बारिश की रिमझिम फुहार के बीच जन्माष्टमी की शुरुआत होना लुभा रहा है और खींचे ले जा रहा है स्मृतियों के आँगन में ...श्रीवैष्णव परिवार में जन्म लेने के कारण ही शायद कृष्ण भक्ति विरासत में मिली है।{विरासत में सब कुछ अच्छा ही मिलने का दावा नही है ...}
जन्माष्टमी के दिन अल्लसुबह ही घर में चहल पहल शुरू हो जाती...रोज देर तक मां की आवाज़ को अनसुना करने वाले हम बच्चे एक आवाज़ में ही उठ जाते..श्रीकृष्ण के झूले की व्यवस्था जो करनी होती थी...कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है आख़िर ...जल्दी जल्दी नहा धोकर झांकी की तैयारी में लग जाते ...बहुत याद आता है ....बड़ी सी चौकी पर बांस की लकडियों का सहारा लगाकर झूले का ढांचा तैयार होता और फिर आती मां की रंग बिरंगी चुनरी की साडियों की बारी ...मां भी बड़े खुले दिल से सारी कीमती साडियाँ देने में कोई कोताही नही बरतती ...आख़िर हमारे इस उत्साह का कारण भी तो वो ही होती थीं ... बड़े बड़े आड़े तिरछे पत्थरों को पहाड़ का रूप देते ..मिटटी सहित दूब और छोटे पौधे जमाते ...कहीं कहीं रुई के फाये बर्फ की शक्ल में जमाते ...और घर की सफाई में नाक भों सिकोड़ने वाले हम बिना किसी हिचकिचाहट के कही से भी दीवारों पर लगी काई लगाकर जमा देते ..पहाड़ असली जो दिखने चाहिए होते थे...और इतना ही नही ...पहाड़ के नीचे बाकायदा नदी भी बनाई जाती ...ईंटों का गोल घेरा बना कर... चिकनी मिटटी से लीप देते ...नदी का पानी है तो हल्का आसमानी रंग दिखाने के लिए नीली स्याही का वास्तविक उपयोग किया जाता ...और फिर उनमे तैरती प्लास्टिक की छोटी बतखें ...कभी कभी छोटा भाई अपने कुत्ते बिल्लों ...जाहिर है प्लास्टिक के ...को भी तैरने का लुत्फ़ उठा लेने देता ...झुला बन गया ...पहाड़ भी ...नदी भी...अब आती कृष्ण जी के जन्मस्थल की बारी ....छोटी स्टूल को रंग बिरंगी पन्नियों के कतरन से ढककर जेल बनाई जाती ...और उसमे मिटटी के बने वासुदेव ..देवकी और कृष्ण जी को आराम करने दिया जाता ...बीच बीच में खिलोनों के स्थान को लेकर झगडा रुसना मनाना भी चलता रहता ...
आँगन को धो पोंछ कर मां बड़ी से अल्पना बनाती...ड्राइंग में अपना हाथ काफी तंग है इसीलिए उसमे कुछ मदद नही करते ... मां की हिदायतों के बीच इधर ये सब चलता रहता ...
उधर मां रसोई घर में प्रसाद बनाने में जुटी होती ...सोंठ अजवाईन के लड्डू...धनिये की पंजीरी ...नारियल की बर्फी ...और भी बहुत कुछ ..
मां प्रसाद अब भी बनाती है...झूला भी सजाती है ...मगर वक़्त के निर्मम थपेडों ने उस उल्लास को ख़त्म कर दिया है. कभी -कभी मन होता है सुबह जल्दी जा कर झूला सजाने में उनकी मदद दूँ ..मगर एक तो अपनी गृहस्थी के पचडे और कही भाई -भाभी इसे अनावश्यक हस्तक्षेप ना समझ ले ..सोचकर कदम रुक जाते हैं.
खैर लौटें स्मृतियों पर ...
जब सब तैयारी हो जाती तो सभी बच्चे तैयार होकर कालोनी के दूसरे घरों में कृष्ण -झांकी देखने आने का निमंत्रण देने जाते ...निमंत्रण तो बहाना भर होता ...असली मकसद तो होता था उनके घरों में सजने वाली झांकियों का चुपचाप अवलोकन करना ...और फिर अपनी सजावट में फेर बदल कर उसे सबसे सुंदर बनाने की कोशिश करना...शाम से ही बच्चे और बड़े सभी उत्साहित होकर रंग बिरंगे कपड़े पहने एक दूसरे के घर झांकी देखने जाते ...क्या क्या याद नही आया रहा ...रात को बारह बजे आरती के बाद प्रसाद ग्रहण करते ....झूले को रस्सी के सहारे झुलाने के लिए अपनी बारी का इन्तजार करते आंखों की नींद तो पता नही कहाँ गायब हो जाती...
जब बच्चे यह सब सुनकर बड़ा हुलस कर कहते है .."मां ..हमारे पास तो बाँटने के लिए ऐसी यादें ही नही होंगी "तो मन एक अपराध बोध से भर जाता है । आज की पीढी के ज्यादा समय टेलीविजन ..मोबाइल और इन्टरनेट से चिपके होने का कारण शायद घरों में ऐसी गतिविधियों की कमी ही है। बच्चों को पढ़ाई के अतिरिक्त और किसी भी कार्य को करने पर.. "बेटा ...पढ़ लो ...समय बरबाद मत करो" ..कहकर टोकते हुए मन बहुत दुखता है ...मगर ऐसे समय में ...जब की 87 से 92 प्रतिशत मार्क्स लाकर भी शहर या देश के अच्छे.. नामी ...सस्ते ...सरकारी महाविद्यालयों में प्रवेश मिलना दुर्लभ हो तो जैसे तैसे जिन्दगी की गाड़ी खींचते मध्यमवर्गीय अभिभावक करें भी तो क्या ॥!!
जन्माष्टमी की बहुत शुभकामनाएं ॥!!
चित्र गूगल से साभार ...