रामचरित मानस की ये चौपाईँआं अर्थ सहित लिखने का कोई प्रवचन देने जैसा उद्देश्य नहीं है ....बदलते समय और समाज के विकास के साथ हमारे जीवन और सामाजिक गतिविधियों , आचार -विचार, नैतिक मूल्यों में भी परिवर्तन होता है ...परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है , और कुछ हद तक इसका पालन भी होना चाहिए ...मगर जब जीवन से जुड़े हर क्षेत्र (राजनीति , खेल , मनोरंजन )में बुरा और ज्यादा बुरा में से चुनने लगे हैं ...तो धर्म को भी इसी बदली दृष्टि के साथ स्वीकार करना चाहिए ...जिस कार्य से जीवन में सहजता हो , वही किया जाए ...आँख मूंदकर लकीर पीटने जैसा ना संभव है , ना स्वीकार्य होना ही चाहिए ...
कुछ और मोती ...
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करई सप्रीति ...
दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन , शत्रु अथवा मित्र किसी का भी हित सुनकर जलते हैं । यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह दास प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है ....
बंदउं संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु करना ॥
बिछुरत एक प्राण हरि लेही । मिलत एक दारुण दुःख देहि ॥
अब मैं संत और असंद दोनों के ही चरणों की वंदना करता हूँ , दोनों ही दुःख देने वाले हैं परन्तु उनमे कुछ अंतर कहा गया है ..वह अंतर यह है कि एक (संत ) से बिछड़ते समय प्राण हर लेते हैं , वही दूसरे (असंत ) मिलते हैं तब दारुण दुःख देते हैं ...अर्थात संतों का बिछड़ना मृत्यु के समान दुखदाई है तो असंतों का मिलना भी इतना ही दुःख देने वाला है ....
उपजहिं एक संग जग माहिं । जलज जोंक जीमि गुन बिलगाहिं ॥
सुधा सुर सम साधू असाधु । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥
संत और असंत दोनों ही जगत में एक साथ पैदा होते हैं पर कमल और जोंक की तरह उनके गुण भी अलग- अलग होते हैं। कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है , किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही खून चूसने लगती है । साधु अमृत के समान (मृत्युरूपी संसार से उबारने वाला ) और असाधु मदिरा (मोह , प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला ) के समान है । दोनों को उत्पन्न करने वाला जगात्रुपी अगाध समुद्र एक ही है ...(शास्त्रों में समुद्रमंथन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गयी है )
भल अनभल निज निज करतूति । लहत सुजस अपलोक बिभूति ॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू । गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥
गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेहिं भाव नीक तेहि सोई ॥
भले और बुरे अपनी -अपनी करनी के अनुसार सुन्दर यश और अपयश संपत्ति पाते हैं । अमृत , चन्द्रमा , गंगाजी , साधु , विष और अग्नि कलियुग के पापों की नदी अर्थात कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याघ्र , इनके गुण-अवगुण सब जानते हैं , किन्तु जिसे जो भाता है , उसे वही अच्छा लगता है ।
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा ॥
तेहिं ते कुछ गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग ना बिनु पहिचाने ॥
दुष्टों के पापों और अवगुणों और साधुओं के गुणों की कथाएं, दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं । इसी से कुछ गुणों और दोषों का वर्णन किया गया है । क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण अथवा त्याग नहीं हो सकता है ।
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद बिलगाए ॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुण साना ॥
भले - बुरे सभी ब्रह्मा के ही पैदा किये हुए हैं , पर गुण और दोषों का विचार कर वेदों ने उनको अलग - अलग कर दिया है । वेद, इतिहास , और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण - अवगुणों से भरी सनी हुई है ।
अस बिबेक जब देई बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥
का सुभाऊ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकई भलाई ॥
विधाता जब इस प्रकार का विवेक (हँस का सा ) देते हैं तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है । काल -स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु ) भी माया के वश में होकर कभी -कभी भलाई से चूक जाते हैं ...
जो सुधरी हरिजन जिमि लेहिं । दलि दुःख दोष बिमल जासु देहिं ॥
खलउ करहिं भाल पाई सुसंगू । मिटहिं न मलिन सुभाउ अभंगू ॥
भगवान् के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख दोषों को मिटाकर निरमल यश देते हैं , वैसे ही दुष्ट भी कभी -कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं , परन्तु कभी भंग न होने वाला उनका मलिन स्वभाव नहीं मिटता है ...
