सोमवार, 3 नवंबर 2014

भीष्म पंचक (पंचभीकू ) लोककथा ....

पवित्र कार्तिक मास के आखिरी पांच दिन " भीष्मपंचक" (पंचभीकू )कहलाते हैं।  धार्मिक मान्यता में ये पांच दिन वे हैं जब बाणों की सरसैया पर लेते भीष्म पितामह ने पांडवों को उपदेश दिए थे।
 मगर लोक मान्यता में विभिन्न पर्व /व्रत  आदि के  नाम के बदलाव के साथ ही इससे जुडी  कथाएँ भी भिन्न हो जाती है।   सामाजिक , धार्मिक महत्व जो भी रहा हो इन लोक कथाओं का , मगर मनोवैज्ञानिक रूप से भी ये विलक्षण होती हैं।   कल्पनाशीलता की सजावट के साथ मनुष्य के मनोभावों , आदतों और व्यवहार पर तीक्ष्ण दृष्टि और समाधान रखती हैं ये लोककथाएं। किस प्रकार इन कथाओं के माध्यम से सामाजिक , मानसिक समस्याओं के विभिन्न पहलू  को प्रतीकात्मक रूप  उजागर कर समाधान ढूंढने का प्रयत्न
किया जाता रहा , विचारणीय है।

 पांच दिनों के इस व्रत अनुष्ठान के साथ लोकमानस में प्रचलित कथा इस प्रकार है -




एक साहूकार की बहू पंचभीकू का व्रत स्नान नियम से करती थी। तारों की छाँव में ही स्नान पूजन की कामना से गंगा स्नान को जाती स्त्री प्रार्थना करती  " गंगा -जमना -अड़सठ तीर्थ थारी पैड़ी पग  धरूं , मेरे सत (सतीत्व ) राखे" . और स्नान के बाद नहा धोकर , पीपल , केला , तुलसी , आवला और ठाकुर जी की पूजा करती। एक दिन स्नान के बाद अपनी माला और  मोचड़ी (जूतियां ) वहीँ भूल आई. राजा का बेटा गंगा किनारे जल पीने आते पशु पक्षियों का शिकार करने के लिए आया तो मोचड़ी देख मन में विचार किया कि जिसकी मोचड़ी इतनी सुन्दर है , वह स्त्री भी अवश्य सुंदर होगी। उसने साहूकार की बहू से मिलने का  प्रण किया और उसके घर बुलावा भेजा।  साहूकार और उसकी पत्नी भयभीत हुए कि अब क्या होगा।  राजा का आदेश टाला भी नहीं जा सकता और घर की बहू बेटी की सुरक्षा और इज़्ज़त का भी सवाल है।  बहू ने सुना तो ससुर जी को कहला दिया  कि वे चिंता न करें।  उधर राजा के बेटे को कहलवा दिया कि पांच दिन सुबह अँधेरे  ही वह गंगा स्नान को आएगी , वह उससे वहीँ मिल ले।  राजा के बेटे को चैन कहाँ।  वह रात में ही पहुँच गया नदी किनारे , रात भर उसके इन्तजार में जागता बैठा रहा , मगर सुबह  अँधेरे ही उसकी आँख लग गयी।  साहूकार की बहू गंगास्नान को आई , प्रार्थना करती " गंगा जमना अड़सठ तीर्थ थारी पैड़ी पग धरूँ , मेरा सत रखे। अपने नित्य कर्म किये।  अपने साथ वह तोते को लेकर आई जिसे साक्षी धरते हुए कह गयी ,  सुआ थारी साख धरुं , कह देना उस पापी हत्यारे को मेरी एक रात पूरी हुई !
जैसे ही साहूकार की बहू वहां से निकली ,  राजा के बेटे की आँख खुली तो सबेरा हो चूका था।  उसने देखा वहां कोई नहीं था , बस एक तोता था जो राजा के बेटे को देखकर हँसा कि  वह तो गई।  राजा के बेटे ने पूछा , कैसी थी !
सुआ बोला , "आभा की सी बिजळी , मोतिया सी झळ   " (उसकी आभा मोतियों की तरह थी जिसकी चमक बिजली जैसी हो )
अब तो राजा का बेटा बहुत पछताया।  दूसरे दिन प्रण कर बैठा वहीँ नदी किनारे कि आज तो देखकर ही रहूँगा।  मगर वही साहूकार की बहू के आने का समय हुआ और उसकी आँख लग गयी।  साहूकार की बहू ने अपने नित्य कर्म धर्म किये और तोते को साक्षी धर कह गयी , " सुआ ,  तेरी साख धरूं , कह देना उस पापी हत्यारे से मेरी दो रात पूरी हुई।  तीसरे दिन राजा के बेटे ने शूलों (काँटों ) की चौकी पर बैठा कि देखूं ,आज कैसे नींद आएगी।  मगर फिर वही साहूकार की बहू के आंने का समय हुआ और उसकी आँख लग गई।  सुबह जाते फिर साख भरा गयी कि  आज  तीन रात पूरी हुई।  चौथे दिन राजा अंगुली काटकर उस पर नमक छिड़क कर बैठा,  पांचवे दिन आँख में मिर्च डालकर सारी रात जागा मगर फिर उसे फिर भी आँख लग गई।  पांचवे दिन जाते जाते कह गयी - सुआ कह देना उस कामी लोभी को , मेरी पांच रात पूरी हुई। मेरी माला मोचड़ी मेरे घर पहुंचा दे। उसने एक स्त्री का सत बिगाड़ने की कोशिश की , सो उसे भगतना पड़ेगा।
राजा का बेटा निराश होकर महल चला गया।  घर पहुंचा तो देखा कि उसके सर पर गूमड़ हो गया है।  चार पांच दिन में गूमड़ बढ़ते हुए सींग बन गए।  अब तो वह छिप कर रहने लगा कि सब लोग उसे चिढ़ाएंगे कि उसके सर पर सींग निकल आये। राजा ने वैद्य बुलवाया मगर उन्होंने इलाज में असमर्थता व्यक्त करते हुए ज्योतिषी से पत्रा दिखाने को कहा. ज्योतिषियों ने उसका हाल देख बताया कि पराई स्त्री पर बुरा मन करने से उसकी यह दशा हुई है। वह पांच दिनों तक साहूकार की बहू के नहाये हुए जल से स्नान करे , तब ही उसकी बीमारी दूर होगी।  राजा  स्वयं साहूकार के घर गया और अपने पुत्र की करनी की माफ़ी मांगते हुए उनकी सहायता मांगी।  साहूकार की बहू ने  महल में जाने से इंकार कर दिया , राजा के बहुत विनती करने पर साहूकार ने कहा कि सुबह जब बहू स्नान करेगी तो छत के नाले से बहते पानी के नीचे राजा के बेटे को खड़ा किया जाए।  थक हार कर राजा को बात माननी पड़ी।  राजा के बेटे ने इस प्रकार स्नान किया तो उसके सींग झड़ गए।

