(तेजस्वी की कहानी को कम में समेटना चाहती थी , मगर नए किरदार जुड़ते जा रहे हैं , कैसे लिखोगी कम में , हमें अनसुना कर !
यह कहानी उपन्यासिका में ही परिवर्तित होती प्रतीत हो रही है) .
अब आगे ---
माँ ने पहले से ही उसके सलवार कमीज हैंगर पर लटका रखे थे। जल्दी तैयार हो जाओ ,हमें काफी देर हो चुकी है। खाने के समय कार्यक्रम में पहुंचना अच्छा नहीं लगता।
हाथ मुंह धोकर क्रीम और पीले रंग के अनारकली सूट पहने आईने के सामने बाल संवारती तेजस्वी पर मुग्ध दृष्टि डालते माँ ने थूथकारा डाला , नजर न लगे !
दोनों कार्यक्रम में पहुंची तब तक महिला संगीत समाप्त ही होने को ही था। लाया डाक बाबू लाया रे संदेसवा , मेरे पिया जी को भाये न बिदेसवा पर एक लड़की मंच पर थिरक रही थी।
तेजस्वी और उसकी माँ ने सीमा के पास जाकर सीमा को बधाई दी।
भड़कीले लाल रंग के सलवार कमीज में लकदक मिसेज वालिया चहकती हुई तपाक से बोली ," हमने तो समय से अच्छा लड़का देखकर सगाई कर दी , अब आप भी तेजस्वी के लिए लड़का देखना शुरू कर दो। बराबर- सी ही तो हैं दोनों।
माँ ने कुछ कहा नहीं , सिर्फ मुस्कुरा कर रह गयी।
माँ ने कुछ कहा नहीं , सिर्फ मुस्कुरा कर रह गयी।
संयोगवश सीमा का जन्मदिन भी था उसी दिन। मंच के पास ही केक काटने की तैयारी भी थी। सीमा और उसका भावी पति सौरभ मंच के सबसे आगे एक सुन्दर झूलनुमा बेंच पर साथ बैठे थे। उस मंच के सामने लगी बेंच पर पीछे की तरफ बैठ कर दोनों संगीत का आनंद ले रही थी। मिसेज वालिया चहकती हुई बता रही थी , सीमा के ससुर बहुत खुश हैं इस रिश्ते से , केक पर सजावट उन्होंने अपने हाथों से की है। कहने लगे कि मेरी बहू लाखों में एक है तो इसका तोहफा तो मैं ही सजाऊंगा। अभी थोड़ी देर पहले ही नृत्य के लिए बहू का हाथ पकड़कर स्टेज पर ले गए। पूरे परिवार ने साथ नृत्य किया। ख़ुशी में उनकी आँखें छलछला रही थी।
संगीत के बाद केक काटा गया , वर- वधू को अंगूठी पहनाई गयी, मेवा -बताशे से गोद भरी गयी। पूरे कार्यक्रम में सीमा के स्वसुर का उत्साह देखते बनता था। बहू का हाथ पकड़कर केक कटवाने से लेकर अंगूठी पहनाने तक वे साये की तरह सीमा के आसपास ही मंडराते नजर आ रहे थे। महिलाओं की खुसुर- पुसुर चालू थी , बहुत खुशकिस्मत है सीमा।
रोशनी , संगीत , उल्लासमय वातावरण , अच्छा भोजन , घर लौटते तेजस्वी का मानसिक तनाव काफी कम हो चूका था, मगर माँ कुछ अनमनी -सी दिख रही थी।
क्या हुआ माँ , तुम्हे कैसे लगे सीमा के ससुराल वाले।
कुछ नहीं। अच्छे हैं। शोरशराबे से थकान हो जाती है मुझे !
निकलते समय कॉफी पी लेनी थी। कोई नहीं , घर चल कर पी लेते हैं।
घर आकर माँ काफी देर तक सीमा के श्वसुर के अत्यंत उत्साही व्यहार पर सोचती रही , मगर किसी से कहा कुछ नहीं।
गहराती रात में खिड़की के परदे सरकाकर बाहर चाँद निहारते तेजस्वी भी सोचती रही देर तक। हर दिन एक अँधेरे में डूबता है और सवेरा फिर सूर्य की रोशनी में जगमगाता। यूँ तो अँधेरा किसे भाता है मगर चांदनी रात में अँधेरा भी कितना सम्मोहक होता है , रोशनी भी आँखों को चौंधियाए नहीं तभी भाती है वरना तो वेल्डिंग मशीने भी कितनी किरणे बिखेरती है , आँखों पर चश्मा न हो तो आँखे खराब।
क्या -क्या सोचने लगी वह।
लैंप की बत्ती बुझा सूर्य के संतुलित प्रकाश की सम्भावना लिए नींद पलकों पर भारी हो आई।
आलिया के केबिन में अनाथाश्रम , बालश्रम , बालश्रमिकों के शोषण आदि विषयों पर चर्चा करते हुए तेजस्वी की नजरे बार -बार टेबल पर रखी लाल फ़ोल्डर वाली फाईल पर टिक जाती। उसका हेडिंग जाना -पहचाना सा लग रहा था। चर्चा समाप्त होकर कमरे से बाहर निकलते आखिर उसने फाईल उठाकर पलट ही ली। वह शक्ति सदन की विस्तारित रिपोर्ट थी जिस पर प्रस्तुतकर्ता का नाम पढ़ा उसने - सिमरन बर्वे। तेजस्वी हतप्रभ उदास सी कमरे से बाहर निकल आयी। उसका प्रोजेक्ट किसी और नाम से पूर्ण हो चूका था।