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेउ ॥
उघरहिं अंत न होई निबाहू । कालनेमि जिमि रावण रहू ॥
जो ठग हैं , उन्हें भी अच्छा वेश बनाये देखकर बेष के प्रताप से जग पूजता है , परन्तु एक -न-एक दिन उनके अवगुण चौड़े (दोष जाहिर होना ) आ ही जाते हैं , अंत तक उनका कपट नहीं निभता जैसे, कालनेमि , रावण और राहू का हाल हुआ ।
कियेहूँ कुबेष साधु सनमानू । जिमी जग जामवंत हनुमानू ॥
हानि कुसंग कुसंगति लाहू । लोकहूँ बेद बिदित सब काहू ॥
बुरा वेश बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है , जैसे जगत में जाम्बवान और हनुमानजी का हुआ । बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है , यह बात लोक और वेद में हैं और सब जानते हैं ...
कुछ विशेष ...
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥
भावार्थ:-वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं ॥
इस चौपाई में श्री रघुनाथ के लिए गरीबनवाज और सूफी हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह (अजमेर ) का गरीबनवाज के नाम से प्रसिद्द होना ...सुखद ही तो है .... !
प्रयत्न तो बहुत किया है कि सही शब्द ही लिखूं , फिर भी जो त्रुटियाँ रह गयी हैं , उनके लिए अल्पज्ञ मान कर क्षमा करें ...
गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010
सोमवार, 11 अक्तूबर 2010
रामचरितमानस से चुन लिए कुछ मोती...
नोट ...यह प्रविष्टि कोई प्रवचन या उपदेश नहीं है . रामचरितमानस को अर्थ सहित समझने का प्रयास मात्र है ...
रामायण और रामचरितमानस हिन्दू संस्कृति के प्रमुख ग्रन्थ हैं ...हर घर में इनका होना अनिवार्य है ...श्रीराम के जीवनवृत पर आधारित श्रद्धा से जुडी होने के कारण अतुलनीय व पूज्यनीय तो है ही मगर ....सिर्फ धर्म की दृष्टि से ही नहीं , कविता या महाकाव्य के रूप में भी यह विलक्षण है ...अलंकारों का ऐसा सुन्दर उपयोग और किसी भी महाकाव्य या ग्रन्थ में नहीं है ....इसे पढ़ते हुए व्यकित चकित , चमत्कृत रह जाता है ...इतनी असाधारण प्रतिभा दैवीय ही हो सकती है ....
वाल्मीकि को संसार का आदि कवि माना जाता रहा है क्यूंकि उनके सम्मुख कोई ऐसी रचना नहीं थी जो उनका पथ प्रदर्शन कर सके ...इसलिए रामायण महाकाव्य उनकी मौलिक कृति है और इसलिए ही इस महाकाव्य को आदिकाव्य भी कहा जाता है ...
वाल्मीकि रामायण संस्कृत का महाकाव्य है जिसमे वाल्मीकि ने राम को असाधारण गुणों के होते हुए भी उन्हें एक मानव के रूप में ही चित्रित किया है ...जबकि रामचरितमानस में तुलसीदास ने राम को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ...
चुन लाई हूँ कुछ मोती ...आप भी आनंदित हो लें ...
तुलसीदास की राम के विवरण और वर्णन में अपनी असमर्थता को प्रकट करती विनम्रता देखते ही बनती है...परन्तु कुटिल खल कामियों को हंसी- हंसी में विनम्रता के आवरण में कब तंज़ कर जाते हैं , पता ही नहीं चलता ....
मति अति नीच ऊँची रूचि आछी । चहिअ अमिअ जग सुरइ न छाछी ।।
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन भाई ।।
मेरी बुद्धि तो अत्यंत नीची है , और चाह बड़ी ऊँची है । चाह तो अमृत पाने की है पर जगत में जुडती छाछ भी नहीं है । सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर सुनेंगे ।
जों बालक कह तोतरी बाता । सुनहिं मुदित मन पित अरु माता । ।
हंसीहंही पर कुटिल सुबिचारी । जे पर दूषण भूषनधारी । ।
जैसे बालक तोतला बोलता है , तो उसके माता- पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं किन्तु कुटिल और बुरे विचार वाले लोंग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किये रहते हैं , हँसेंगे ही ...
निज कवित्त कही लाग न नीका । सरस होई अथवा अति फीका ।।
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुत जग नाहिं ॥
रसीली हो या फीकी अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं , ऐसे उत्तम पुरुष (व्यक्ति ) जगत में बहुत नहीं हैं ...
जग बहू नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढहिं बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई । देखी पुर बिधु बाढ़ई जोई ।
जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक है जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं . समुद्र - सा तो कि एक बिरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देख कर उमड़ पड़ता है ...
महाकाव्य लिखने में तुलसी की विनम्रता देखते ही बनती है ...जहाँ आप -हम कुछेक कवितायेँ लिख कर अपने आपको कवि मान प्रफ्फुलित हो बैठते हैं और त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाते ही भृकुटी तान लेते हैं , वहीँ ऐसा अद्भुत महाकाव्य रचने के बाद भी तुलसीदास खुद को निरा अनपढ़ ही बताते हैं ...
