रविवार, 6 अक्तूबर 2013

गिरा अनयन नयन बिनु बानी.... शब्दों के चितेरे तुलसीदास


रामचरितमानस हिन्दुओं का एक प्रमुख धार्मिक ग्रन्थ है। शारदीय नवरात्र के नौ दिनों में देवी भगवती /अम्बे की आराधना के  अतिरिक्त  रामचरितमानस के नवाह्न पारायण का भी विधान है। 

रामचरितमानस सिर्फ एक धार्मिक ग्रन्थ की भांति ही नहीं बल्कि हिंदी साहित्य की  चमत्कृत कर देने वाला महाकाव्य /कृति के रूप में भी  उल्लेखनीय है।  तुलसीदास की काव्य प्रतिभा अलौकिक प्रतीत होती है ,  अब वह श्रीराम के अलौकिक रूप /शक्ति के प्रभाव /वर्णन के कारण है या प्रकृति प्रदत्त , यह राम ही जाने। 

अपनी सम्पूर्ण धार्मिक  , आध्यात्मिक  चेतना को एकत्रित कर सिर्फ प्रभु को सर नवाते इस अमूल्य कृति का पाठन करें , या एक सामान्य पाठक के समान  तुलसीदास की अभूतपूर्व काव्य प्रतिभा युक्त रोचकता और नाटकीयता  में  एक मर्यादित समाज की संकल्पना की मीठी झील की तरह रस के भंवर में गोते लगाये , प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा और मनसा पर निर्भर है।   

तुलसीदास अपनी   कृति में एक मर्यादित समाज में चहुँ ओर सुख शान्ति की कामना सहित  समाज में प्रत्येक संभावित  रिश्ते के लिए अत्यावश्यक मापदंड या जीवनदृष्टि निर्धारित  करते प्रतीत होते हैं।  समाजों में मानव के बीच पलने वाले प्रत्येक रिश्ते से जुडी भावनाएं , मानव मन के विभिन्न आयाम , गुण -अवगुण , चरित्र  , कार्य , कुछ भी तुलसीदास की दृष्टि और शब्दों से बाकी नहीं रहा।   उनके काव्य लेखन की विराट  प्रतिभा ने आधुनिक युग में भी मानव मन की किस दशा पर  उनके नेत्रों और शब्दों की धार को समाहित नहीं किया , कुछ शेष  नहीं रहा.

तुलसीदास जी ने शील और गुण के आदर्श प्रस्तुत करते हुए साबित किया कि अध्यात्म सिर्फ संन्यास या वैराग्य ग्रहण करना ही नहीं है , समाज में रहते हुए सामाजिक  जिम्मेदारियों को पूर्ण करते भी सन्यासी रहा  जा सकता है। समाज के कल्याण के लिए उच्च  आदर्शों और  मर्यादा की स्थापना करते हुए  दुष्टों  पर भी अपनी दृष्टि केन्द्रित करते हैं।  प्रजावत्सल राजा के सम्पूर्ण गुणों की मर्यादा तय करते हुए  भी साधारण व्यक्ति के सभी मनोभावों को विभिन्न चरित्रों के  भ्रातृत्व , पितृत्व ,  मातृत्व   माया , मोह , ममता , लोभ , ईर्ष्या , चुगलखोरी ,  आदि सभी गुणों -अवगुणों को शब्दों में चित्रित किया है।   
  
रामचरितमानस के  प्रथम सर्ग  बालकाण्ड में तुलसीदास  विभिन्न दृश्यों जैसे श्रीराम और उनके भ्राताओं  के जन्म ,स्वयम राज दशरथ और रानियों के साथ जनमानस की ख़ुशी , नगर की शोभा ,   बाल्यकाल की क्रीड़ायें , गुरुकुल के कठोर अनुशासित जीवन के लिए जाते पुत्रों से भावविह्वल माता -पिता , जनकनंदिनी सीता से श्रीराम का प्रथम दर्शन आदि  में चमत्कृत करती शब्दों की भाषा  से समस्त  मानवीय भावनाओं और  संवेदनाओं को उद्धरित करते हैं।  

