सोमवार, 16 जुलाई 2012

कब मिल पायेगा लड़कियों को एक सुरक्षित समाज ....


कहीं किसी शहर के एक कमरे (कमरा कहा है , कौन लोंग हैं --अंदाज़ा लगायें ) में कुर्सियां लगा कर विडियो पर फिल्म देखी जा रही थी  . दृश्य देखते अचानक इन्ही लोगों के बीच एक पत्रकार जैसा व्यक्ति  बदहवास- सा नजर आता है . साथियों के पूछने पर  कुछ नहीं कहता , अचानक उठ कर चल देता है . दूसरे दिन उस व्यक्ति की बहन  की  आत्महत्या की खबर अख़बारों में . 
नहीं जानती कितनी सच्चाई थी इन उडती -सी ख़बरों में , मगर इस तरह हुआ एक बेइन्तहा खौफनाक काण्ड का खुलासा जिसने सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न राज्य में अफरातफरी मचा दी  . जिस तरह परते खुलती गयी , लड़कियों की आत्महत्याओं की संख्या बढती गयी. 
सुनने में आया कि इस दलदल में लड़कियां अपनी मर्जी से जानबूझकर नहीं आई ...एक लड़की, उसकी सहेली  , फिर उसकी सहेली , किसी की ननद , किसी की भाभी , किसी की कोई  ...अपने बचाव के लिए दूसरे को फंसाने  से शुरू हुए इस  ब्लैकमेलिंग के  सफ़र की गिरफ्त में संभ्रांत परिवारों की जाने कितनी लड़कियां भंवर की तरह उलझती  गयी . 
हममे से शायद ही कोई इस तथ्य से अपरिचित होगा  कि एक सभ्य माने जाने वाले समाज में व्यापक स्तर पर ब्लैकमेलिंग क्यों कर संभव हो पाती है . लड़कियों/स्त्रियों के भीतर अपनी या परिवार की बदनामी का भय या फिर  अपने  अपने साथ हुई अनहोनी का जिक्र अपने परिवार से करने का साहस ना हो पाना,  साहस कर भी लिया तो दोषी उन्हें ही ठहराया जाना ...सबसे दुखद यह है ऐसे संगीन मामलों की शुरुआत अक्सर  नजदीकी रिश्तेदार , करीबी मित्रों से ही होती है .  
यदि उस दिन उस व्यक्ति ने वह विडियो नहीं देखा होता तो जाने यह सीरिज जाने कितनी लम्बी चलती .... जिन लोगों का जिक्र यहाँ हैं वे शायद अपनी ड्यूटी निभा रहे थे , मगर ऐसे लोगो की कमी नहीं है जो अपने शौक के लिए ऐसी  फ़िल्में देखते हैं और बड़े फख्र से मनोवैज्ञानिक कारणों का तर्क देते हुए उसका स्पष्टीकरण भी देते हैं . कहा जाता है कि जब लड़कियां खुद अपने आप को उघाड़ रही है तो हमें देखने में हर्ज़ क्या, बल्कि उन्हें बोल्ड होने की संज्ञा देते हुए उनकी प्रशंसा की जाती है . कितने ही तर्कों से इसे ढांकने की कोशिश की जाए मगर सच यह है कि इस तरह की फ़िल्में या साहित्य समाज में एक निम्न स्तर की घृणित उत्सुकता जगाती है जिसकी आंच उन बोल्ड/मजबूर  लड़कियों से होती हुई सामान्य घरों तक पहुँचती है . उच्च वर्ग की बोल्ड लड़कियां अंग प्रदर्शन कर  करोड़ों कमाती हैं मगर इसके बुरे साईड इफ़ेक्ट के रूप में सामान्य घरों की लड़कियां  या स्त्रियाँ उन निम्न स्तरीय निर्माताओं के हाथ की कठपुतली बनती है  जो कम पैसे खर्च कर करोड़ों कमाना चाह्ते हैं ,  लड़कियों की बोल्डनेस को ढाल बनाने वाले उपर्युक्त घटना से जान सकते हैं कि वे बोल्ड किस प्रकार  बनाई जाती है. घृणित उत्सुकता  सस्ते विकल्प के रूप में छिपे कैमरों को किसी मॉल के चेंजिंग रूम से  लेकर किसी होटल के कमरे तक पहुंचाती है . परेशान लड़कियां चीख कर खुले आम कहती हैं कि जब बिकना ही है तो अपने दाम और अपनी शर्तों पर क्यों नहीं---- काश यह समाज   इन शब्दों के पीछे  की गहन  पीड़ा , क्षोभ , दर्द , टीस को महसूस कर सकता . दरअसल उनकी चीख सफेदपोशों के चेहरे पर झन्नाट थप्पड़  है जिससे बौखलाते हैं हम सब मगर  हम उनकी तकलीफ को महसूस नहीं करते , बल्कि उन्हें चालू , कुलटा , वेश्या , लालची, व्यभिचारिणी  के उपनाम दे कर निश्चिन्त हो जाते हैं . 

