ बाकी
    नकारात्मकता और सकारात्मकता सबकी अपनी होती हैं कम वक्त सब के पास हैं लेकिन ब्लोगिंग के माध्यम में प्रतिक्रया जरुरु होगी और वाद विवाद और संवाद भी . ये प्रिंट मीडिया नहीं हैं की छप गया और क़ोई प्रतिक्रया नहीं आयी . आज कल तो लोग प्रिंट मीडिया में चप्पा हुआ भी ब्लॉग पर देते हैं प्रतिक्रिया के लिये
    मोडरेशन और डिलीट करना ब्लॉग मालिक का अधिकार हैं

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  7. जिस किसी शख्स की ये विचारधारा है कि फेसबुक भारतीय संस्कृति के विरूद्ध है उसे पहले संस्कृति क्या है उसे समझना चाहिये।

    संस्कृति कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे मिट्टी की हांडी में बंद कर हवाबंद लेप लगा कर रख दिया जाय।

    संस्कृति समय,परिवेश, परिस्थितियों,लोगों,विचारों आदि का मिलाजुला मिश्रण है जिसमें समय के साथ साथ नई विचारधाराएं, नई तकनीकें, नये लोग मिलते चले जाते हैं। ह देखा जाय तो संस्कृति एक सतत प्रवाह वाली नदी के समतुल्य है न कि चारों तरफ से स्थलयुक्त पोखर। यदि सतत प्रवाह न बना तो पोखर में काई, गंदगी,सड़न उत्पन्न होने लगेगी और संभवत: ऐसे लोग पोखरप्रिय होते हैं जिन्हें जरा जरा सी बात पर भारतीय संस्कृति पर खतरा नजर आता है :)

    हां, इतना जरूर है कि सावधानी पूर्वक फेसबुक आदि का उपयोग किया जाना चाहिये एकदम से अपना डेटाबेस बाहरी दुनिया को उपलब्ध कराना ठीक नहीं। बाकी तो कहने वालों का क्या है...कहते रहें :)

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  8. जुड़े हैं - जुड़े रहने से अच्छा है न ... अकेले अनर्गल तो नहीं सोचते ... सोशल बने रहते हैं - बहस में पड़ना भी क्यूँ !

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  9. वाणी जी,

    'सोशल नेट्वर्किंग' मानव मिलन का ही रूप है। मानव मिलन सभ्यता का अंग है। सभ्यता, संस्कृति से ही परवान चढ़ती है। भारतीय संस्कृति मात्र संज्ञा है। बाहरी दर्शनीय कार्यों के संदर्भ में न देखें तो संस्कृति का अर्थ है 'नैतिक जीवनमूल्य' जो हर संस्कृति में अनिवार्य है। फर्क है तो मात्र इतना कि लोग व्यक्तिगत रूप से उसे कम ज्यादा महत्व देते है।

    स्वछंद मानसिकता सोशल नेट्वर्किंग साईटों पर नैतिक जीवनमूल्यों का दबाव स्वीकार नहीं करती। वहां तो स्वतंत्रता के नाम पर निरंकुशता चाहिए।

    विकृति से संस्कृति सभ्यता का प्रवाह है। जहां जहां विकृति अपना घर बनाएगी संस्कृति-प्रेरणा किसी न किसी रूप में पहुंच जाएगी।

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  10. यदि आप किसी नेट्वर्किंग साईट से जुड़ें तो अपनी प्राइवेसी पॉलिसी को इतना सशक्त रखें कि हर ऐरा-गैर या अपरिचित व्यक्ति आपके नेटवर्क से नहीं जुड़ पाए. फेसबुक का मेरा अनुभव बहुत सार्थक और उपयोगी है. मेरा परिचय बहुत अच्छे व्यक्तियों और विचारों से हुआ है.
    लेकिन हर किसी को इनसे जुड़ना पसंद नहीं है. मेरी पत्नी इनकी घोर विरोधी है और एक बार मैंने उसकी जानकारी के बिना उसका प्रोफाइल बनाया था जो उसने दो दिन बाद डिलीट करवा दिया.

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  11. @ मैंने सार्थक वाद- विवाद से मैंने कभी इंकार नहीं किया है ,लेकिन परस्पर वैमनस्यता निभाने के लिए दूसरों के ब्लॉग का प्रयोग किया जाए और जिससे पोस्ट का उद्देश्य प्रभावित हो, तो इसे अनुचित मानती हूँ !
    आभार !

