छोटू (धर्मेन्द्र) का साथी बताता है कि ये उसके साथ काम नहीं करता . वहाँ भारी समान उठाते रहना पड़ता है इसलिये हम अपने साथ रख लिये.
प्रतिदिन 1100 में से 700 स्वयं रखता है और 400 छोटू को. दोनों एक ही गाँव के हैं.
पुरानी दीवार पर टाइल लगाना बहुत मेहनत का कार्य है . पहले पूरी दीवार को खरोंचना पड़ता है. पूरा दिन मेहनत करके भी कुछ काम दिखता नहीं . मालिक पूछ लेता है कि आज दिन भर क्या किये तो क्या बतायें.
मैं सोचती हूँ कि अब उसको क्या बतायें कि सब गृह कार्य अपने हाथों से दिन रात करने वाली गृहिणी से भी लोग कई बार पूछ लेते हैं कि सारा दिन क्या करती हैं.... कैसे टाइमपास होता है सारा दिन घर में....
अब तक कितने कमा लिये!!
उसके साथ काम कर रहा कारीगर बताता है 4000 रूपये.
क्या करेगा इन पैसों का?
टूशन रखूँगा...
सोचती हूँ कि ट्यूशन मतलब स्कूल फ़ीस देना होता होगा. श्रमिक वर्ग की शिक्षा के प्रति यह रूचि सुखद लगती है.
श्रम और बुद्धि का मेल अति हितकारी है व्यक्ति के स्वयं के लिये, परिवार के लिये, समाज के लिये , राष्ट्र के लिये भी .
अच्छा... माँ के लिये क्या लेकर जायेगा...साडी?
क्या ले जायें... सकुचाते हुए कहता है . साडी वहीं खूब मिल जाती है.
मगर जयपुर जैसी नहीं मिलेगी न!
जयपुर में महँगी मिलेगी उसका साथी बोला
.
मैं उसकी बात मान लेती हूँ. जयपुर महँगा शहर है . 28 वर्ष पहले जब जयपुर की धरती पर कदम रखा था तब भी मान लिया था. सबसे पहला सामना औटो रिक्शा से ही हुआ. हैदराबाद के मुकाबले दुगुना किराया ही नहीं सेंडिल से लेकर खाना पीना तक भी महँगा ही लगा था. तब से अब तक कहाँ -कहाँ घूम आये मगर धारणा वही सही साबित होती है आज भी.,
धर्मेन्द्र (छोटू ) से उसकी पढाई के बारे में बात करता देख उसके साथी कारीगर के चेहरे पर बेचारगी के भाव साफ़ पढे जा सकते थे. अपने स्थान पर खडा ही इधर उधर होता रहा बेचैनी में जैसे कि कश्मकश में हो कि यदि उससे पूछा जायेगा तो वह क्या जवाब देगा.
पूछ लिया उससे भी कि तुम कितना पढे हो.
हम नहीं पढे हैं!
ऐसे कैसे हो सकता है. यह सब नाप जोख करना , हिसाब लगाना , हिसाब से सेट करना कैसे करते हो!
ओही आठ तक पढे हैं खाली. हमारे पिताजी तभी खतम हो गये थे. कोई घर सम्भालने वाला नहीं था.उसीसे हमको पढाई छोड़ कर काम करना पडा. हम पंद्रह साल मद्रास मे काम किया. अब कुछ साल से यहाँ जयपुर में. मद्रास बहुत दूर पड़ता है. यहाँ से गाँव पास है. महीने में एक बार गाँव चल जाते हैं.
एक साँस में अपनी पूरी बात कहने के बाद उसकी बेचैनी कम होती सी दिखी. जैसे उसने भी कोई परीक्षा उत्तीर्ण कर ही ली.
तभी बाहर दरवाजे पर कर्कश स्वर उभरा. बाहर जाकर देखा तो कान, नाक , गले , पैर में आभूषण पहने टेर लगाने वाली स्त्री को दो तीन बच्चे घेरे खडे थे . सोचती हूँ इनकी भी कूछ मजबूरी होती होगी. अपनी ही लिखी हुई कविता याद आ गई -
पेट की आग से
क्या बडी होती है
इनके तन की आग!
उसी समय मन की आंखों के आगे अखबार में छपी उस लड़की की तस्वीर आ जाती है जो बीमार पिता और भाई की तीमारदारी के बीच कई घरों में काम करते हुए भी मेरिट में स्थान लाती है.
पीछे खडे मजदूर, सामने खडी वह स्त्री और दिमाग में वह लडकी तीनों मिलकर जैसे किसी प्रोजेक्ट का विवरण सा खींच रहा हो कागज में. एक साथ मस्तिष्क कितने आयाम में विचरता है.
छोटू को देखती हूँ मुड़ कर . वह कभी अपने हाथ की घडी नहीं उतारता. पता नहीं किसी ने उसे उपहार दिया था अथवा अपने मेहनत की कमाई से खरीद लाया मगर उसका मोह देखते बनता है. काम समाप्त कर हाथ मुँह धोते या सीमेन्ट बजरी मिलाकर मसाला तैयार करते या कि सर पर रख कर परात उठाते समय हर समय घडी उसके हाथ में होती है . पूछा भी मैने क्या घडी खराब नहीं होती इस तरह...
इंकार में सर हिलाते हौले से हाथ फेरता है . चेहरे पर किंचित नाराजगी सी दिख पडी . जैसेकहीं उसकी घडी को नजर न लग जाये. जिन चीजों से हम प्रेम करते हैं हम कितनी बार उनके प्रति निर्मम हो जाते हैं .
मन से ही गूंजा - चीजों नहीं, इन्सानों से भी . व्यामोह की यह कौन सी दशा है... कैसी विवशता है!! भावनाओं के कितने रहस्य अबूझ होते है. रिश्तों के उलझे धागे!!
करनी, फीता, धागा, हथोडा जल्दी जल्दी थैले में डालते छोटू की हड़बडी पढती हूँ. दिन भर के श्रमके बाद हाथ में आये हरे नोट की चमक उसकी मासूम आंखों में लहराती है हरियाली सी.
छोटू घडी नहीं उतारता. समय को मुठ्ठी में रखना चाहता ही नहीं, प्रयास भी करता है . श्रम भी करता है. ईश्वर इन छोटूओं का स्वयं पर विश्वास डिगने न दे. सफल ता हासिल हो इसी ईमानदारी और श्रम की पीठ पर सवार होकर.
एक नि:शब्द दुआ निकलती है दिल से!!