इस बीच देश को शर्मसार करने गुवाहाटी की घटना से आहत लोंग तर्क देते नजर आते हैं कि इव टीजिंग की घटनाएँ स्त्री- पुरुष को एक- दूसरे से अलग रखने के कारण संभव हो पाती है . तब तो ये निर्माता बड़ा नेक(??) करम कर रहे हैं .
आदि हो जाने का क्या मतलब है , मुझे  यही समझ नहीं आया . क्या ये लोंग अपने घर में अपनी  माँ -बहनों-भाभी -चाची-या अन्य महिला रिश्तेदारों  के साथ नहीं रहते ?  बच्चे कैसे शिक्षा प्राप्त करें यह अलग बात है , वे साथ पढ़ते हैं , लिंग विभेद के बिना आपस में बातचीत करते हैं , इसलिए उन्हें एक दूसरे से बात करने में संकोच नहीं होता , यह बिलकुल अलग बात है . इसका इव टीजिंग से कोई  वास्ता  नहीं है. स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार किसी  व्यक्ति/ समाज विशेष की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है .  
यदि स्त्री -पुरुष का अलग संसार ही इन दुष्कृत्यों का कारण है  तो इस दृष्टिकोण  से  हर धर्म के साधू -सन्यासी , ब्रह्मकुमारी , सिस्टर या नन, अविवाहित स्त्री- पुरुष , विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले  पति- पत्नी आदि, इन  सभी को  दुराचारी या विपरीत लिंग के प्रति अभद्र हो जाना चाहिए. इस प्रकार के तर्क  दुराचरण को सिर्फ एक आवरण प्रदान करते हैं.  

कुछ लोगो का हास्यास्पद तर्क सुना / पढ़ा कि लड़कियों का खुला स्वभाव या उनके छोटे वस्त्र ही इव टीजिंग की घटनाओं का कारण बनते हैं या उकसाते हैं . आये दिन अखबार रंगे होते हैं छोटे बच्चों के साथ दुराचरण की ख़बरों से . क्या मासूम बच्चे किसी प्रकार की उकसाहट का कारण बन सकते हैं .    क्या पूरे वस्त्र पहने स्त्रियाँ अभद्र नजरों, कटाक्षों या व्यवहार से बच पाती हैं ...नहीं .  
बुरी नजरों या अभद्र व्यवहार का कारण  मानसिक रुग्णता ही अधिक होती है . 
दुष्ट प्रवृतियाँ बुरी संगति , घटिया साहित्य या मानसिक रुग्णता के कारण होती है , निराकरण इन परिस्थितियों का किया जाना चाहिए . 
मेरी समझ से दुराचरण या अभद्र व्यवहार के दोष से बचने के लिए स्त्री -पुरुषों को  एक दूसरे के शरीर का  आदि बनाये जाने की बजाय  आत्मनियंत्रण सीखने /सिखाने की आवश्यकता अधिक  है  . विभिन्न समाजों में स्त्रियों या लड़कियों को यह बहुत समय से सिखाया जाता रहा है , इसलिए पुरुषों के प्रताड़ित होने की संख्या ना के बराबर रही है.  यदि हम सामाजिक संतुलन के लिए स्त्रियों को दुर्व्यवहार अथवा अभद्र व्यवहार से बचाना चाह्ते हैं तो पुरुषों को भी उसी मात्रा में संयम और आत्मनियंत्रण सीखने और सिखाये जाने की आवश्यकता अधिक है ना कि स्त्रियों को और अधिक बंदिशों में रहने /रखने अथवा उघाड़ने की सीख दिए जाने की . 

समस्या जिस भी कारण से हो , आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण से बढ़कर और कोई समाधान मुझे नजर नहीं आता .
आत्मसंयम के प्रश्न पर मुझे  स्वामी विवेकानंद से जुडा संस्मरण याद आता है ...  
अमेरिका भ्रमण के समय एक महिला ने स्वामी जी से विवाह की इच्छा प्रकट की क्योंकि वह उनकी विद्वता पर  मोहित थी . स्वामी जी ने जब उस महिला से उनसे विवाह का कारण जानना चाहा तो उसने बताया कि वह विवेकनद जैसे जहीन बच्चे की माँ बनना चाहती है . तब उन्होंने स्वयम को ही उनके बच्चे के रूप में प्रस्तुत किया .  




(यह अधूरा लेख ड्राफ्ट में सेव था , पिछले दो दिन व्यस्तता में रहे , तभी रश्मि रविजा की पोस्ट नजर आ  गयी  . स्त्रियों के प्रति अभद्रता और उन्हें बाजार बना दिया जाना , दोनों ही विषय एक दूसरे से सम्बद्ध नजर आये तो उसकी पोस्ट की टिप्पणी के रूप में लेख को  विस्तार दिया ) 

36 टिप्‍पणियां:

  1. समस्या जिस भी कारण से हो , आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण से बढ़कर और कोई समाधान मुझे नजर नहीं आता .

