शुक्रवार, 11 जून 2010
पिता का जीत गया विश्वास ....
" ये तो पूरी मिट्टी हो गयी है ...दूसरी बेटी है ना तुम्हारी , ले जाओ घर " उस एक महीने की नन्ही सी बच्ची के लगभग नीले पड़ते से चेहरे को देखते हुए चिकित्सक ने पिता को कहा ।
फक्क चेहरा लिए सीढियां उतरते पिता उस बच्ची को कलेजे से लपेटे फफक पड़ा । दूसरी बेटी के जन्म पर शुभचिंतकों को ज्यादा चिंता इस बात की थी कि एक तो दूसरी बेटी और वो भी नक्षत्रों में । उनकी चिंता को दरकिनार रखते हुए दो दिन पहले ही जलवा पूजन कार्यक्रम बड़े उत्साह से संपन्न किया था । अभी तो उसका बिखरा सामान ही नहीं समेटा । इसी व्यस्तता में उसकी माँ कि यह शिकायत कि बच्ची दूध नहीं पी रही है , सुस्त पड़ी है ...को माँ की समझ काम निपटाने में लगे पिता ने इसे माँ की सामान्य चिंता ही माना था ।
पिता बच्ची के लगभग ठन्डे पड़ते शरीर को ईश्वर की नियति मानने को राजी नहीं हो पा रहा था । उलटे पैरो वापस पहुंचा .." एक बार फिर ध्यान से देखिये , कोई तो उपाय होगा "
" अरे , ले जाओ , दूसरी बेटी है , 98 प्रतिशत ख़त्म हो चुकी है । अभी तो जवान हो । और बच्चे हो जायेंगे "
"२ प्रतिशत बची है ...मतलब कुछ तो प्रयास किया जा सकता है ..." लगभग गिड़गिड़ाते हुए पिता बोला
" देख लो , बहुत खर्चा हो जाएगा , कोई गारंटी नहीं है कि ठीक ही हो जाये । "
हताश मुरझाये से पिता को देख चिकित्सक का मन पसीजा ।
" ठीक है , पास में ही एक अस्पताल है , सिर्फ इन्फैन्ट्स के लिए ...ले जाओ वहां । फिर भी मैं कह रहा हूँ कि उम्मीद बहुत कम है ..."
"आप मुझे पता दीजिये ...." डूबते को तिनके का सहारा मिल गया था । पिछली कई दिनों की थकान को भूलते हुए लगभग दौड़ पड़ा पिता ।
पहले इन्क्यूबेटर में और फिर ऑक्सीजन मास्क लगाये नन्ही को कक्ष के बाहर बैठा पिता निहारता रहा घंटों । मन ही मन प्रार्थना करते हुए ...
48घंटे निगरानी में रखना होगा . अभी कुछ कहा नहीं जा सकता . दवाईयों की पर्ची संभलाते चिकित्सकों की टोली ने कहा था ।
कभी कभी लम्बी-लम्बी साँसे लेती पुत्री को देख सहमा रात भर टहलता पिता प्रार्थना के स्वर मन ही मन और बढ़ा देता .
आखिरकार वह काली रात बीत गयी . बच्ची के शरीर का नीलापन छंट चुका था . सक्शन मशीन कलेजे में जमा बलगम साफ़ करने में सफल हो गयी थी . बच्ची की सांसें भी सामान्य हो गयी थी .
रात भर जागे पिता को सांत्वना देते हुए चिकित्सक मुस्कुराया ...." चमत्कार ही हुआ है , लगभग मर चुकी तुम्हारी बेटी वापस लौट आई है . खतरा छंट चुका है सुबह तक वार्ड में शिफ्ट कर देंगे . अब तुम आराम कर लो . "
" नहीं मैं ठीक हूँ , वार्ड में बच्ची को शिफ्ट करने के बाद ही घर जाऊँगा "
आज एक पिता के विश्वास के आगे प्रकृति हार गयी थी ....
