बुधवार, 22 मई 2013

लरजती उम्मीद ...फौलादी विश्वास



"जल्दी उठो ...रामपतिया आई नहीं अभी तक , मसाला भी पिसा नहीं , आटा भी नहीं गूंधा हुआ ...अब खाना कैसे बनेगा ...मुझे देर हो रही है ...तुम जाकर देख आओक्यों नहीं  रही है।"

तेजी से घर में घुसते हुए नीरा के कदम रुक गए ।

मतलब महारानी अभी भी सो ही रही है ...

पड़ोस में ही रहने वाली अपनी सहेली सीमा से मिलने आई नीरा ने जा कर उसे झिंझोड़ दिया .


तुम्हे कोई शर्म है या नहीं ...इतने दिनों बाद लम्बी छुट्टियों में आई हो और पसरी रहती हो इतनी देर तक , ये नहीं कि आंटी की थोड़ी हेल्प ही कर दो ।

कभी -कभी ही तो आती हूँ...तो आराम से नींद तो पूरी कर लूं ...अपना वॉल्यूम कम करो तो ....कुशन से अपने कान ढकती सीमा महटियाने लगी .


अब तुम ही संभालो इसे , मैं तो भाग रही हूँ ...पहले ही लेट हो गयी हूँ .

आप जाईये आंटी ...इसको तो मैं देखती हूँ ...

नीरा रसोई में घुस गयी.

महारानी , उठो अब ...चाय पी लो ...आंटी स्कूल गयीं ...दुबारा कोई चाय नहीं बनाने वाला है . 


थैंक यू ,
दोस्त हो तो ऐसी ....चाय का गरमागरम कप हाथ में लेते सीमा उठ गयी .

"इस रामपतिया को क्या हो गया , आ नहीं रही ४ दिन से ...सब काम मुझे ही देखना पड़ रहा है "

कही गाँव चली गयी हो .

अरे नहीं , अभी तो ज्यादा समय नहीं हुआ उसे गाँव से आये ...उसका बेटा आने वाला था ...शहर में कोई अच्छी नौकरी मिली है उसे .

दोनों सहेलियां चाय सुड़कते बाहर बरामदे में आ बैठी।

बरामदे से सटे बगीचे में गुडाई करते किशन को सीमा ने आवाज़ लगाई ...


" किसना ...तनी रामपतिया का खबर लेके आओ तो ...काहे नईखी आवत ...4 दिन भईल ...जा दौड़ के देख तो ..."
चाय पीकर दोनों बतियाते हुए 
बरामदे से सटे  बगीचे में टहलती रही .

दीदी जी , दीदी जी ...किशन की आवाज सुनकर दोनों दौड़कर बरामदे में आई तो सामने बदहवास हांफता किशन नजर आया .

का भईल रे ...

उ दीदी जी ...उहाँ ढेर लोंग रहे ....का जाने का बात बा ...पुलिसवा भी रहे ... हम तो भागे आईनी .

चल , देख कर आते हैं ...क्या बात है !

किसी अनहोनी की आशंका में दोनों सहेलियाँ साथ लपक ली ।

रामपतिया के घर का नजारा देख दोनों स्तब्ध रह गयी ...पुलिस वाले बता रहे थे ...बुखार था इसे दो -तीन दिन से ....पेट में कुछ अन्न नहीं गया ...पहले से हड्डियों का ढांचा भूख बर्दाश्त नहीं कर पाया ..कल से बेहोश पडी थी .
ओह! धम से बैठ गयी नीरा वहीँ ...

३-४ घरों में काम करके कमाने वाली रामपतिया ने अपनी मेहनत की कमाई से बेटे को पढने लिखने शहर भेजा ...इतनी स्वाभिमानी कि काम करके लौटते गृहस्वमिनियाँ खाना खाने को कहती तो साफ़ मना कर देती ...
" ना ...बहुरिया ...भात पका के आईल बानी "

रात दिन कुछ न कुछ मांग कर ले जाने वाली अन्य सेविकाओं के मुकाबले उसे देखना सीमा और नीरा को सुखद आश्चर्य में डालता था । भीड़ को हटा और पुलिस वाले को विदा कर दोनों उसे रिक्शे में लेकर डॉक्टर के पास भागी  ग्लूकोज़ की दो बोतलों ने शरीर में कुछ हरकत की 

नीरा बिगड़ने लगी थी उस पर ...
का जी ...बीमार थी तो कहलवा नहीं सकती थी ... जो प्राण निकल जाता तो पाप किसके मत्थे आता ...उ जो बेटा लौटने वाला है शहर से ...सोचा है ...का होता उसका ।

बबी ...गुस्सा मत कीजिये .... कहाँ बुझे थे कि ऐसन हो जाएगा ...हमसे उठा ही नहीं गया कि कुछ बना कर खा लेते ...और प्राण कैसे निकलता ...बिटवा जो आये वाला है ।

उन लरजती पलकों में हलकी सी नमी के बीच ढेर सारी उम्मीद लहलहा रही थी। सीमा और नीरा उसके जज्बे के आगे नतमस्तक थी । हड्डियों का वह ढांचा अचानक उन्हें फौलादी लगने लगा था ।




वटवृक्ष
 से प्रकाशित .....