    सधा हुआ लेख ... तर्क वितर्क बहुत हैं लेकिन सही समाधान तो आत्मनियंत्रण में ही है .... आभार

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  2. मैं शुरू से कहती आई हूँ कि शारीरिक संरचना और समाज के बनाये नियम में कोई बदलाव नहीं होगा . खुद के लिए सोचना है , इज्ज़त की परिभाषा पर गौर करना होगा - हत्या करनेवाला निगाहों से बच जाता है और जिसकी हत्या होती है , उसकी साँसें जब तक चलती हैं - लोग उसीको कहते हैं
    घर से खींचकर भी लड़कियां ले जाई जाती हैं ... वहशी , दरिन्दे लोगों से चलता यह समाज क्या बदलेगा !!!

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  3. गहन अवलोकन!! सार्थक निदान!!
    और आत्मनियंत्रण से बढ़कर और कोई समाधान हो ही नहीं सकता।
    क्योंकि आत्मसंयम के अतिक्रमण के कारण ही ये विकृतियाँ अस्तित्व में आती है।

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  4. विभिन्न समाजों में स्त्रियों या लड़कियों को यह बहुत समय से सिखाया जाता रहा है , इसलिए पुरुषों के प्रताड़ित होने की संख्या ना के बराबर रही है. यदि हम सामाजिक संतुलन के लिए स्त्रियों को दुर्व्यवहार अथवा अभद्र व्यवहार से बचाना चाह्ते हैं तो पुरुषों को भी उसी मात्रा में संयम और आत्मनियंत्रण सीखने और सिखाये जाने की आवश्यकता अधिक है ना कि स्त्रियों को और अधिक बंदिशों में रहने /रखने अथवा उघाड़ने की सीख दिए जाने की .
    well said and i wish all understand this as fast as they can
    lets us unite to raise our voice together for the sake of our daughters

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  5. अब तो लड़कियों / महिलाओं को ही आगे आना पड़ेगा अपनी सुरक्षा में . आखिर कब तक चुप रहेंगी महिलाएं .
    हालाँकि अपना स्वयं का आचरण भी सही रखना ज़रूरी है .

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  6. मेरी पोस्ट पर किए टिप्पणी का विस्तार है यह पोस्ट तो मैं वहाँ दिया प्रत्युत्तर ही कमेन्ट के रूप में रख रही हूँ....पर ये जो तुमने लिखा है..
    ."तब तो ये निर्माता बड़ा नेक(??) करम कर रहे हैं ."
    ये मेरी समझ में नहीं आया...क्या सह-शिक्षा की तुलना..एक पोर्न फिल्म से की जा सकती है...??

    सह-शिक्षा का मतलब...लड़के-लड़कियों का एक दूसरे से संबंद्ध स्थापित करना नहीं होता...बल्कि साथ समय बिताना...एक दूसरे के साथ..उठना-बैठना..पढना-खेलना...विचारों का आदान-प्रदान करना...इतना तो तुम भी समझती ही हो.

    वाणी ,
    आदी होना मैने सिर्फ कपड़ों के सन्दर्भ में ही नहीं कहा...लड़कियों का स्कूल -कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण करने का ..ऑफिस में काम करने का जितना ज्यादा प्रतिशत होगा...लोगों के लिए उनका अस्तित्व स्वीकार करना उतना ही आसान होगा...क्यूंकि वे उनकी उपस्थिति के आदी हो जायेंगे.

    @स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार किसी व्यक्ति विशेष की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है .
    इस दृष्टिकोण से हर धर्म के साधू -सन्यासी , ब्रह्मकुमारी , सिस्टर या नन, अविवाहित स्त्री- पुरुष , विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले पति- पत्नी आदि, इन सभी को दुराचारी या विपरीत लिंग के प्रति अभद्र हो जाना चाहिए.

    स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार बेशक व्यक्ति विशेष की मानसिक स्थिति पर ही निर्भर करता है...पर जैसा कि गुवाहाटी में हुआ या अन्य जगहों पर भी समय समय पर हो चुका है..वहाँ कोई व्यक्ति विशेष नहीं था...एक ग्रुप था लोगो का. जो बस किसी तरह एक नारी शरीर को छू लेना चाहते थे...उसे बेपर्दा कर देना चाहते थे.

    साधू-सन्यासी....नन -ब्रदर..की बातें मैं नहीं करना चाहती..समय-समय पर उनसे जुड़ी ख़बरें भी आती ही रहती हैं.

    @अविवाहित स्त्री- पुरुष , विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले पति- पत्नी आदि, इन सभी को दुराचारी या विपरीत लिंग के प्रति अभद्र हो जाना चाहिए.