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  12. ये बात अआपने बढ़िया कही कि कम से कम सोशल वेबसाईट पर तो हम जिसे चाहें ब्लाक कर सकते हैं. शेष, मुझे तो अपने हॉस्टल की बहुत सारी सीनियर्स-जूनियर्स और बैचमेट मिलीं, ब्लॉग के लोगों से व्यक्तिगत परिचय हुआ, मेरे दोस्त जो भारत के कोने-कोने से दिल्ली सिविल की तैयारी करने आये और लौट गए, उनसे जुडना हुआ, बहुत से दूर के रिश्तेदारों से जुड़े रहना संभव हुआ और अनेक नए लोगों से परिचय हुआ, जो अब अच्छे दोस्त हैं... मैं तो फेसबुक को धन्यवाद कहती हूँ.

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  13. @ निशांत जी ,
    सबकी अपनी -अपनी रूचि होती है!

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  14. महिला और इन्टरनेट को लेकर मेरा सोचना जग जाहिर हैं जो यहाँ भी देखा जा सकता हैं

    http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/11/blog-post_14.html

    http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/04/blog-post_29.html

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  15. वाणी जी अगर फ़ेसबुक न होता तो हम सैंकड़ों ऐसे लोगों से जिनको जानते थे, पर यह न जानते थे कि कहां हैं क्या कर रहे हैं -- शायद ही कभी जान पाता। आज तो वे हमारे और हम उनके घर के सदस्य हैं।

    मेरे भांजे-भांजियां जिनसे पिछले १५ सालों से दर्शन नहीं हुए, आज प्रायः रोज़ बातें हो जाती हैं, चेहरा मोहरा दिख जाता है।

    मेरी श्रीमती जी ने अपना प्रोफ़ाइल बनाया तो उनके स्कूल के दिनों के दोस्तों से उनकी बात हो गई।

    कितना गिनाए ... इस साइट के न रहने से हम अपनी संस्कृति से कट-से गए थे, इसके ब-दौलत आज फिर से जुड़ गए हैं।

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  16. अरे ये किस ने कह दिया आपसे..? सोशल नेटवर्किंग का संस्कृति से क्या मतलब? और है भी तो संस्कृति क्या आपके डिब्बे में बचा इकलौता लड्डू है ? जिसे आप किसी को दिखायेंगे भी नहीं.यह आपसी आदान प्रदान की चीज़ है तभी फलती फूलती है.इन शोशल साइट्स ने दुनिया को कितना करीब ला दिया है.आप परवाह मत कीजिये ऐसे विचारों की.

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  17. आपके इस आलेख से मैं पूरी तरह सहमत हूँ क्यूंकि मैं भी आपकी तरह एक ग्रहणी हूँ और वेदेश में यानि लंदन में रहती हूँ मेरा भी ज्यादा तर समय घर में ही बीतता है और ऐसे में यह इंटरनेट ही मेरे लिए सब कुछ बन जाता है सार्थक आलेख
    समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  18. पहले अंतरजाल पर केवल पढ़ती थी,आगे बढ़कर कहीं कहीं प्रतिक्रिया देने लगी और बाद में ब्लॉग बना खुद भी लिखने लगी...लकिन किसी सोशल नेटवर्किंग साईट पर जाने का लाख सुझाव पा भी मन नहीं बना पायी...मुझे इसकी कोई उपयोगिता नहीं नजर आती थी..

    पिछले महीने बेटे ने जबरदस्ती कर फेसबुक पर एकाउंट क्रियेट कर दिया... और जो पिछले हफ्ते डेढ़ हफ्ते से इसपर जाना शुरू किया है तो लगता है,नहीं इसकी भी है उपयोगिता...विशेषकर आज के पूर्वाग्रह ग्रसित मिडिया जिन महत्वपूर्ण मुद्दों समाचारों को सिरे से गोल कर जाती है,उनतक ऐसे ही जरिया तो पहुंचाते हैं...वर्षों से दूर परिचितों के फोटो देख, उनके पुनः संपर्क सूत्र पा, मन हर्षित होता है...

    एक सुविधा है, जिसका जितना सदुपयोग हो सकता है,संभवतः उससे अधिक दुरूपयोग...

