प्रकृति द्वारा इस सृष्टि की सम्पूर्णता के लिए दिए गये अनुपम उपहारों में नर और नारी भी सम्मिलित हैं .प्रकृति ने ही उसी नारी को मातृत्व का सुख ,अधिकार और गरिमा के अनूठे उपहार से नवाज़ा है !
कहा भी जाता है कि ईश्वर सब जगह उपस्थित नहीं हो सकता , इसलिए उसने माँ को बनाया . हर इंसान के पास और कुछ हो न हो , एक माँ जरुर होती है . मातृत्व एक अनोखा अनुभव या उपहार है जो स्त्री को सम्पूर्ण करता है . इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जो स्त्री माँ नहीं बन सकी वह सम्पूर्ण नहीं , बल्कि मातृत्व की भावना है जो उसे सम्पूर्ण बनाती है .स्त्री जब अपनी कोख में अपने रक्त से सींच रही अपने अंश से पुलकित काया एक अनूठे आत्मसंतोष और गर्व से भरी होती है , यह तेज उसके मुखमंडल को दिव्य और आभामय बनाता है . माँ बनने वाली स्त्री एक ख़ास देखरेख में होती है , अचानक ही परिवार और समाज में उसको विशेष तवज्जो मिलने लगती है जो उसकी शारीरिक और मानसिक अवस्था के लिए आवश्यक भी है .
बच्चे के जन्म से पहले के बाद के ख़ास दिनों में बच्चे के साथ ही नव प्रसूता माँ का ख़ास ध्यान रखा जाता है . इन दिनों में नसीहतों की भरी भरकम पोटलियों के साथ सेहत के लिए घरेलू भरपूर घी डाले सौंठ , अजवाईन , गोंद -गिरी के लड्डू तथा अन्य शक्तिवर्धक घरेलू औषधियां, घी अथवा तेल से मालिश , भरपूर आराम ,गोद में नन्हे -मुन्ने की किलकारियों के बीच हर स्त्री मातृत्व की गरिमा और अभिमान से सिंचित खूबसूरत हो जाती है , ना सिर्फ तन से , मन से भी !
हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ उनके इन ख़ास पलों को अविस्मर्णीय बना देती हैं हैं.
राजस्थान में बच्चे के जन्म के बाद लगातार भीतर ही रह रही स्त्री को सूर्य दर्शन की मनाही होती है .बच्चे के जन्म के दसवें दिन जच्चा -बच्चा को विशेष प्रसूति स्नान करवाया जाता है. इसे नामकरण संस्कार के रूप में भी जाना जाता है . उसके बाद ही वे सूर्य की पूजा कर उनका दर्शन करती हैं , इसके अलावा जल से भरे बर्तन को कुएं का प्रतीक मानकर पूजा की जाती है . चालीस दिनों बाद सम्पूर्ण शुद्धि और स्नान के पश्चात् जलवा पूजन पर बड़ी धूम धाम से कुँए पर जाकर पूजन किया जाता है.
सूर्य पूजन के समय बच्चे का नए वस्त्रों के साथ नवप्रसूता को मायके से भेजा गया लिए विशेष परिधान " पीला " पहनना आवश्यक होता है, जो उनके चेहरे की पीतवर्ण आभा को और अधिक सुवर्णमय बनाता है . माँ बनने के सार्वजानिक परिसाक्ष्य/गवाही देता यह परिधान साडी अथवा ओढ़नी के रूप में होता है . पीले अथवा नारंगी रंग की पृष्ठभूमि के साथ लाल बौर्डर इस परिधान की विशेषता है . इस पर भी आरी तारी की कढ़ाई के साथ बेल बूटे होते हैं. जगमग बेल बूटों की कढ़ाई के साथ लाल और पीले रंग में रंग पीला साडी या ओढ़नी पहनकर जच्चा जब गोद में बच्चे को लेकर पूजन करती है तो उसके चेहरे पर वात्सल्य की आभा और अभिमान की छटा देखते ही बनती है ! इसके बाद अन्य पूजन अथवा शुभ कार्यों में माएं चुन्दडी के स्थान पर पीले का प्रयोग भी करती हैं .
पीला |
पीला ओढ़नी में |
पीला का मुख्य रंग |
पाँच मोहर को साहिबा पिळो रंगावो जी
हाथ बतीसी गज बीसी गाढा मारू जी
पिळो रंगावो जी
दिल्ली सहर से साईबा पोत मंगावो जी
जैपर का रंगरेज बुलावो गाढा मारू जी
पिळो रंगावो जी
पिला तो पल्ला साईबा बन्धन बन्धाऊँ जी
अध बीच चाँद चपाऊँ गाढा मारू जी
पिळो रंगावो जी
रंग्यो ऐ रंगायो जच्चा होया संजोतो जी
पण बेरे माएं पकडायो जी गाढा मारूं जी
पिळो रंगावो जी
पिळो तो औढ़ म्हारी जच्चा पाटे पर बैठी जी
दयोराणी जेठाणी मुखड़ो मोड्यो गाढा मारूं जी
पिळो रंगवो जी
पिळो तो औढ़ म्हारी जच्चा सर्वर चाली जी
सारो ही सहर सरायो गाढा मारू जी
पिळो रंगावो जी
राजस्थानी पीले के कुछ और रंग यहाँ भी