    अविवाहित स्त्री-पुरुष या विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले पति- पत्नी ...कोई एकांतवास में नहीं जीते....इनका विपरीत जेंडर से मिलना-जुलना होता ही रहता है. मिलने-जुलने का अर्थ कोई संबंद्ध बनाना नहीं होता..एक सहज-सामान्य व्यवहार होता है.

    @इसका इव टीजिंग से कोई वास्ता नहीं है.
    तुम्हारी अपनी सोच है वाणी...उसका सम्मान करती हूँ पर मुझे एग्जैक्टली ऐसा ही लगता है कि को- एड में पढ़ने वाले किशोर या फिर बचपन से ही लड़कियों के साथ आपस में मिलने-जुलने खेलने -कूदने वाले किशोर ...ईव-टीजींग में कम लिप्त होते हैं. बनिस्पत कि उनके जो हमेशा लड़कियों को बस दूर दूर से ही देखते हैं .

    संयम रखने की बात तो मैने पोस्ट के शुरुआत में ही कही है..कि आखिर वही लोग, अपनी जानी-पहचानी स्त्रियों को देखकर तो आत्म-संयम रखते हैं...पर अनजान स्त्रियों को देख ,उनके अंदर की पशुता भड़क जाती है.

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    1. @ "तब तो ये निर्माता बड़ा नेक(??) करम कर रहे हैं ."
      यह पंक्ति वहां टिप्पणी में भी नहीं होगी .
      यह पंक्ति तुम्हारी पोस्ट से सम्बंधित नहीं है पोर्न फिल्मों के उन प्रशंसकों के लिए है क्योंकि जो अक्सर लड़कियों को इस प्रकार की बोल्डनेस अपनाने का सुझाव देते हुए आदि हो जाने का तर्क देते हैं!
      @ तुम्हे ऐसा लगता है कि वे सिर्फ छूना चाह्ते थे , बेपर्दा करना चाह्ते थे जबकि मैं मानती हूँ कि यह उस लड़की को जानबूझकर अपमानित किया जाने वाला कृत्य रहा हो .
      @ व्यक्ति विशेष को ग्रुप विशेष या समाज के लिए भी प्रयुक्त हुआ ही मानो .
      अभद्र या घटिया हरकतें करने वाले सिर्फ महिलाओं के बीच में रहे तब भी वही करेंगे , क्योंकि उनकी यही मानसिकता है !

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    2. @@इस बीच देश को शर्मसार करने गुवाहाटी की घटना से आहत लोंग तर्क देते नजर आते हैं कि इव टीजिंग की घटनाएँ स्त्री- पुरुष को एक- दूसरे से अलग रखने के कारण संभव हो पाती है . तब तो ये निर्माता बड़ा नेक(??) करम कर रहे हैं .
      मेरी पोस्ट में टिप्पणी पर नहीं है..पर यहाँ तो मेरी पोस्ट के विषय के साथ ही इसका जिक्र है...और उक्त वाक्य के परिप्रेक्ष्य में ही कहा गया है.

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  7. बहुत ही गहरा अवलोकन किया है समस्या का पर सच फिर भी यही है की जब तक समाज की सोच में बदलाव, स्त्री को सामान अधिकार और उनमें खुद आत्मविश्वास और आत्मरक्षा की भावना नहीं जागती इसका कोई त्वरित हल नज़र नहीं आता ...

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  8. @साधू-सन्यासी....नन -ब्रदर..की बातें मैं नहीं करना चाहती..समय-समय पर उनसे जुड़ी ख़बरें भी आती ही रहती हैं.
    जरुर आती होंगी , मगर आम लोगो के मुकाबले बहुत कम ही !

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    1. @साधू-सन्यासी....नन -ब्रदर..की बातें मैं नहीं करना चाहती..समय-समय पर उनसे जुड़ी ख़बरें भी आती ही रहती हैं.
      जरुर आती होंगी , मगर आम लोगो के मुकाबले बहुत कम ही !

      तो फिर जहाँ आम लोगों की बातें हो रही हों...वहाँ इनका उदाहरण भी जरूरी नहीं था.:):)

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  9. समस्या जिस भी कारण से हो , आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण से बढ़कर और कोई समाधान मुझे नजर नहीं आता .
    बिल्‍कुल सही कहा है आपने ... सशक्‍त लेखन के लिए आभार