ऐसे हैं मेरी बेटियों के अद्भुत पिता ....
रविवार, 6 जून 2010
शादी निभाने के लिए क्या आवश्यक है ... ..." प्रेम " या "समझौता" ...??
भयंकर अलर्जी की शिकायत के कारण आजकल काम कम और आराम ज्यादा हो रहा है । गृहिणियों के लिए ज्यादा आराम का मतलब ज्यादा टीवी शो देखना ...आजकल एक धारावाहिक " ससुराल गेंदा फूल " नियमित देख रही हूँ ।
संयुक्त परिवार की महत्ता को कायम करता हुआ यह धारावाहिक परिवार के सदस्यों के आपसी तालमेल और उनके बीच प्यार सद्भाव बनाये रखने के लिए घर की मुख्य धुरी बड़ी बहू के त्याग और समर्पण को दिखाता है ।
बड़ा बेटा पत्नी और बच्चों को छोड़ अपना दूसरा घर बसा चुका है , जबकि उसकी पत्नी इसी घर में रहते हुए अपने सास ससुर और देवर की मदद से पूरे परिवार को एकजुट रखने का संकल्प निभा रही है । कहानी का मूल विषय है ..." शादी का बंधन सिर्फ एक व्यक्ति से नहीं , पूरे परिवार से जोड़ता है "
धारावाहिक के इस अंक में गृहत्यागी बड़े बेटे का जन्मदिन है और सभी सदस्य बड़ी बहू को प्रसन्न करने के प्रयास में लगे हैं । फ्लैश बैक में बेटे का घर छोड़ कर जाने का कारण और उसकी अंतिम पाती को याद करते उसके माता पिता और पत्नी का अपने परिवार से संवाद को दिखाया जा रहा है ।
धारावाहिक देखते हुए शुरू हुई दिल दिमाग की रस्साकसी इस पोस्ट का विषय बन गयी है ....
बेटा (ईश्वर ) ईमानदारी से स्वीकार करता है कि उसका अपनी पत्नी से प्रेम नहीं रहा और जिस दूसरी स्त्री से उसे प्रेम हो गया है , वह उसके बगैर रह नहीं सकता इसलिए अपने इस रिश्ते को समाप्त करते हुए वह दूसरे देश में अपनी दूसरी पत्नी के साथ घर बसा रहा है ....
जब प्रेम नहीं है या अब नहीं रहा तो इसका दिखावा करते हुए साथ क्यों रहा जाए ...यह ईमानदारी ठीक ही लगती है ....वही दूसरी ओर यह प्रश्न भी है कि प्रेम नहीं था तो इतने वर्ष साथ क्यों रहा गया ...और इस साथ के कारण जन्मे बच्चों का क्या ....बच्चों की परवरिश में लिए माता -पिता दोनों का योगदान समान होता है ...तो
क्या अपने प्रेम के लिए बच्चों से उनका स्वाभाविक हक़ छीन लेना उचित है ...??
क्या शादियाँ सिर्फ प्रेम से निभती हैं , निभानी चाहिए ...??
पास बैठी बेटी से मैंने मेरे दिमाग ने पूछ लिया " शादियाँ निभती तो समझौते से ही है ...यदि प्रेम विवाह भी किया जाए तो वह भी समझौते के बिना निभ नहीं सकता ...वास्तव में शादिया निभायी ही जाती हैं , निभती नहीं "
ठीक उसी क्षण यह ख़याल भी दिल में आया ...
" पर यदि प्रेम हो तो समझौता करने का दिल करता होगा ना , अपने आप ही हो जाता होगा सामंजस्य , यदि प्रेम नहीं है तो सामंजस्य सिर्फ मजबूरी बन कर रह जाएगा "
क्या यह सही है कि प्रेम निभाया नहीं जाता , अपने आप निभता है , जबकि शादियाँ निभानी पड़ती हैं ...