    जितना सम्हाल कर समाज के बीच रहना पड़ता है,उतनी ही सावधानी,बल्कि उससे अधिक इन मंचों पर आवश्यक है..

    और जहाँ तक बात रही संस्कृति की,तो इस माध्यम से इसका संरक्षण और विस्तार भी हो सकता है और सकारण भी, पर आपने आप में एक वाक्य कह देना कि इससे संस्कृति का नाश ही होगा...पागलपन है...

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  19. इन्टरनेट कम कीमत पर अधिक जानकारी देने वाला जरिया है और अच्छे लोगों को पढने , गुनने का मौका मिलता है। कोई बुराई नहीं है। जानकारी का दायरा बढ़ता है और सोच विस्तृत होती है। मन को ख़ुशी मिलती है.

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  20. bahut si rujhan ke mutabik jankariyon k sath sath ham door baithe apno se contact me rahte hue naye naye dosto se mil sakte hain, aur sabse badi baat ki hame yaha aa kar khushi aur sukoon milta he to ham aate hain.

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  21. माध्यम महत्वपूर्ण है पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि उस पर क्या लिखा गया।

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  22. भारतीय संस्कृति और सोशल नेटवर्किंग में कोई सम्बन्ध ही नहीं...

    जिन्हें बिलकुल ही समय नहीं मिलता वे भी कभी कभार इन सोशल नेटवर्किंग का रुख कर ही लेते हैं...और जिनके पास समय है..उनके लिए तो इसकी अनगिन उपयोगिता है.

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  23. सबसे पहले परिवार के कारण ही इंटरनेट से जुड़ी थी...धीरे धीरे दोस्त भी जुड़ गए..मेल, वेबकैम, नेट फोन के कारण अब तो लगता है जैसे आसपास ही रहते हैं...माँ से तो हर रोज़ ही जीमेल पर बात होती है...भाई भाभी नौकरी पर चले जाते हैं...माँ अकेली होती है घर में..कुछ देर दिल्ली दुबई बात करके खुश हो जाती हैं...विज्ञान का जितना शुक्रिया किया जाए कम है...

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  24. आज से बहुत साल पहले मेरी एक पड़ोसन थी जो हर बात में चोकस रहती थी और आपके पेट की बात भी निकलवा ले ऐसा स्वभाव था उनका लोगो ने मुझे बहुत डराया था शुरू शुरू में मै उनसे दूर रहने लगी किन्तु पडोसी और धीरे धीरे मेल जोल बढ़ने पर मैंने पाया की उनमे तो बहुत खूबिया है और मुझमे अनेक कमिया तब मेरे मन में ये विचार आया की अगर घर में देवरानी जेठानी का ऐसा स्वभाव तो हम निबाहेंगे ही न ?तबसे वो मेरी बहुत अच्छी मित्र बन गई हालाँकि वो मुझे १० साल छोटी है |
    और हाँ एक मध्यमवर्गीय गृहणी कम नहीं होती नोकरी करने वाली महिलाओ पर दोहरी जिम्मेवारी होने से वो चाहकर भी सामाजिक मसलो ,राजनैतिक मसलो या और बातो में हिस्सा नहीं ले पाती किन्तु आज की गृहणी जागरूकता के साथ परिस्थितियों को बदलने की क्षमता रखती है और समाज को अपनी वास्तविकता पर ला रही है
    हर युग में साधनों के आने से ऐसी ही बाते होती है चाहे वो रडियो युग हो या पेन फ्रेंड का युग ही क्यों नहो ?

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  25. आज से बहुत साल पहले मेरी एक पड़ोसन थी जो हर बात में चोकस रहती थी और आपके पेट की बात भी निकलवा ले ऐसा स्वभाव था उनका लोगो ने मुझे बहुत डराया था शुरू शुरू में मै उनसे दूर रहने लगी किन्तु पडोसी और धीरे धीरे मेल जोल बढ़ने पर मैंने पाया की उनमे तो बहुत खूबिया है और मुझमे अनेक कमिया तब मेरे मन में ये विचार आया की अगर घर में देवरानी जेठानी का ऐसा स्वभाव तो हम निबाहेंगे ही न ?तबसे वो मेरी बहुत अच्छी मित्र बन गई हालाँकि वो मुझे १० साल छोटी है |
    और हाँ एक मध्यमवर्गीय गृहणी कम नहीं होती नोकरी करने वाली महिलाओ पर दोहरी जिम्मेवारी होने से वो चाहकर भी सामाजिक मसलो ,राजनैतिक मसलो या और बातो में हिस्सा नहीं ले पाती किन्तु आज की गृहणी जागरूकता के साथ परिस्थितियों को बदलने की क्षमता रखती है और समाज को अपनी वास्तविकता पर ला रही है
    हर युग में साधनों के आने से ऐसी ही बाते होती है चाहे वो रडियो युग हो या पेन फ्रेंड का युग ही क्यों नहो ?

