शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

टिप्पणी करना और टिप्पणी पाने की चाह रखना क्या सचमुच इतना बुरा है .....!!



किसी भी पोस्ट को पढने के बाद मन में जो भी विचार उठते हैं , उनका सम्प्रेषण ही टिप्पणी है ....कलम के धनी साहित्यकारों और इस आभासी दुनिया से दूर काफी नाम कमा चुके लेखकों और लेखिकाओं को टिप्पणी मिलने या नहीं मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ता ...मगर जिन्होंने ब्लॉग के माध्यम से ही अपने आप को अभिव्यक्त करना सीखा हो तो लिखने के बाद उसकी प्रतिक्रिया जानने की उत्सुकता रहती ही है ...टिप्पणी से प्राप्त विचारों और सुझावों से अपनी सोच को और व्यापक करने का तथा लेखन में सुधार लाने का हौसला मिलता है...

मैं ज्यादा दूर क्यों जाऊं ...अपना ही उदाहरण पेश ना कर दूँ ...!!

अख़बारों में पढ़ा था कि गूगल ब्लॉग लेखन की निःशुल्क सुविधा उपलब्ध कर रहा है ....तो बस ऐसे ही पहुच गयी एक दिन ब्लॉगर.कॉम पर ...सोचा ...ब्लॉग बना कर देखते हैं...महज कौतुकवश ही...कई दिन बीत गए उसमे यूँ ही सुधार करते ...इस बीच दूसरों के ब्लॉग पढ़ती रही ...मगर लम्बे समय तक साहस ही नहीं हुआ कि उनपर कमेन्ट कर सकूँ ...यूँ तो पढने लिखने का शौक बहुत पुराना था मगर लेखन सिर्फ डायरी तक ही सीमित था ...या बच्चों के विद्यालय में होने वाले वाद विवाद और निबंध प्रतियोगिता में उनकी मदद करते हुए लिखने तक ...२-३ साल तक एक पत्रिका के लिए हल्का- फुल्का सम्पादकीय भी लिखा था, मगर इधर कुछ वर्षों से लिखना बिलकुल बंद सा हो गया था ...अपनी लिखी कवितायेँ आदि अपने एकाध खास मित्रों के अलावा किसी से कभी शेयर नहीं की थी ...एक दिन ब्लॉग पर कुछ लाईंस लिख ही डाली ...और लिख कर भूल गयी ...२-३ बाद अचानक देखा तो इतनी सारी टिप्पणीयांऔर स्वागत सन्देश ... और लिखने का हौसला मिला....फिर धीरे धीरे फोलोअर्स बनते गए और टिप्पणीयां भी ....जिनमे अक्सर लेखन और ब्लॉग सम्बन्धी सुझाव मिलते रहे ....और इन टिप्पणी का ही असर है कि एक साधारण गृहिणी की जिंदगी जीते पहली बार किसी अखबार में अपनी लिखी कविता भेजने का साहस कर पायी ...तो मेरे लिए तो ये टिपण्णीयां किसी वरदान से कम नहीं है ..क्या अब भी आप कहेंगे कि टिपण्णी देने के लिए ही टिपण्णी करना सही नहीं है ...कौन जाने ये टिप्पणी कितनी छुपी हुई प्रतिभाओं प्रोत्साहित कर सामने आने का मौका और हौसला प्रदान कर दे ...इसलिए टिप्पणी तो जरुर की जानी चाहिए ...भले बिना पढ़े की जाए ....मुझे इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती ...!!

अब कई बार किसी सार्थक बहस के बीच भी हास्य उपजता ही है ....ये जरुर है कि कई लोग उसे व्यक्त नहीं करते और अपनी गंभीरता प्रकट करते हुए टिप्पनी कर देते हैं और कई हास्य प्रधान लोग इस पर चुटकी लेने से बाज नहीं आते ...क्या सार्थक और गंभीर विषय रोते धोते या दार्शनिकता से ही उठाये और निपटाए जा सकते हैं ....!!