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  10. लड़कियों के लिए समाज हर रूप में असुरक्षित होता हा जा रहा है एक रूप आप ने दिखाया , एक गुवाहाटी की घटना से दिख इस तरह की घटनाओ की संख्या बढ़ती जा रही है किन्तु ये केवल इस उम्मीद में की लडके संयमी बने से नहीं होने वाला है ये बाते तो हम कई बार कह चुके है की अपराधी सुधार जाये तो क्या वो सुधार जाते है किन्तु इससे कुछ नहीं होने वाला है जरुरी है की हम लड़कियों को ही इतना मजबूत बनाये की वो इसका सामना कर सके कड़ाई से | रश्मि जी की पोस्ट को आप ने गलत तरीके से ले लिया उन्होंने लडके लड़की को सम्बन्ध बनने के लिए नहीं कहा है उन्होंने कहा है की जब लडके लड़किया एक साथ बचपन से ही पढेंगे तो उन्हें एक दूसरे को ले कर उतनी उतसुकता नहीं रहेगी जितनी की हम उन लड़को में देखते है जो घर से बाहर की अनजान लड़कियों को बहुत ही कम मिल जुल पाते है और उनके लिए कोरी कल्पनाए बनाते है उन्हें अपने लिए अजूबा जैसा मानते है और उन्हें देखते ही उत्साहित से हो जाते है | मेरी एक मित्र है उन्हें बेटा है हमारे बच्चो का जब नर्सरी में एडमिशन होने वाला था तो उन्होंने कहा की मै अपने बेटे को सह शिक्षा में ही डालूंगी क्योकि जब लडके लड़कियों के साथ पढ़ते है तो वो उन लड़को के मुकाबले कम उद्दंड और शरारती होते है जो बस लड़को के स्कुल में पढ़ते है क्योकि लड़कियों के साथ पढ़ाने के कारण उन्हें स्कूलों में उद्दंडता की पूरी छुट नहीं मिलती है , वो लड़कियों से कैसे बातचीत किया जाये और शारीरिक रूप से वो लड़को से कितनी अलग है उसको समझते है और लड़कियों का शांत शौम्य व्यवहार उन्हें भी शांत रखता है | बहुत से और भी फायदे है यदि लडके बचपन से लड़कियों के साथ पढ़े हा इसमे दो राय नहीं है की कुछ गड़बडिया यहाँ भी होती है |
    @ उच्च वर्ग की बोल्ड लड़कियां अंग प्रदर्शन कर करोड़ों कमाती हैं
    आप के इस बात से सहमती नहीं है इसका कोई अर्थ नहीं है, किसी वर्ग विशेष की लड़की को ये कहना बहुत ही गलत है |

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    1. उच्च वर्ग की बोल्ड लड़कियां ...करोडो कमाएंगी तो उच्च वर्ग की ही कहलाएंगी ना ! आर्थिक दृष्टि से उच्च वर्ग ...मेरे खयाल से इसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं है !

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  11. Jabtak samaj kee manytayen nahee badal jateen,sab kuchh aisahee rahega....kisee bhee aurat kee izzat lootna bhayankar gunah hai,lekin lutee hui aurat kee zindagee us karan nasht kar dena ye usse adhik bhayankar gunah hai....isee soch ko badalna hoga.

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  12. वैसे तो आत्म नियंत्रण स्त्री-पुरुष दोनों के लिए होना चाहिए...लेकिन अक्सर स्त्रियों की बात होती ही रहती है..कल एक पोस्ट लिखी थी सोचा, यहाँ उसके कुछ अंश दे दूँ :

    ब्लॉग जगत में, नारी और नारी विमर्श हमेशा अपने परवान पर चढ़ा रहता है, लेकिन कभी, किसी ने, पुरुष या पुरुषत्व की बात नहीं की है । कई बार सोचती हूँ आख़िर पुरुषत्व का अर्थ क्या है ?

    शील प्रधानं पुरुषे तद् यस्येह प्रणश्चति।
    न तस्य जीवितनार्थो न धनेन न बन्धुभि।।

    अर्थात, किसी भी पुरुष का सबसे प्रधान गुण उसका सच्चरित्र होना होता है, अगर वह नहीं है, तो फिर, उसके जीवन में धन और बन्धु-बान्धवों का होना कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं करता।

    सच बात तो यह है, कि अपने पर नियंत्रण करना ही, पुरुषत्व का सबसे बड़ा और मजबूत प्रमाण माना जाता है।

    पुरुषत्व महज एक लिंग पर टिका हुआ प्रश्न नहीं है, जो मनुष्य, शिष्ट, सभ्य हो, जो आलस्य, अकर्मण्यता और अज्ञान से ऊपर उठ कर, अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण को प्राप्त करता है, सही अर्थों में वही पुरुषत्व का अधिकारी है, और वही पुरुष कहलाने योग्य है ।

    एक बात याद रखें कि आज भी, हमारे देश के लोगों के हृदय महानायक भगवान श्रीराम हैं और यह केवल इसलिये कि उन्होंने जीवन भर ‘एक पत्नी व्रत’ को निभाया। उनके नाम से ही लोगों के हृदय प्रफुल्लित हो उठते हैं।

    लेकिन आधुनिक समाज में पुरुषत्व की परिभाषा, कुछ लोगों के लिए व्यभिचार और भोग-विलास तक ही सिमित रह गयी है ।
    कुछ बातें, फिलहाल समझ नहीं आईं हैं...इसलिए जवाब नहीं दिया है..
    सोचती हूँ...

