सोमवार, 8 अगस्त 2011

यही तो है मेरे मन में बसा राधा का स्वरुप....


अनूठा तेरा प्रेम राधा !


राधा कृष्ण की प्रेमकथा पर अनगिनत बार लिखा जा चुका है . अनगिन कथाएं पढ़ी है मगर इनका राधा और कृष्ण का चरित्र ही ऐसा है , जितना गुना जाए कम है . उड़ीसा के प्रमुख सहित्यकार श्री रमाकांत रथ जी का लेख अहा! जिंदगी में पढ़ा तो बस मुग्ध भाव से मुंह से यही निकला ...अनोखी राधा तेरी प्रीत! सबसे अलग , सबसे अनूठा ...

इनका अनूठा खंड काव्य "श्री राधा " राधा के उदात्त और प्रेममय चरित्र के अनगिनत पृष्ठ खोलता है , इन्हें पढ़ते हुए ऐसे अद्भुत नयनाभिराम दृश्य पलकों पर स्थिर हो जाएँ और इस अद्भुत प्रेम की पुलक और सिहरन को पलकों से बहता देखा जा सके . निष्काम प्रेम की बहती सरिता ...रमाकांत रथ की राधा में डॉ मधुकर पाडवी ने इस ग्रन्थ की बेहतरीन समीक्षा प्रस्तुत की है ..


प्रस्तुत है इस लेख के कुछ अंश ...

राधा -कृष्ण की प्रेमकथा विश्व की किसी भी प्रेमकथा से भिन्न है . जब वे एक दूसरे से मिले , राधा का विवाह हो चुका था . कृष्ण के साथ उसका सम्बन्ध ऐसा था कि उसके साथ रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी . यदि उन्हें लोगों का सहयोग भी मिलता , तब भी उनका विवाह हो नहीं सकता था . राधा निश्चित रूप से यह बात जानती होगी , तब भी अगर वह अपने जीवन की अंतिम सांस तक कृष्ण को चाहती रही तो स्पष्ट है कि यह सब वह बिना किसी भ्रम के करती रही . कृष्ण के साथ अपने संबंधों का आधार उसने सांसारिक रूप से एक -दूसरे के साथ रहने के बजाय कुछ और बनाया , जो इससे कही अधिक श्रेष्ठ था . यदि व्यक्ति में कामना की निष्फलता को स्वीकार करने का साहस हो यह संभव ही नहीं कि वह किसी भी स्थिति में वियोग से पराजय स्वीकार करेगा .

कृष्ण के प्रति उसका प्रेम अनूठा रहा होगा . ऐसा प्रेम किसी साहस विहीन व्यक्ति के ह्रदय में तो उपज ही नहीं सकता था . जब वह कृष्ण वर्ण बादलों को देखती तो पूरी रात वियोग में रोती और गाती रहती है और अपनी सहेलियों से याचना करती है की वे कृष्ण को उसका सन्देश दें . इन गीतों में यही वर्णित है कि वह कैसे अपने आप से परे एक व्यक्तित्व में बदल जाती है . यह सब सत्य भी हो सकता है , पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि राधा भीरु थी . इसका अर्थ यह भी है कि वह अपनी इस स्वतंत्रता का उपयोग अपने जीवन के एक मात्र ध्येय यानी कृष्ण से प्रेम करने में किसी प्रकार का जोखिम नहीं है . यदि वह अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाती तो कृष्ण के प्रति उसकी अनुभूति इतनी गहन नहीं होती . राधा की जिन बातों से उसकी दुर्बलता तथा कोमलता प्रकट होती है , वे वास्तव में उसकी चारित्रिक दृढ़ता और धैर्य की उपज है .

मैं किसी ऐसी चिडचिडी राधा की कल्पना कर नहीं सकता जो वृन्दावन छोड़ने के लिए , उस पर निष्ठा नहीं रखने के लिए तथा अपने प्रति उदासीन रहने के लिए चिडचिड़ाती हो और उसके प्रति प्रेम को मान्यता दिलवाने या उसके साथ रहने के उपाय ढूँढने के लिए उससे कहती हो . ऐसा कोई भी आचरण उसके लिए अप्रासंगिक है . प्रारंभ से ही वह ऐसी कोई आशा नहीं पाले रखती है अतः कुंठित होकर निराश होने होने की भी उसकी कोई सम्भावना नहीं है . यदि वह निराश हो सकती है तो केवल इसलिए कि कृष्ण को जिस सहानुभूति और संवेदन की आवश्यकता थी , वह उसे न दे सकी . न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है !