कबित्त विवेक एक नहीं मोरे . सत्य कहूँ लिखी कागद कोरे ...
काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझे नहीं है , यह मैं शपथ पूर्वक सत्य कहता हूँ ...
मगर श्री राम का नाम जुड़ा होने के कारण ही यह महाकाव्य सुन्दर बन पड़ा है ..
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी . अहि गिरी गज सर सोह न तैसी
नृप किरीट तरुनी तनु पाई . लहहीं सकल संग सोभा अधिकाई ...
मणि, मानिक और मोती जैसी सुन्दर छवि है मगर सांप , पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी सोभा नहीं पाते हैं ...राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर पर ही ये अधिक शोभा प्राप्त करते हैं ..
अति अपार जे सरित बर जून नृप सेतु कराहीं .
चढ़ी पिपिलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं..
जो अत्यंत श्रेष्ठ नदियाँ हैं , यदि राजा उनपर पुल बंधा देता है तो अत्यंत छोटी चीटियाँ भी उन पर चढ़कर बिना परिश्रम के पार चली जाती हैं ...
सरल कबित्त कीरति सोई आदरहिं सुजान ...
अर्थात चतुर पुरुष (व्यक्ति ) उसी कविता का आदर करते हैं , जो सरल हो , जिसमे निर्मल चरित्र का वर्णन हो ...
जलु पे सरिस बिकाई देखउं प्रीति की रीती भली
बिलग होई रसु जाई कपट खटाई परत पुनि ..
प्रीति की सुन्दर रीती देखिये कि जल भी दूध के साथ मिलाकर दूध के समान बिकता है , परन्तु कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है ) स्वाद (प्रेम )जाता रहता है ...
दुष्टों की वंदना और उनकी विशेषताओं का वर्णन बहुत ही सुन्दर तरीके से किया है ...
संगति का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ...इसको भी बहुत अच्छी तरह समझाया है ..-
गगन चढ़इ राज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारिण । सुमिरहिं राम देहि गनि गारीं ॥
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले ) जल के संग में कीचड़ में मिल जाती है ...साधु के घर में तोता मैना राम -राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता मैना गिन गिन कर गलियां बकते हैं ...
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजू मसि सोई ॥
सोई जल अनल अनिल संघाता । होई जलद जग जीवन दाता ॥
कुसंग के कारण धुंआ कालिख कहलाता है , वही धुंआ सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने के काम आता है और वही धुंआ जल , अग्नि और पवन के संग मिलकर बादल होकर जगत में जीवन देने वाला बन जाता है ...
नजर और नजरिये के फर्क को भी क्या खूब समझाया है ...
सम प्रकाश तम पाख दूँहूँ नाम भेद बिधि किन्ह।
ससी सोषक पोषक समुझी जग जस अपजस दिन्ह॥
महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान रहता है , परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है . एक को चन्द्रमा को बढाने वाला और दूसरे को घटाने वाला समझकर जगत ने एक को यश और दूसरे को अपयश दिया ...
क्रमशः
रामायण और रामचरितमानस हिन्दू संस्कृति के प्रमुख ग्रन्थ हैं ...हर घर में इनका होना अनिवार्य है ...श्रीराम के जीवनवृत पर आधारित श्रद्धा से जुडी होने के कारण अतुलनीय व पूज्यनीय तो है ही मगर ....सिर्फ धर्म की दृष्टि से ही नहीं , कविता या महाकाव्य के रूप में भी यह विलक्षण है ...अलंकारों का ऐसा सुन्दर उपयोग और किसी भी महाकाव्य या ग्रन्थ में नहीं है ....इसे पढ़ते हुए व्यकित चकित , चमत्कृत रह जाता है ...इतनी असाधारण प्रतिभा दैवीय ही हो सकती है ....
वाल्मीकि को संसार का आदि कवि माना जाता रहा है क्यूंकि उनके सम्मुख कोई ऐसी रचना नहीं थी जो उनका पथ प्रदर्शन कर सके ...इसलिए रामायण महाकाव्य उनकी मौलिक कृति है और इसलिए ही इस महाकाव्य को आदिकाव्य भी कहा जाता है ...
वाल्मीकि रामायण संस्कृत का महाकाव्य है जिसमे वाल्मीकि ने राम को असाधारण गुणों के होते हुए भी उन्हें एक मानव के रूप में ही चित्रित किया है ...जबकि रामचरितमानस में तुलसीदास ने राम को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ...
चुन लाई हूँ कुछ मोती ...आप भी आनंदित हो लें ...
तुलसीदास की राम के विवरण और वर्णन में अपनी असमर्थता को प्रकट करती विनम्रता देखते ही बनती है...परन्तु कुटिल खल कामियों को हंसी- हंसी में विनम्रता के आवरण में कब तंज़ कर जाते हैं , पता ही नहीं चलता ....