हंसी आपको कब कहाँ और कैसे आ जायेगी ...यह कोई निश्चित नहीं है ...यदि हो तो मशीनीकरण होते हुए इसका वास्तविक आनंद ही समाप्त हो जाएगा ... सड़क पर चलते हुए कोई अचानक किसी से टकराकर गिर जाए , कोई सभ्य इंसान सूट-बूट में सज धज कर जा रहो और उसके कपड़ों या सर पर या कौवा बींट कर दे , राह चलते किसी के कपडे कही अटक कर फट जाए , क्या ऐसे मौके पर बहुधा हंसी नहीं आ जाती है ...और कई बार तो शिकार व्यक्ति खुद भी हंस पड़ता है ....नियम के अनुसार तो ये तो बहुत गंभीर बात है कोई बेचारा सड़क पर गिरा पड़ा और आप हंस रहे हो , कौवे ने किसी की दुर्गति कर दे आप फिर भी हंस रहे हो ....मगर क्यूंकि हास्य तनाव और परेशानी से निजात दिलाने की एक प्रमुख क्रिया है ...मौके बेमौके गंभीर बातों पर हंसी आ जाती है और आप सामान्य होकर परेशानी से निजात पाने का तरीका ढूँढने लग जाते हो ...क्या हास्य वाकई इतनी ज्यादा आलोचना किये जाने योग्य है....
जीवन में हास्य ...यहाँ देख सकते हैं कि अवसाद से मुक्ति पाने के लिए जीवन में हास्य चिकित्सा का रूप ले चुका है ...

ब्लॉग लेखन करते , पढ़ते और उन पर टिपण्णी करते हुए ब्लोगर्स के बीच एक रिश्ता सा बन जाता है ....इसी कारण उनके बीच अनौपचारिकता कायम हो जाती है ...ऐसे में कई बार गंभीर अथवा सार्थक लेखों पर भी हलकी फुलकी हास्यात्मक टिप्पणी आ ही जाती है ...जब तक इस तरह की हास्यात्मक टिप्पणी किसी को लक्ष्य बना कर ना की जाये...मुझे नहीं लगता कि यह कोई आपत्तिजनक कार्य है ......बिलकुल नहीं ...बस यह ध्यान रहे कि कोई हमारे मजाक से परेशान , दुखी या लज्जित ना महसूस करे ....

तो बंधु , बांधव , सखा , सखियों ...जी खोल कर टिपियायें...हंस हंस कर टिपियायें ....बिना पढ़े टिपियायें , चाहे जैसे टिपियायें ...मगर टिपियायें जरुर ...!!





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मंगलवार, 5 जनवरी 2010

वह एक नदी थी


वह एक नदी थी ....
जब
तुमसे मिली थी
बहती
थी अपनी रौ में
कल- कल करती.... कूदती- फांदती
प्यार
की फुहारों से भिगोती
इठलाती थी.... इतराती थी
चंचल शोख बिजली- सी बल खाती थी
पर ....
तब
तुम्हे कहाँ भाती थी ......!!

राह में उसके कंकड़- पत्थर भी थे
कुछ
सूखे हुए फूल
कुछ गली हुई शाखाएं भी
कुछ अस्थि कलश जो डाले थे किसी ने
किसी अपने को मोक्ष प्रदान करने के लिए
कुछ टोने टोटके बंधे धागे जो बांधे थे किसी ने
अपने पाप किसी और के सर मढने के लिए
गठरी
बंधी थी कामनाओं की ...वासनाओं की
जो
बांधी थी कुछ अपनों ने कुछ बेगानों ने
और
भी ना जाने क्या क्या था उसके अंतस में
था
जो भी ....उसके अंतस में
ऊपर
तो थी बस
कल
-कल करती मधुर ध्वनि

पर ....
तुम्हारी
नजरे तो टिकी थी
बस
अंतस की गांठों को तलाशने में
उस तलाश में तुमने नहीं देखा
उसकी
पावन चंचलता को
क्या
- क्या नाम दिए तुमने
उसकी
चपलता को
तुम
ढूंढते ही रहे कि ...कोई सिरा मिल जाये
कि
रोक पाओ उसे ....बांध पाओ उसे
और
कुछ हद तक बांधा भी तुमने उसे

पर ... क्या तुम्हे पता नहीं था ....!!
धाराएँ
जब आती हैं उफान पर
सारे तटबंधों को तोड़ जाती हैं
कोई दीवार नहीं बाँध पाती है
और
अगर दीवारों में बंध जाती है
तो नदी कहाँ कहलाती है ....
नदी
का पानी जब ठहर जाता है
कीचड हो जाता है ...
क्या
तुम्हे पता नहीं था ...!!

पर ...जरा ठहरो ....
अपनी
दीवारों पर इतना मत मुस्कुराओ
उम्मीद की एक किरण अभी भी बाकी है
कीचड
में फूल खिलाने का हुनर
नदी जानती है
कभी हार कहाँ मानती है
नदी
हमेशा मुस्कुराती है .......!!


तस्वीर गूगल से साभार
(डेली न्यूज़ के खुशबू परिशिष्ट में प्रकाशित )


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