संवेदनाओं को झकझोरने वाली घटनाएँ इन दिनों आम है . ट्रैफिक सिग्नलों पर लगे छिपे कैमरे आम जनता की संवेदनहीनता को बड़ी मुस्तैदी से रिकोर्ड कर उनका चेहरा बेनकाब करने में जुटे हैं जैसा की अभी कुछ दिन पहले जयपुर में एक दुर्घटना में घायल परिवार से राह से गुजरते लोगों की संवेदनहीनता को उजागर किया . सुसंस्कृत और परम्पराओं से गहरे जुड़े होने वाले इस शहर की संकल्पना को जबरदस्त झटका लगा . जागरूक नागरिक ठगा सा खड़ा सोचता ही रहा है कि आखिर हमारे अपने इस शहर के लोगों को हुआ क्या है. संवेदनहीनता का ग्रहण लगा कैसे !
एक भागमभाग लगी है इन दिनों . सबको चलते जाना है जैसे भीड़ का हिस्सा बनकर . कौन राह में खो गया , किसी को खबर नहीं और ना ही जानने की उत्सुकता . जब तक हमारे काम का है तब तक पूछ है उसके बाद जैसे कोई पहचान ही नहीं ...गीत याद आता है " मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं , जा रहे हैं ऐसे जैसे हमें जानते नहीं ". इससे भी बढ़ कर यह की जिससे मतलब ही नहीं , उसे पहचाने क्यों !!
कब घर कर गया यह चरित्र हम सबमें, हमारे शहर में , पता ही नहीं चला ....
मैं लौटती हूँ पीछे . ज्यादा नहीं यही कोई लगभग दस वर्ष पहले ही घर से ऑफिस की डगर पर पतिदेव के स्कूटर को पीछे से टक्कर मारी जीप ने . स्कूटर सहित गिरे तो बाएं पैर में वहीँ फ्रैक्चर नजर आया . आस पास खड़े लोगो में से एक सहृदय ने उनके स्कूटर पर बैठकर घर छोड़ा और गेट से अन्दर तक गोद में उठा कर छोड़ कर गया . इस घटना से भी कई वर्षों पहले एक दिन राह चलते पुरानी मोपेड में साड़ी अटकी और सँभालते हुए भी आखिर गिरने से बचे नहीं . गोद में छह महीने की बच्ची साथ में , पटलियों में से साड़ी तार -तार . आस पास के घरों से ही एक महिला सहारा देकर अपने घर ले गयी . अपनी साड़ी पहनने को दी .अजनबी होने के बावजूद उसे हिचक नहीं थी कि पता नहीं मैं साड़ी वापस करुँगी भी या नहीं .
खट्टे- मीठे , अच्छे- बुरे अनुभवों का सार ही है ये जीवन , एक पल में ही आशा टूटती है तो कोई दूसरा पल आस बंधाता भी मगर टूटन का समय और अनुभव अधिक लम्बा हो तो भीतर एक शून्य भरता जाता है ...
कैसे बदल गया यह माहौल , यूँ ही तो नहीं ...
कुछ घाव कहीं तो लगे होंगे जिसने भीतर की करुणा के कलकल बहते स्त्रोत को सोख लिया . प्रशासनिक , सामाजिक ,आर्थिक मजबूरियां लग गयी है हमारे कोमल स्वभाव , परदुखकातरता को दीमक की तरह ...
शब्दों में लिख कर , बोल कर उस घटना की संवेदनहीनता पर खूब चर्चा कर लें मगर कैसे ...
क्या राह पड़े किसी राहगीर को घायल देखकर हम रुक पाते हैं ....रुकना चाहे तो याद आ जाते है वे किस्से कि रुके थे कुछ लोग जो अपना पर्स , घड़ियाँ , गंवाने के अलावा मारपीट के भी शिकार हुए . अविश्वास ही भारी तारी रहता है हर समय !
बदल गया है ये जहाँ ..हो हल्ला कर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने वालों का मजमा लगा होगा. वास्तव में भले किसी गिरे हुए को सिर्फ हाथ पकड़कर भी ना उठाया होगा मगर नाम लाभ लेने को तैयार ...प्रेम , करुणा , संवेदना पर सबसे अधिक चर्चा करने वाले वही जिन्होंने कभी कुछ किया नहीं हो !
स्वयं द्वारा कभी की गयी इस अनदेखी पर ग्लानि हो तो बात समझ आती है वर्ना तो सिर्फ शब्द है , बातें है...
बातें है बातों का क्या !!