सोमवार, 24 जून 2013

महज आर्थिक स्वतन्त्रता ही स्वतंत्र व्यक्तित्व की परिचायक नहीं है !


गिफ्ट शॉप पर एक शाम पड़ोस की टीवी रिपेयरिंग की दूकान में  नजारा देखने को मिला . बड़ी सी कार खुद चला कर लाई महिला स्वय निर्णय नहीं ली पा रही थी कि टीवी ठीक होने के लिए यहीं छोड़ा जाय या नहीं . अपने पति से फोन पर बात की उन्होंने , फिर निर्णय किया कि टीवी वापस घर जायेगा फिर उनके पति ही उसे ठीक करवाएंगे , खैर , यह मामला  इतना संजीदा नहीं था इसके क्योंकि इसके कई और कारण हो सकते थे .

निम्नतम  आय वर्ग जैसे मजदूर , घरो में या खेती में काम करने वाली स्त्रियाँ , धोबी (प्रेस करने वाले ) इत्यादि  अक्सर कामकाजी या आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर ही माने जा सकते हैं  , मगर अक्सर उनकी तनखाह पर स्वयं उनका हक़ नहीं . घर लौटकर शराबी पति की मारपीट या खर्चा उनके हाथों में सौंप देना आम है .(हालाँकि अपवाद हर वर्ग में हैं !)   

मगर एक पारिवारिक चर्चा   में जब सामने बैठे एक परिचित कह बैठे - हमारा परिवार पुरुष प्रधान है ,घर/बाहर   से सम्बंधित कोई भी निर्णय मेरी स्वीकृति होने पर ही लिए जा  सकते हैं तो मेरा चौंकना स्वाभाविक था  .  भारतीय मध्यमवर्गीय समाज में परिवारों में घर परिवार से सम्बंधित महत्वपूर्ण आखिरी निर्णय पुरुष ही लेता है , यह सर्वविदित है मगर अक्सर परिवारों में महिला सदस्यों की राय लिया जाना भी सहज है इसलिए उनका  दम्भपूर्ण बखान मुझे अच्छा नहीं लगा . आखिर घर/ परिवार की प्रमुख धुरी स्त्री को नजरअंदाज कर  निर्णय कैसे लिए जा सकते हैं !! 
उनकी यह दम्भोक्ति उतनी अखरती नहीं यदि वह  कहते कि सारे निर्णय हम मिलजुल कर लेते हैं .  उक्त सज्जन की पत्नी सरकारी नौकरी में है ,पति के बराबर (बल्कि हो सकता है ज्यादा ही )   तनखाह लाती है , यानि घर चलाने में आर्थिक सहयोग उनका बराबरी का है , मगर घर में हक़ बराबरी का नहीं ??  

माने कि महज आर्थिक स्वतन्त्रता ही आपके स्वतंत्र  व्यक्तित्व की परिचायक नहीं है .  नौकरी और आमदनी आपको अपनी सुविधानुसार खर्च करने या घर से बाहर रहने में तो मदद कर सकती है , (हालाँकि इसमें भी शक किया जा सकता  है कि  खर्च भी वे अपनी इच्छानुसार कर सकती हों ) मगर आपके व्यक्तित्व को गढ़ नहीं सकती . 

 जो व्यक्ति /स्त्री इस प्रकार अपने अस्तित्व को महसूस करता है और दूसरों को उसके अस्तित्व को स्वीकारे जाने को बाध्य करे , व्यक्तित्व वही पूर्ण है . सिर्फ ऊँची डिग्रियां या कामकाजी होना आपके अस्तित्व और व्यक्तित्व की उपस्थिति  दर्ज नहीं कराता . व्यक्तित्व को पुष्ट करती है आपकी कार्यशैली , बिना डरे  /हिचके अपने विचार व्यक्त करने और महत्वपूर्ण निर्णय लेने में आपकी भागीदारी , वर्ना एक इंसान और रबर स्टाम्प में फर्क क्या रह जाता है !! 

स्त्रियों की अस्मिता , गौरव और आत्मसम्मान के लिए किये अभी कितना कार्य किया जाना शेष है , कभी -कभी बहुत निराशा होती है , लगता है कि एक गोल घेरे में ही घूमते चले जा रहे है हम सब , जहाँ से चले , वहीँ पहुँच जाते हैं !!


 आपकी राय का स्वागत है !