मति अति नीच ऊँची रूचि आछी । चहिअ अमिअ जग सुरइ न छाछी ।।
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन भाई ।।
मेरी बुद्धि तो अत्यंत नीची है , और चाह बड़ी ऊँची है । चाह तो अमृत पाने की है पर जगत में जुडती छाछ भी नहीं है । सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर सुनेंगे ।
जों बालक कह तोतरी बाता । सुनहिं मुदित मन पित अरु माता । ।
हंसीहंही पर कुटिल सुबिचारी । जे पर दूषण भूषनधारी । ।
जैसे बालक तोतला बोलता है , तो उसके माता- पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं किन्तु कुटिल और बुरे विचार वाले लोंग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किये रहते हैं , हँसेंगे ही ...
निज कवित्त कही लाग न नीका । सरस होई अथवा अति फीका ।।
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुत जग नाहिं ॥
रसीली हो या फीकी अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं , ऐसे उत्तम पुरुष (व्यक्ति ) जगत में बहुत नहीं हैं ...
जग बहू नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढहिं बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई । देखी पुर बिधु बाढ़ई जोई ।
जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक है जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं . समुद्र - सा तो कि एक बिरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देख कर उमड़ पड़ता है ...
महाकाव्य लिखने में तुलसी की विनम्रता देखते ही बनती है ...जहाँ आप -हम कुछेक कवितायेँ लिख कर अपने आपको कवि मान प्रफ्फुलित हो बैठते हैं और त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाते ही भृकुटी तान लेते हैं , वहीँ ऐसा अद्भुत महाकाव्य रचने के बाद भी तुलसीदास खुद को निरा अनपढ़ ही बताते हैं ...
कबित्त विवेक एक नहीं मोरे . सत्य कहूँ लिखी कागद कोरे ...
काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझे नहीं है , यह मैं शपथ पूर्वक सत्य कहता हूँ ...
मगर श्री राम का नाम जुड़ा होने के कारण ही यह महाकाव्य सुन्दर बन पड़ा है ..
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी . अहि गिरी गज सर सोह न तैसी
नृप किरीट तरुनी तनु पाई . लहहीं सकल संग सोभा अधिकाई ...
मणि, मानिक और मोती जैसी सुन्दर छवि है मगर सांप , पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी सोभा नहीं पाते हैं ...राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर पर ही ये अधिक शोभा प्राप्त करते हैं ..
अति अपार जे सरित बर जून नृप सेतु कराहीं .
चढ़ी पिपिलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं..
जो अत्यंत श्रेष्ठ नदियाँ हैं , यदि राजा उनपर पुल बंधा देता है तो अत्यंत छोटी चीटियाँ भी उन पर चढ़कर बिना परिश्रम के पार चली जाती हैं ...
सरल कबित्त कीरति सोई आदरहिं सुजान ...
अर्थात चतुर पुरुष (व्यक्ति ) उसी कविता का आदर करते हैं , जो सरल हो , जिसमे निर्मल चरित्र का वर्णन हो ...
जलु पे सरिस बिकाई देखउं प्रीति की रीती भली
बिलग होई रसु जाई कपट खटाई परत पुनि ..
प्रीति की सुन्दर रीती देखिये कि जल भी दूध के साथ मिलाकर दूध के समान बिकता है , परन्तु कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है ) स्वाद (प्रेम )जाता रहता है ...
दुष्टों की वंदना और उनकी विशेषताओं का वर्णन बहुत ही सुन्दर तरीके से किया है ...
संगति का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ...इसको भी बहुत अच्छी तरह समझाया है ..-
गगन चढ़इ राज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारिण । सुमिरहिं राम देहि गनि गारीं ॥
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले ) जल के संग में कीचड़ में मिल जाती है ...साधु के घर में तोता मैना राम -राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता मैना गिन गिन कर गलियां बकते हैं ...
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजू मसि सोई ॥
सोई जल अनल अनिल संघाता । होई जलद जग जीवन दाता ॥
कुसंग के कारण धुंआ कालिख कहलाता है , वही धुंआ सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने के काम आता है और वही धुंआ जल , अग्नि और पवन के संग मिलकर बादल होकर जगत में जीवन देने वाला बन जाता है ...
नजर और नजरिये के फर्क को भी क्या खूब समझाया है ...
सम प्रकाश तम पाख दूँहूँ नाम भेद बिधि किन्ह।
ससी सोषक पोषक समुझी जग जस अपजस दिन्ह॥
महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान रहता है , परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है . एक को चन्द्रमा को बढाने वाला और दूसरे को घटाने वाला समझकर जगत ने एक को यश और दूसरे को अपयश दिया ...
क्रमशः
लेबल:
तुलसीदास,
धर्म,
बालकाण्ड,
रामचरितमानस,
हिन्दू
सदस्यता लें
संदेश (Atom)