सिमरन ने भी काफी काम किया था इस पर , एक गहरी सांस लेकर तेजस्वी ने स्वयं को समझाया मगर मित्रता का यह नया रूप देखकर तेजस्वी चकित थी। सिमरन के साथ ही उसे सुचित्रा के व्यवहार पर भी अचम्भा हो आया था। स्वयं मन को टटोला उसने , दृढ महिला के रूप में उनकी छवि में क्या बचा रह गया था उसकी समझ से परे। उसे समझ आने लगा था कि घर से बाहर की दुनिया बहुत विचित्र है। माँ -पिता की समझाइशें इतनी व्यर्थ नहीं थी।
वह सिमरन के साथ अपनी मित्रता के पलों को स्मरण करती रही। एक दिन उसके लिखे आलेख पर बहस करते अंग्रेजी में धाराप्रवाह अपने विचार प्रस्तुत कर रहे मनीष को सिमरन ने उसे टोका था , क्यों अंग्रेजी झाड़ रहे हो , उससे क्या फायदा होगा , तुम्हे पता नहीं कि तेजस्वी हिंदी मीडियम से है।
साथियों के होठों की दबी मुस्कान के साथ सिमरन का विजयी भाव उसे सब समझा तो रहा था , मगर आँखों पर बंधी मित्रता की पट्टी ने उसे बतौर मजाक अथवा टांग खिंचाई जैसे ही लिया था। जब -तब बहनजी कह देना भी वह इग्नोर ही करती आई थी।
पीछे छोड़ आये कुछ और पन्ने भी उलटे उसने। उसने सोचा फिर से, एक लेख पर मनीष की उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पर भी सिमरन का व्यवहार अखरना चाहिए था उसे। एक साथ ही संस्कृत , हिंदी ,अंग्रेजी और उर्दू भाषा पर अपनी तीव्र पकड़ के साथ प्रखर प्रतिभाशाली मनीष अपने साथियों ही नहीं ,वायब्रेंट मीडिया हाउस से जुड़े पाठकों , दर्शकों में भी अत्यंत लोकप्रिय था। अपने कार्यक्षेत्र में प्रगति करते विद्वानों की प्रशंसा बहुत मायने रखती है , तेजस्वी फूली नहीं समा रही थी मगर सिमरन ने विशेष कुछ भी कहा नहीं था बल्कि स्वयं की अन्य उपलब्धियों के बारे में बात करते विषय ही बदल दिया था।
यह सब कुछ अखरा क्यों नहीं उसे , तो क्या मित्रता के रिश्तों में अब तक वह सिर्फ मूर्ख ही बनती आई थी, सोचते स्मृतियों के तार उलझते जाते थे. खैर तेजस्वी को अटकना नहीं था , आगे ही बढ़ना था। नाम तेजस्वी यूँ ही तो नहीं रख गया था।
बाल श्रमिकों की वर्त्तमान स्थितियों पर अपनी खोज पर कई हैरतअंगेज चौंकाने वाले तथ्य उसके सामने थे। बाल कल्याण के लिए निर्मित की जाने वाली सरकारी संस्थाओं के आंकड़े मानवता को शर्मसार करते नजर आते थे। बाल कल्याण के लिए निर्मित विभिन्न आश्रय स्थलों से भागने अथवा गायब होने वाले बच्चों की संख्या उसे विस्मित कर रही थी। दर दर भीख मांग कर गुजर करने वाले बच्चे इन सुविधाजनक आश्रय स्थलों पर टिकना क्यों नहीं चाहते , क्यों बार- बार भागने के प्रयास करते हैं , सम्मान पूर्वक मिलने वाला भोजन और आश्रय इन्हे क्यों नहीं सुहाता , घर पहुँचते , खाना खा कर विश्राम करते भी उसके दिमाग में प्रश्न अटके ही थे।
चींचीं के मधुर कलरव से नींद खुली उसकी , नारंगी आभा के साथ सूर्यदेव प्रकट हुआ ही चाहते थे , माँ बालकनी में पक्षियों के लिए अनाज और पानी रख कर आयी थी। बहुत बचपन से माँ को पक्षियों को दाना खिलाते देखा है उसने। दाना चुगने आती नन्ही चिड़िया , कबूतर , तोते उसे सदा लुभाते रहे थे। एक बार पिंजरे में पक्षी पालने के लिए वह कितना मचली थी , मगर माँ ने सख्ती से मना कर दिया था। तेजस्वी को समझाया था माँ ने कि पंछी तो उड़ते- फिरते ही लुभाते हैं , तुमने देखा नहीं उन्हें , वे यहाँ रखें पानी और दाने से ज्यादा इधर -उधर बिखरे हुए दाने या बहते पानी की ओर ही अधिक भागते हैं। घायल पक्षी के संरक्षण के लिए बेहतर स्थान उपलब्ध करवाना उचित है , मगर आकाश में उन्मुक्त उड़ते पक्षी को पिंजरे की कैद में रखना आमनवीय है। ये पक्षी मनुष्य से अधिक स्वतंत्रता प्रेमी होते हैं !
पक्षियों की चहचहाहट के बीच उसे आश्रम के बच्चों का ख्याल हो आया और अपना कार्य भी। उसे बाल विकास मंत्रालय से जुड़े आश्रयस्थलों और बाल भवन के अतिरिक्त कुछ स्वयंसेवी संस्थानों से भी जानकारी प्राप्त करनी थी। ऑफिस में मनीष व अन्य साथियों के साथ ग्रुप डिस्कशन के बाद उन्होंने अपनी खोज की रुपरेखा तय की और उत्साही कदम चल पड़े एक नयी मंजिल की राह पर ।
क्रमशः
रुकावटें जीवन का सहज हिस्सा है, कई बार इंसान टूट जाता है , बिखर जाता है तो कई बार दृढ बनता है ....