चौंसठ कलाओं में से एक प्रुमख कला है नृत्य -कला. विभिन्न हाव भाव के साथ एक लयबद्ध रूप में घूर्णन को ही नृत्य कहा जाता है . मानव के इतिहास जितना ही पुराना है नृत्य का इतिहास .
नृत्य कला हमारी भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख अंग है . हमारे देश में शास्त्रीय और लोक नृत्यों की एक विशिष्ट परंपरा है. ईश्वर को रिझाने के लिए अथवा अपनी ख़ुशी या आभार प्रकट करने के लिए मंदिरों में नृत्य -भजन की क्या बात है. हमारे तो आराध्य भी स्वयं इस कला के प्रणेता हैं . नटराज शिव की ता- ता -थैया पर तो कई बार सृष्टि का आदि -अंत हुआ . कृष्ण का अपने चरणों द्वारा कालिया का मर्दन हो या राधा और गोपियों के संग रास , नृत्य ही तो था.
नृत्य को कब कला और इतिहास का विषय बनाया गया यह अलग बात है , मगर बच्चा जब चलना शुरू करता है तो उसकी ठुमक भी नृत्य का ही एक प्रतीक बन जाती है . ठुमक चलत रामचंद्र की स्वरलहरियों पर किसी भी बालक /बालिका को डगमगाते क़दमों से चलते देख नृत्य का ही आभास होता है . हाव भाव क्या कम होते हैं जैसे एक- एक कदम आसमान पर रखा जा रहा है . चलना सीखने वाले बच्चे के चेहरे का उल्लास नयनाभिराम दृश्य बन जाता है .
आज की युवा पीढ़ी अन्य विदेशी संस्कारों के साथ ही विदेशी नृत्य के प्रति अधिक उत्सुक दिखती है . विभिन्न टी वी शो में होने वाली नृत्य प्रतियोगिताएं से शास्त्रीय और लोक नृत्य लगभग गायब ही हैं . आज हिप हॉप , कंटेम्पररी , बैले , फ्यूजन का ही बोलबाला है . विभिन्न प्रॉप के सहारे जिम्नास्टिक -सा प्रदर्शन करती इन प्रतियोगिताएं को लेकर मेरी धारणा इतनी अच्छी नहीं रही कभी मगर इधर कुछ नृत्य प्रतियोगिताएं में विभिन्न कोरिओग्रफर्स की प्रस्तुति ने प्रभावित किया .
डी आई डी सीजन थ्री जैसे नृत्य कार्यक्रम ने अपनी कोरिओग्राफी और प्रतियोगियों के हाव- भाव , साहस और नृत्य के प्रति समर्पण ने बहुत चौंकाया . अपने भाव -सम्प्रेषण से इस दौर के युवा साबित करते हैं कि इस पीढ़ी में भावनाएं पूरी तरह मरी नहीं हैं . ऐसा ही एक दृश्य इस नृत्य प्रतियोगिया के दौरान नजर आया .
पिता को खो देने के मानसिक आघात से पीड़ित इस युवती अपने पिता को अपने आस पास ना पाने और आभासी रूप में पिता के साथ होने के बीच भावों का प्रदर्शन किसी भी इंसान को भावुक करने की सामर्थ्य रखता है .
इन नृत्य भंगिमाओं में संप्रेषित आध्यात्म जैसे स्वयं ईश्वर से साक्षात्कार करवाता है ....