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  13. जगह जगह इतना विचार मंथन हो रहा है तो कुछ सार्थक होगा ही, उसी सार्थक की जानकारी की अपेक्षा रहेगी|

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  14. आत्मसंयम ही समाधान हो सकता है.... किसी के दिए संस्कार कब तक काम आयेंगें .... स्वनियंत्रण से यह समझना होगा कि जो गलत है वो न किया जाये ....

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  15. समस्या जिस भी कारण से हो , आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण से बढ़कर और कोई समाधान मुझे नजर नहीं आता .
    सही कहा आपने ..
    सार्थक प्रस्तुति ...
    साभार !!

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  16. परिवारों में ज्ञान का स्‍थान व्‍यावसायिक शिक्षा ने ले लिया है। पहले हम संयुक्‍त परिवार में रहते थे और सारे ही रिश्‍तों के प्रति सम्‍मान का भाव जागृत करते थे। जितने भी पौराणिक कथाएं थी उनको बच्‍चों को सुनाया जाता था और उन्‍हें हमेशा ही सन्‍मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया जाता था। लेकिन आज व्‍यावसायिक शिक्षा के अतिरिक्‍त किसी भी अन्‍य ज्ञान की बात का बच्‍चे के जीवन में स्‍थान नहीं है। यह समस्‍या वहाँ और विकराल रूप ले लेती है जब बच्‍चे परिवार से दूर अन्‍य शहरों में शिक्षा लेने या रोजगार की तलाश में जाते हैं। कॉलेज में जाते ही छात्रों की रेगिंग होती है और इस रेगिंग में क्‍या सिखाया जाता है? जो बच्‍चा थोड़े बहुत संस्‍कार परिवार से लेकर आता है, उनको भी झाड़-पौछ दिया जाता है। गाली देना, नंगा रहना, व्‍यसन करना ही उन्‍हें सिखाया जाता है अर्थात पुर्णतया: प्रकृतिस्‍थ पुरुश की स्‍थापना हो जाती है। इसलिए जहाँ पूर्व में समाज पुरुष को समाजहित में रहने के लिए संस्‍कारित करता रहता था अब वही समाज उसे असंस्‍कारित कर रहा है। परिणाम महिलाओं को भुगतने पड़ रहे हैं।

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  17. hamesha ladkiyon ko har tarah ke aatmsayam ki shiksha unke ghar se hi di jati hai to kyu n aisi hi shiksha ladko ko bhi di jaye. ham apne bado se sunte aaye hain ki ye to ladka hai...kuchh oonch-neech ho bhi jayegi to ladke ka kya bigdega aadi, aadi....lekin me kahti hun aise vichar, aisi soch se kyu poshit kiya jata hai ladkon ko. unhe aatmniyantran rakhne aur duraacharan n karne ka paath kyu nahi padhaya jata. ham hi ladkon ko bahut chhoot kyu dete hain. ham kyu nahi unke dimag me ye baat baitha dete ki ghar k bahar ki ladkiyan bhi unki behno ki tarah ijjat rakhti hain aur kisi k liye bhi manoranjan ki vastu nahi hain.

    prabhavi lekh.

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  18. समस्या जिस भी कारण से हो , आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण से बढ़कर और कोई समाधान मुझे नजर नहीं आता .

    सुंदर अभिव्यक्ति सटीक आलेख !!

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  19. इस कृत्य की भर्त्सना की जाये और ईश्वर से प्रार्थना की जाये कि पुरुष अपनी मर्यादा समझें।

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  20. रक्षक ही भक्षक बने, बिगड़ा है परिवेश।
    नारी नर की खान है, भूल गये उपदेश।।

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  21. इक तरफ़ा आत्मनियंत्रण शायद समस्या का समाधान ना हो...बल्कि दोनो ही तरफ़ से होना चाहिये. हमारे समाज का जो पुरातन ताना बाना है वही इसके लिये दोषी है. आज चारों तरफ़ इसके विरोध में स्वर मुखर हो रहे हैं तो उम्मीद है आत्मनियंत्रण के साथ साथ समाज का विवेक भी जाग्रत होगा. बहुत सटीक और सामयिक आलेख, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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    1. यही तो मैंने भी लिखा ...स्त्रियों के साथ पुरुषों को भी सीखना होगा आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण !

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  22. उम्मीद करता हूं कि आत्मनियंत्रण केवल स्त्रियों के हिस्से में नहीं आएगा !

    उम्मीद नहीं है कि सारे पुरुष स्वामी विवेकानंद जितने विवेकवान हो जायेंगे !