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  26. फेसबुक सिर्फ भुगोलिक सीमायें तोड़ता है...बाकी तो आम जीवन का ही विस्तार है...इसमें संस्कृति की बात कहाँ से और कौन टहला गया....

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  27. अब नेट्वर्किंग साईट्स से तो नेट्वर्किंग के लिये ही जुड़े हैं। इन संस्कृति विशारदों को दूर की नमस्ते!

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  28. वाणी ,

    फेसबुक का एक उदाहरण देना चाहूंगी ...इस बच्ची को मैंने १९८९ में आठवीं कक्षा में पढाया था .. और बारहवीं क्लास के बाद से कभी मुलाक़ात नहीं हुई थी ...


    Namaste Mam,

    Happy Teacher's Day Mam.
    Finally maine apko doondh liya. Thanks to face book.

    Congrats mam for the awards and publication.
    Ap kaise hain? how is ur family?

    I hope ki apne mughe pehchan liya hoga and ap mughe nahi bhule honge.
    I am Deepali Saini from KV 2 khetri Nagar,. section C .

    You are the real mentor for me.
    I always remeber you and truly miss you for your special care, love , affection for me.
    I wish to express all my gratitude and respect for you on this special day.
    Happy Teacher's Day madam.
    Thanks for being my mentor, guide and teacher.

    Abhi mughe samgh nahi aa raha ki main aur kya likhoo ........

    Bas apko doondh kar mughe bahut accha laga .....

    Warm Regards,
    Deepali

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  29. संगीताजी से सहमत हूँ ....उन्होंने तो सब कुछ कह ही दिया है

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  30. मैं श्री समीर लाल जी की बात से सहमत हूँ,आभार.

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  31. .
    .
    .
    पसंद अपनी अपनी, ख्याल अपना अपना !

    वैसे मैं तो खुद को भारतीय मानने के कारण अपने हर किये धरे को भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही मानता हूँ और मानूं क्यों नहीं... मैं और मेरे जैसे हैं तभी 'भारत' है और 'भारतीय संस्कृति' भी... यह हमीं से तो बनती है... सही कि नहीं ???...



    ...

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  32. यह उपभोक्ताओं पर निर्भर है कि वे इन माध्यमों का कैसा उपयोग करते हैं

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  33. भारतीय संस्‍कृति की दुहाई देने वाले लोग संस्‍कृति का अर्थ ही नहीं समझते। पहले उनसे प्रश्‍न किया जाये कि भारतीय संस्‍कृति का मूल तत्‍व क्‍या है? किस दर्शन पर आधारित है हमारी संस्‍कृति? इस देश में अज्ञानियों की भरमार है और वे ही ज्ञानी बने घूम रहे हैं, इसका क्‍या किया जाए?

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  34. वाणी जी ! देर से आने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ ! मेरे विचार से ऐसी सोशल नेट्वर्किंग साइट्स के साथ संकृति को जोड़ने वाले लोग स्वयं कूप मंडूक होते हैं ! किसी भी संस्कृति के आयाम इतने सीमित और दकियानूसी नहीं हो सकते ! मैं तो आभारी हूँ फेसबुक की जिसके माध्यम से मुझे अपने स्टुडेंट लाइफ के मित्रों से मिलने का सुअवसर इतने वर्षों के बाद मिला जिनका मेरे पास कोई अता पता ही नहीं था ! और इस सुखद अनुभव से किसी संस्कृति पर कोई आँच कब और कैसे आ सकती है मेरी समझ में नहीं आता !

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  35. सोशल नेटवर्किंग की अपनी उपयोगिता है. इसे किसी 'संस्कृति' से जोड़ना ठीक प्रतीत नहीं होता. खास कर तब जब इसमें 'सांस्कृतिक झटकों' से बचने के विकल्प उपलब्ध हैं.

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