(यह कथा थोड़ी बहुत फेरबदल के साथ भिन्न परिस्थितियों के अनुरूप कही जाती है )
इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण मुझे तो यही लगा कि मन के विकार तन को भी बीमार करते हैं।  यदि मन की शुद्धता का उपाय किया जा सके तो तन भी स्वस्थ होगा !! बाकी मनोविश्लेषकों से प्रार्थना है यदि वे इस कथा की व्याख्या कर सके.

 !
नोट - चित्र गूगल से साभार ! आपत्ति होने पर हटा लिया जाएगा

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

"आख़िर लाचार कौन था ...??"

 महिलाओं की दान प्रवृति और अपाहिजों तथा गरीब ,लाचारों की मदद कर अपना यह लोक और परलोक एक साथ सुधारने की मानसिक संतुष्टि धार्मिक स्थलों पर अपाहिजों , लाचारों और भिखारियों के संख्या में दिनोदिन बढोतरीकरने का एक मुख्य कारक है, हालाँकि इन्ही महिलाओं को अक्सर पसीने से भीगे हांफते   रिक्शाचालकों व मेहनत से रोजी -रोटी कमाने वाले सब्जी के ठेले वालों से एक -दो रुपये के लिए सर फुट्टवल करते देख वह आश्चर्य में पड़ जाती है ।

वृंदा भी बहुत पसीजती थी और घर के दरवाजे पर अपने भूखे बच्चों के लिए खाना मांगने वाली की आर्त्र पुकार को अनसुना नही कर पाती। उसकी करुणा देखकर खाने की गुहार वस्त्रों और चप्पलों तक जा पहुँचती।

"देख बाई ..बच्चा कैसे सियां मरे है ..कोई टाबरों का फटा पुराना गरम कपड़ा ही दे दे।"

