शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

यूँ ही ...कल्पना ही सही ...



इस तरह जुड़े हैं तुझसे
मेरे दिल के तार
बेतार
कि मैं ख़ुद हैरान हूँ
जख्म रिसता तेरा वहां है
दर्द होता मुझे यहाँ है
सोचती थी तन्हाई में अक्सर
कौन है जो
हर पल साया सा साथ चलता है
मेरी हँसी में मुस्कुराता है
मेरे ग़म में आंसू बहाता है
सख्त जमीन पर कड़ी धूप में
गुलशन सजाता है
मुट्ठी से फिसलती रेत के ढेर पर भी
आशिआं बनाता है
लडखडाते हैं जब चलते रुकते कदम
अपनी अंगुली बढाता है
नीम बेहोशी में अक्सर
अक्स जिसका नजर आता है.....
सोचती थी अक्सर यूँ भी
मेरा साया वो
कहीं मैं ख़ुद तो नही
या फिर कही
मेरी कोई
कल्पना तो नही .......
तुझसे जो मिले ख्वाब में जिंदगी
तो जाना
मोड़ कर हर राह
जिस तरफ़ नदी सी बही
तू है वही
कल्पना ही सही .......



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बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

यह कैसी समाज सेवा .....!!

डोर बेल की आवाज सुनकर घर के भीतर हलचल हुई ...दो छोटी बच्चियां भागती हुयी आयीं ...
" बुआ गयी ...दीदी को नही लाई ...." कहती हुई कविता से लिपट गयी।
हाँ ...बेटा ...मैं तो इधर मार्केट आयी थी ...सोचा तुम लोगों से मिलती चलूँ ...मम्मी और दादी कहाँ है ...दोनों भतीजियों को साथ लिए कविता ड्राइंग रूम में कदम रख चुकी थी ।
किचन में बर्तनों की खडखडाहट कुछ समय के लिए रुक गयी ...हाथ पोंछते हुए माँ भी ड्राइंग रूम तक पहुँच गयी थी ...
"आज अचानक कैसे "....कविता को पास बैठाते हुए माँ बोली ...
"बस ...ऐसे ही तुम लोगों की बहुत याद रही थी ...भाभी कहाँ है ..."
"वो अपने कमरे में दो बच्चियों को पढ़ा रही है...अपनी महरी की बेटियाँ हैं...वो किसी मार्केटिंग वाली कंपनी का टास्क जो पूरा करना है" ...
वाह ...ये तो बहुत बढ़िया काम है .... काम भी और समाज सेवा भी ...
"हाँ ..वो तो है ....तू बैठ ...मैं जरा दो बर्तन सलटा दूँ ..चाय बनाती हूँ ".....कुछ अनमनी सी माँ बोली...
"नही माँ रहने दो ...अभी मार्केट में जूस पी लिया था ...लाओ बर्तन मैं करा दूँ ..."
"नही बेटा मैं कर लूंगी ...तू थोडी देर के लिए ही तो आयी है ...बैठ आराम से ..."
"और बच्चा पार्टी तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है ...इस एक्जाम के बाद रिपोर्ट कार्ड गया क्या ..
दिखाना मुझे " ....
"नही बुआ ....रिजल्ट तो गया पर रिपोर्ट कार्ड लेने कोई गया ही नही ...पैरेंट्स के हस्ताक्षर के बिना देते नही है और पापा मम्मी को फुरसत ही नही मिली "...
" कोई बात नही ...अब ले आयेंगे ...क्या परसेंटेज रही " ...
" अरे पढ़ती कहाँ है दोनों ...बहुत ख़राब मार्क्स आए हैं "..बीच में ही बच्चों की दादी बोल पड़ी ...
" बुआ ...ट्यूशन वाले सर पढाते हैं ...कुछ समझ ही नही आता ...दुबारा पूछो तो डांटने लग जाते हैं " ...

"आज के लिए इतना बहुत है ...अब कल पढ़ना "...
बोलती हुई भाभी महरी की बच्चियों के साथ बाहर आ गयी ...
"अरे कविताजी ...आप कब आयी ....मुझे तो पता ही नही चला ....और तुम दोनों कब से खेल रही हो ...जाओ अपने कमरे में पढो "....
" मम्मी , ये सवाल समझ नही रहा जरा समझा दो इसे "...
" अभी थोडी देर फुरसत मिली है मुझे ...तुम्हारे ट्यूशन सर से पूछ लेना ...जाओ ...मुझे तंग मत करो "...
रुआंसी सी दोनों बच्चियां अपने कमरे में चली गयी ......
कविता वापसी में सारे रास्ते रुआंसी भतीजियों और माँ के मलिन चेहरे के बीच भाभी की समाजसेवा के औचित्य के बारे में ही सोचती रही ...यह कैसी समाजसेवा ....!!


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