    बहरहाल इस समस्या के अनेकों उपायों में से एक उपाय आपका भी सही ! हालांकि मुझे लगता है कि आत्मनियंत्रण वाले मसले ने देवताओं और ऋषियों को भी धोखा दिया है, इसलिये इंसानों के लिए इसके साथ कुछ और ठोस सुझाव भी खोजे जाने चाहिये!

    इस मुद्दे पर अब तक अदा जी, आपको, रश्मि जी और अंशुमाला जी को पढ़ा है और इतने ही सुझाव देखे हैं ! अदा जी के यहां कमेन्ट नहीं कर पाया पर उनका सुझाव गुनहगारों में दहशत पैदा करने में सक्षम लगा ! अंशुमाला जी भी कड़ाई के पक्ष में है पर आप और रश्मि जी का स्टेंड थोड़ा साफ्ट लग रहा है और इसके माध्यम से निदान में समय भी लगेगा !

    आपको साधुवाद कि आप उन लोगों में से नहीं है जो चुप्पी साध जायें !

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  23. बहुत बढ़िया आलेख है बिलकुल सही कहा की आत्मसंयम ,आत्मनियंत्रण ही इंसानी रूह जो कुकृत्य पर उतारू रहती है ,को वश में कर सकता है

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  24. आत्मनियंत्रण से ही उछ्रंखलताएँ वश की जा सकती है। पर-दमन अधिकांश मामलों में असफल रहता है। स्व-दमन जिसका प्रारम्भ अपने चरित्र अपने परिवार से शुरू होना चाहिए। आत्मनियंत्रण का अभ्यास जीवनमूल्यों की ट्रेनिंग तरह शिक्षा के साथ ही हो।

    आत्मनियंत्रण का अधिकांश भाग पुरूषों के हिस्से में ही आना चाहिए। क्योंकि लोक-लज्जा से पुरूष ही अधिक बेफिक्र है, स्वछंदता जहाँ अधिक है आत्मसंयम का अनुशासन वहां ही विशेष होना चाहिए।

    आक्रोश, वर्ग-विग्रह, हिंसा, प्रतिशोधात्मक सजा, ठोस व अचुक निराकरण नहीं है। भले भय के उद्देश्य से हो हिंसक भाव का प्रसार समाज में अराजकता को न्योतता है। हिंसा-प्रतिहिंसा के एक दुष्चक्र का निर्माण होता है जिसका किसी समाधान पर अंत नहीं होता।

    मानव ने सुसंस्कृत और सभ्य बनकर ही सफलता हासिल की है, जंगली बनकर या जंगल के नियमों से नहीं। आज भी सभ्य तरीके से ही सफलता अर्जित करनी है। सभी का सभ्य सुसंस्कृत बने रहना आवश्यक है।

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  25. बाप रे घनघोर मंथन मगर विचार कितने अलग अलग से है :-)
    जाहिर है लोगों के कार्य व्यवहार पर उनके पारिवारिक संस्कार ,खुद का अपना स्वभाव
    और परिष्कृत होते जाना ज्यादा मायने रखता है ...
    शायद ये कार्य बिगड़े बच्चे या आपराधिक मनोवृत्ति के लोग करते हैं मगर गौहाटी का
    मामला एक मॉस हिस्टीरिया लगता है जो उस लड़की को सबक सिखाने को हिस्र हो उठा ..
    पत्रकार को भी वोयेरिजम का आनन्द मिलने लग गया ....बहरहाल उसकी जान बच गयी ..
    अन्यथा एक एक बोटी भी अगर वे नर पिशाच नोचते तो वहां क्या शेष रहता ?

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  26. गुवाहाटी और समाज के दोगले चरित्र पर अभी एक पोस्ट लिखी थी.. एक समाज के रूप में हम पतन की और बढ़ रहे हैं..
    http://bit.ly/Pr1vCL

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  27. यदि हम सामाजिक संतुलन के लिए स्त्रियों को दुर्व्यवहार अथवा अभद्र व्यवहार से बचाना चाह्ते हैं तो पुरुषों को भी उसी मात्रा में संयम और आत्मनियंत्रण सीखने और सिखाये जाने की आवश्यकता अधिक है ना कि स्त्रियों को और अधिक बंदिशों में रहने /रखने अथवा उघाड़ने की सीख दिए जाने की समस्या जिस भी कारण से हो, आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण से बढ़कर और कोई समाधान नहीं यही सच है सहमत हूँ आपकी इस बात से सशक्त एवं विचारणीय आलेख। समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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  28. मेरे ख्याल से स्त्रियों की दशा पहले से कहीं बेहतर हुई है। यह भी है कि अब कोई भी अन्याय अत्याचार छिपा नहीं रहता। उसपर चर्चा होती है और करेक्टिव एक्शन भी।
    पुरुष वादी सोच - पुरुषों में भी और स्त्रियों में भी - उत्तरोत्तर बैकफुट पर जाती जा रही है। इस पर संतोष भी व्यक्त किया जाना चाहिये।