बालकाण्ड में श्रीराम और सीता के प्रथम मिलन का दृश्य बहुत ही मनोरम बन पड़ा है।  अपने गुरु विश्वामित्र के निर्देशन में श्रीराम अपने भ्राता लक्ष्मण के साथ सीता  स्वयंवर में उपस्थित हैं। राम और लक्ष्मण  गुरु की पूजा अर्चना के लिए   बाग़ से फूल  चुनने पहुंचे ,   जनकनन्दिनी सीता भी सखियों के साथ बाग़ में सरोवर के नजदीक  गिरिजा मंदिर में पूजन के लिए आती है। तुलसीदास ने इन दृश्यों में शब्दों की सुन्दर चित्रकारी द्वारा राम और सीता के मनोभावों का मनोरम वर्णन किया है।  मानव रूप में जन्मे  राम मानव मन के किसी भी कोमल भाव से अछूते नहीं रहे , युवावस्था में भावी जीवनसंगिनी को निरखते राम के मन में प्रेम और क्षोभ एक साथ हिलोरे मारता है , वहीँ सीता भी भावी जीवनसाथी के रूप में राम की कामना के साथ पिता जनक के प्रण का स्मरण कर दुखी होती हैं। तुलसीदास के शब्दों में सीता के प्रथम दर्शन के बाद एकांत में चन्द्रमा से सीता के मुख की तुलना करते  किशोर /युवा मन की अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं.

तुलसीदास शब्दों के चितेरे रहे.  शब्दों की  कारीगरी से मानव मन के विभिन भावनाओं का कुशल चित्रण करते हैं. तुलसीदास अपने शब्दों के भाव कौशल से किशोर हृदयों के प्रथम मिलन के विलक्षण मनोहारी दृश्यों की रचना करते हैं। स्वयं तुलसीदास के शब्दों में ही देखें … 

राम के सौंदर्य का बखान करती सखी कहती है 
"  गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।।
यानि वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है। 

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही
कंकण (हाथों के कड़े), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं- (यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है।

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥

ऐसा कहकर श्री रामजी ने फिर कर उस ओर देखा। श्री सीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा (को निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए.
शाब्दिक अर्थ है " नीमि (निमि पलकों के झुकने  को कहते हैं ) ने पलकों में रहना छोड़ दिया यानि  नयन खुले के खुले रह गए " . 
भावार्थ निमि जो जनक के पूर्वज रहे हैं , ने होश्राप मुक्त होने पर अपने रहने के लिए पलकों में स्थान माँगा था। चूँकि जनकनंदिनी सीता उनकी  पुत्री हुई , और मर्यदावश बेटी दामाद के मिलन को देखना  उचित नहीं माना जाता। इसलिए ऐसा भान हुआ कि राम और सीता के मिलन को देख निमि  पलकें छोड़ कर चले गए। 

देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥

सीताजी की शोभा देखकर श्री रामजी ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते। (वह शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो।
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥

जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं।

सीताजी भी श्रीराम की छवि से चकित और मुग्ध हैं… 

थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥

श्री रघुनाथजी की छबि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गए। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया। मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा को चकोरी (बेसुध हुई) देख रही हो।

लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥

जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥

नेत्रों के रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर चतुरशिरोमणि जानकीजी ने पलकों के किवाड़ लगा दिए (अर्थात नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के वश जाना, तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकती थीं।
परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥

जब सखियों ने सीताजी को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं- बड़ी देर हो गई। (अब चलना चाहिए)। कल इसी समय फिर आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में हँसी।

गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥

धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥

सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं। देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और (उनका ध्यान करती हुई) अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं।

देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।

निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥
मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात्‌ बहुत ही बढ़ता जाता है)।

रात्रि के नीरव एकांत  में   प्रेम से वशीभूत हो चन्द्रमा के मुख से देवी सीता की तुलना करते मनन करते  हैं ....

प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥
(उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है।
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥
खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?
घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)।

किशोर मन की समस्त अवस्थाएं- सौन्दर्य , चकित , प्रेम , लज्जा , भय ,क्षोभ , अभिव्यक्ति में शेष कुछ न रहा ! 

अद्भुत … 

कुछ और यहाँ  भी ....

25 टिप्‍पणियां:

  1. रामचरितमानस का पाठ तो कई बार सुना है (छोटे छोटे हिस्सों में ) लेकिन कभी पढ़ा नहीं खुद से. उम्मीद करता हूँ जल्दी ही पढना हो. हिंदी में अर्थ से बहुत आसानी हुई.