सफल वैवाहिक जीवन के लिए क्या आवश्यक है ....." प्रेम या समझौता " ....
ससुराल गेंदा फूल .....इस धारावाहिक को देखते हुए मेरे दिल और दिमाग की इस रस्साकसी को सुलझाने में मेरी मदद नहीं करेंगे आप ....??
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संयुक्त परिवार की महत्ता को कायम करता हुआ यह धारावाहिक परिवार के सदस्यों के आपसी तालमेल और उनके बीच प्यार सद्भाव बनाये रखने के लिए घर की मुख्य धुरी बड़ी बहू के त्याग और समर्पण को दिखाता है ।
बड़ा बेटा पत्नी और बच्चों को छोड़ अपना दूसरा घर बसा चुका है , जबकि उसकी पत्नी इसी घर में रहते हुए अपने सास ससुर और देवर की मदद से पूरे परिवार को एकजुट रखने का संकल्प निभा रही है । कहानी का मूल विषय है ..." शादी का बंधन सिर्फ एक व्यक्ति से नहीं , पूरे परिवार से जोड़ता है "
धारावाहिक के इस अंक में गृहत्यागी बड़े बेटे का जन्मदिन है और सभी सदस्य बड़ी बहू को प्रसन्न करने के प्रयास में लगे हैं । फ्लैश बैक में बेटे का घर छोड़ कर जाने का कारण और उसकी अंतिम पाती को याद करते उसके माता पिता और पत्नी का अपने परिवार से संवाद को दिखाया जा रहा है ।
धारावाहिक देखते हुए शुरू हुई दिल दिमाग की रस्साकसी इस पोस्ट का विषय बन गयी है ....
बेटा (ईश्वर ) ईमानदारी से स्वीकार करता है कि उसका अपनी पत्नी से प्रेम नहीं रहा और जिस दूसरी स्त्री से उसे प्रेम हो गया है , वह उसके बगैर रह नहीं सकता इसलिए अपने इस रिश्ते को समाप्त करते हुए वह दूसरे देश में अपनी दूसरी पत्नी के साथ घर बसा रहा है ....
जब प्रेम नहीं है या अब नहीं रहा तो इसका दिखावा करते हुए साथ क्यों रहा जाए ...यह ईमानदारी ठीक ही लगती है ....वही दूसरी ओर यह प्रश्न भी है कि प्रेम नहीं था तो इतने वर्ष साथ क्यों रहा गया ...और इस साथ के कारण जन्मे बच्चों का क्या ....बच्चों की परवरिश में लिए माता -पिता दोनों का योगदान समान होता है ...तो
क्या अपने प्रेम के लिए बच्चों से उनका स्वाभाविक हक़ छीन लेना उचित है ...??
क्या शादियाँ सिर्फ प्रेम से निभती हैं , निभानी चाहिए ...??
पास बैठी बेटी से मैंने मेरे दिमाग ने पूछ लिया " शादियाँ निभती तो समझौते से ही है ...यदि प्रेम विवाह भी किया जाए तो वह भी समझौते के बिना निभ नहीं सकता ...वास्तव में शादिया निभायी ही जाती हैं , निभती नहीं "
ठीक उसी क्षण यह ख़याल भी दिल में आया ...
" पर यदि प्रेम हो तो समझौता करने का दिल करता होगा ना , अपने आप ही हो जाता होगा सामंजस्य , यदि प्रेम नहीं है तो सामंजस्य सिर्फ मजबूरी बन कर रह जाएगा "
क्या यह सही है कि प्रेम निभाया नहीं जाता , अपने आप निभता है , जबकि शादियाँ निभानी पड़ती हैं ...
सफल वैवाहिक जीवन के लिए क्या आवश्यक है ....." प्रेम या समझौता " ....
ससुराल गेंदा फूल .....इस धारावाहिक को देखते हुए मेरे दिल और दिमाग की इस रस्साकसी को सुलझाने में मेरी मदद नहीं करेंगे आप ....??
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