अद्भुत !


चित्र गूगल से साभार !

25 टिप्‍पणियां:

  1. राधे...राधे...राधे....
    बरसाने वाली राधे...
    श्रीराधे...राधे...राधे...राधे....

    जय हिंद...

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  2. न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है ! बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये आपका आभार ।

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  3. बहुत सुन्दर एवं सार्थक परिभाषा प्रेम की .

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  4. जब कभी मैं मथुरा, वृंदावन, बरसाना आदि गया हूं, एक अलग अनुभूति हुई है। इस आलेख में राधा की जिस छवि को प्रस्तुत किया गया है बड़ा ही मनभावन लगा। इस आलेख को पढ़कर विद्यापति जी की कुछ पंक्तियां शेयर करने का मन बन गया --

    मोर मन हरि लय गेल रे, अपनो मन गेल।
    गोकुल तेजि मधुपुर बसु रे, कत अपजस लेल।।

    **


    चानन भेल विषम सर रे, भुषन भेल भारी।
    सपनहुँ नहि हरि आयल रे, गोकुल गिरधारी।।
    एकसरि ठाठि कदम-तर रे, पछ हरेधि मुरारी।
    हरि बिनु हृदय दगध भेल रे, झामर भेल सारी।।
    जाह जाह तोहें उधब हे, तोहें मधुपुर जाहे।
    चन्द्र बदनि नहि जीउति रे, बध लागत काह।।

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  5. यदि वह निराश हो सकती है तो केवल इसलिए कि कृष्ण को जिस सहानुभूति और संवेदन की आवश्यकता थी , वह उसे न दे सकी . न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है !

    अच्छी प्रस्तुति ..लिंक्स पर जा कर भी काफी कुछ पढने को मिला .. आभार

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  6. राधा के प्रेम को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है। राधा का प्रेम तभी अलौकिक कहा जाता है यदि लौकिक होता तो आज कोई याद ना करता कोई ना चाहता वैसे ही प्रेम की अनुभूति……………राधा तो मन से रम गयी थी तन ही दो दिखते थे मगर अन्दर से तो राधा और कृष्ण कभी दो थे ही नही और यही प्रेम की पराकाष्ठा होती है मगर आज के संदर्भ मे इस प्रेम तक कहाँ कोई पहुँच पाता है………आज तो प्रेम को तोड मरोड दिया गया है। यूँ ही राधा को नही पूजा जाता राधा सा प्रेम सिर्फ़ राधा ही कर सकती है कोई और नही।

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  7. ना दे पाने की पीड़ा हमेशा ही सबसे ज्यादा खलती है..
    सुन्दर आलेख.

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  8. वर्तमान परिवेश में राधा कृष्ण प्रेम को समझना अत्यंत कठिन है ।
    सोचने पर मजबूर करता लेख ।

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  9. बेहतरीन और सार्थक प्रस्तुति,आभार.

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  10. प्यार की प्रतिमूर्ति हैं राधा!

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  11. न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है !

    सच में ..... ऐसे लोग भले ही कम होते हैं पर होते तो हैं........ राधे का तो चरित्र ही निराला है......

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  12. प्रेम की उंचाईया यहीं पर हैं, इसीलिये कॄष्ण के पहले स्थान पा गई राधा..."राधाकॄष्ण"

    रामराम.

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  13. राधाकृष्ण के अलौकिक प्रेम की अद्भुत महिमा का बखान मन को मुग्ध कर जाता है...

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  14. मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
    जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।

    इतिहासकार भले ही राधा नामक व्यक्ति के अस्तित्व को नकार दें परंतु कृष्णभक्तों के हृदय में तो ही बसते हैं!

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  15. प्रेम बनाये गहरा सागर,
    क्या चिन्तन, बस गोते खायें।

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  16. न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है !... yahi satya hai, todmarodker to log rakh dete hain , durbin se dekhte hain aur ek anargal soch ka bijaropan kerte hain

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  17. राधा कृष्ण के प्रेम को नया सन्दर्भ देता आलेख अच्छा लगा. वाकई नहीं दे पाने का दुःख सदियों तक सालता है...

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  18. सुँदर आलेख के लिए साधुवाद . राधे राधे .

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  19. अमूमन 'प्रेम-पगे लेखन' से जल्द प्रभावित न होने वाले मुझ जैसे 'कठ-करेजी' को भी भा गई यह पोस्ट।

    शानदार !

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  20. अति उत्तम आलेख मन मुग्ध हो गया
    श्रीप्रकाश शुक्ल

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