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    1. सही है , हम सालों साल सुनते हैं , मगर उसके भावार्थ में नहीं जाते !
      यहाँ पढ़ सकते हैं आप हिंदी भावार्थ सहित http://ramcharitmaanas.blogspot.in

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  2. बड़े दिन बाद पढ़ा राम चरित मानस . .

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  3. अद्भुत आनंद ....ज्ञान का सागर .....राम चरित मानस की व्याख्या सहित पढ़ना .....मैं भी आजकल यही कर रही हूँ ....आपने सुंदर प्रसंग उतनी ही सुंदरता से समझाया है .....बहुत सुंदर आलेख .......

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन बुलेटिन में लिंक्स हों - ज़रूरी तो नहीं (5) मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. बहुत अच्छा.. कभी पढ़ा नहीं. आज यहाँ पढ़ लिया कुछ.

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  6. स्कूल कॉलेज के दिनों में माँ और मौसियों के साथ नवाह किये हैं ,यानि नौ दिनों में रामचरित मानस ख़त्म . मेरी मौसी और माँ ,एकाह भी करती थीं ,यानि चौबीस घंटे में रामायण पढना. ग्रहण लगता था तो घर के सारे लोग छोटे छोटे बच्चों सहित, उतनी देर रामायण का परायण करते. बहुत कुछ याद आ गया.
    अच्छा लगा, रामचरित मानस का पाठ...जारी रहे, हम साथ बने रहेंगें .

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  7. आदरणीया,
    नवरात्रि के पावन समय में इस धार्मिक आलेख का हिन्दी सहित पढ़ना अच्छा लगा , आपका अनेकोनेक धन्यवाद एवं आभार ।

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  8. तुलसी दास कृत राम चरित मानस काव्य ग्रन्थ की ज्ञान धारा सतत स्वरूप में प्रवाहित रही, इस ग्रन्थ को न केवल साक्षर अपितु निरक्षर वर्ग ने भी श्रवण कर अध्ययन किया । प्राप्य सार को आत्म सात कर अपने जीवन को चरितार्थ कर इसके आदित्य चरित्र का अनुकरण किया.....

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  9. आनन्दम आनन्दम ......आभार! इस मर्मस्पर्शी प्रसंग के लिए
    अब एक मानस क्विज ..निम्न पंक्ति का अर्थ बताईये
    भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥

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    1. शाब्दिक अर्थ है " नीमि (निमि पलकों के झुकने को कहते हैं ) ने पलकों में रहना छोड़ दिया यानि नयन खुले के खुले रह गए " .
      भावार्थ निमि जो जनक के पूर्वज रहे हैं , ने होश्राप मुक्त होने पर अपने रहने के लिए पलकों में स्थान माँगा था। चूँकि जनकनंदिनी सीता उनकी पुत्री हुई , और मर्यदावश बेटी दामाद के मिलन को देखना उचित नहीं माना जाता। इसलिए ऐसा भान हुआ कि राम और सीता के मिलन को देख निमि पलकें छोड़ कर चले गए।

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    2. मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल

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  10. सच में मानस में जीवन का सारा सार छुपा है ....वो कितने सहज और सरल शब्दों में , मन को आनंदित करती आपकी पोस्ट , आभार

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  11. सामयिक है मानस पाठ, आज की महती आवश्यकता. हार्दिक शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  12. बहुत ही सुंदर ...लाजवाब |पढ़कर मन खुश हों गया |

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  13. नवरात्रि की शुभकामनायें .... रामचरित मानस से लिए प्रसंग आनंद प्रदान करने वाले हैं ..... सुंदर प्रस्तुति

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  14. राम चरित्र मानस के चुने हुए प्रसंद जहां मर्यादित प्रेम, उपमाएं ओर सहज प्रेम की अभिव्यक्ति सहज ही निखर आती है ... स्फूर्ति प्रदान करता है ऐसे प्रसंगों को आपकी व्याख्या में पढ़ना ... सुन्दर प्रस्तुति ...

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  15. रामचरितमानस जितनी बार पढ़ता हूँ, अभिभूत हो जाता हूँ।

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  16. नवरात्रि की शुभकामनाएं.मानस के प्रसंग का सुंदर चित्रण.

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