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  29. मेरे ख्याल से वाणी जी और रश्मि जी दोनों की बातें एक दूसरे की विरोधी नहीं पूरक हैं। सवाल जटिल है, मानव-मन जटिल हैं तो कोई एक सार्वभौमिक उत्तर ढूंढना तो भोलेपन की इंतिहा ही होगी। फिर भी कुछ बिन्दु:
    1. कानून - स्पष्ट हो, दृढ हो - हर व्यक्ति को सुरक्षा का अधिकार है, हरेक सुरक्षित हो।
    2. अपराधी को ऐसे बहाने का कभी कोई हक़ नहीं है कि वह किसी के वस्त्राभूषण, सौन्दर्य, शिक्षा, कुलीनता, कमज़ोरी, लापरवाही, बीमारी, नशे आदि से अपराध के प्रति प्रेरित हुआ/हुई।
    3. सामान्यतः सहशिक्षा, मिलना-जुलना आदि विपरीतलिंगी उत्सुकता/उत्कंठा/कुंठा को कम करने में सहायक सिद्ध होते हैं यह अनुभवजन्य तथ्य है। नैतिक शिक्षा, यौनशिक्षा आदि के समन्वय से किशोरावस्था के अपराधों में भारी कमी आ सकती है। बॉस्टन, मुम्बई और लाहौर में अकेली नारी कहाँ अधिक आत्मविश्वासी और सुरक्षित है?
    4. उम्र बढने के बाद भी शायद मेलजोल के वातावरण में किसी-किसी का मन बदले लेकिन कुंठित/डाइ-हार्ड अपराधियों की सोच बाद में इतनी आसानी से नहीं बदलती। अपराधी मनोवृत्ति के व्यक्ति को तो खुला माहौल उसके अपराध के लिये अनुकूल ही लगेगा। ऐसे लोग चर्च में, मदरसे में और घर में भी अपराध करते ही हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि मेलजोल ग़लत है। ऐसे लोगों की पहचान और सज़ा हो। किसी के घर पर स्वागतम लिखे होने का अर्थ यह नहीं कि उचक्कों का रोज़ वहाँ जाकर हुड़दंग मचाना स्वीकार्य है।
    5. देशकाल के हिसाब से आत्म-नियंत्रण और दण्ड दोनों के संतुलन की ज़रूरत है। सऊदी अरब की मानसिकता वालों को हिंसक कानून ही समझ आते हैं। बल-प्रयोग और दण्ड की भाषा मात्र समझने वालों को यदि सभ्य समाज में लाना है तो बहुत लम्बी शिक्षा-दीक्षा की ज़रूरत पड़ेगी। पीढियों से अन्धकार में रहे समुदाय को अचानक रोशनी दिखे तो आँख चौन्धियाती है।
    6. अपराधी मनोवृत्ति, लालच, वासना, बल के दम्भ या मानसिक बीमारी से ग्रस्त लोग कहीं भी पाये जा सकते हैं। इनका समुचित इलाज ज़रूरी है लेकिन उससे भी ज़रूरी है इन विकारों से रहित सामान्यजन की सुरक्षा जिसकी ज़िम्मेदारी प्रशासन को लेनी ही पड़ेगी। हर व्यक्ति हर समय हर जगह अपनी सुरक्षा कैसे करता रहेगा?

    7. सहमति भी सही हो, यह ज़रूरी नहीं। दवाब, सामाजिक/धार्मिक कुरीति, व्यक्तिगत कमज़ोरियाँ आदि कई बार अपराध को सहमति कृत्य जैसा दिखा सकते हैं। राजकुमार की जान की रक्षा के लिये अपने बेटे की बलि पन्ना धाय के लिये स्वाभाविक सी बात थी। क्या आज के समाज में एक निरीह का ऐसा प्राणांत स्वीकार्य होगा? इसी प्रकार किसी मुस्लिम नारी के लिये तीन सौतें या तीन बार तलाक़ कहकर घर से निकाल दिया जाना स्वाभाविक हो सकता है लेकिन क्या यह न्याय है?
    8. सोच-व्यक्तित्व का स्पेक्ट्रम बहुत विस्तृत है। जहाँ निश्छल और सुलझे हुए लोग हैं वहाँ हर व्यक्ति, वस्तु, गुण को अपने उपभोग का पदार्थ समझने वालों की कमी नहीं है इसलिये समस्या के मूल से भटके बिना यह वयस्क स्वेच्छा और चोरी/डकैती/बलात्कार का अंतर सुनिश्चित करने का प्रयास हो और हर अपराध नाकाबिले बर्दाश्त हो।

    अच्छा विमर्श है, ऐसे समाजोपयोगी विषयों पर वार्ता जारी रहे। शुभकामनायें!

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