वृंदा की आँखों के सामने बच्चों की पुराने कपडों की पोटली घूम जाती और उसे रुकने का इशारा कर अन्दर भागी चली जाती ,तब तक उस मांगने वाली को पुरानी चादर और चप्पलों की जरुरत महसूस हो जाती। उसकी इस आदत पर पति और बच्चे बहुत हँसते ..
"देखना किसी दिन हमारे नए कपड़े भी यूँ ही गायब मत कर देना "

इधर एक मांगने वाली हर दो या तीन दिन बाद आ धमकती। वृंदा भी उसे कभी खाली हाथ नही लौटाती और अपने परिवार के फलने फूलने की आशीष लेती फूली ना समाती । खाने से होते हुए चादर, चप्पलें , पुरानी साड़ी , खाली डब्बे कब उसकी भेंट चढ़ जाते , ख़ुद वृंदा को भी पता नही चलता...

मगर जब अगले ही दिन बच्चों को बिना चप्पल देख वृंदा इस बाबत कोई प्रश्न करती तो जवाब मिलता ...

 बाई ... इसका भाई सियां मरे था ..इसको तो गोद में भी टांग लूंगी " और वृंदा घर में और पुराने चप्पल जुटे  ढूँढने में लग जाती।  मगर जब एक दिन कस्बे में मंगलवार को लगने वाले विशेष हाट बाजार में उसी औरत को बोली लगाकर मांगे हुए वस्त्र आदि बेचते हुए देखा तो उसे बहुत गुस्सा आया । अब किसी मांगने वाली को कुछ भी नहीं देने का फैसला कर बैठी पर  जब अगले ही दिन वह महिला अपने  भूखे नंगे बच्चे के साथ उसकी चौखट पर आ खड़ी हुई तो उसका फैसला धरा का धरा रह गया ।
वह सोचने लगी आखिरकार भूख और लाचारी ही तो उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करती है।

 कुछ अनमने मन से लॉन में बिखरी हुए सूखे पत्तों की ओर इशारा करते हुए उसने कहा.

मैं अभी खाना लेकर आती हूँ , तब तक तू यह कचरा समेट ले "

जब खाना लेकर वृंदा बाहर आयी तो वह मांगने वाली जस की तस वहीं खड़ी मिली। अब तो वृंदा भी अड़ गयी ।

तुझे खाना तभी मिलेगा , जब कुछ काम करेगी।"
इतने में तो उसका बडबडाना शुरू हो गया ...

 बाई ...मेरे से तो ना होवे सफाई ...रोटियों पर इतना गुमान ... और घणी मिल जावेगी "

और पडोसन के दरवाजे की घंटी बजाकर अलापना शुरू कर दिया । जब पडोसन खाना लेकर आयी तो उसे ढेरों आशीष देती हुए वृंदा को मुंह चिढाती -सी सर्र से निकल गयी। वृंदा खड़ी मुंह ताकती रही .

"आख़िर लाचार कौन था ...??"







बुधवार, 10 सितंबर 2014

परम्पराएँ मूढ़मगज की उपज हरगिज नहीं थी , न हैं!!

तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए इन दिनों   अपना ज्ञान बघारने और कोसने हेतु  भारतीय सभ्यता और संस्कृति एक रोचक , सुलभ और असीमित  संभावनाओं वाला विषय बना हुआ है।  आये दिन तीज त्योहारों पर फतवे प्रायोजित किये जाते हैं जैसे कि -  परम्पराएँ मानसिक गुलामी का प्रतीक हैं , तीज-चौथ-छठ  के बहाने स्त्रियों का शोषण किया जाता है।  समाज के दुर्बल अथवा पिछड़े  माने जाने वाले वर्गों पर   अत्याचार है आदि- आदि  !
विचार प्रवाह में शामिल होते हुए  इन परम्पराओं पर चिंतन किया तो आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता की सीमा  न रही। यह विश्वास  पुष्ट होता गया कि हमारी  परम्पराएँ  मूढ़मगज की उपज हरगिज नहीं थी , न हैं ।
इन परम्पराओं को   समाज के विभिन्न वर्गों की परस्पर आवश्यकता ने प्रचलित किया  एवं  समन्वयन के लिए इन्हे विस्तार दिया गया ताकि समाज का कोई भी अंग उपेक्षित न रह जाए । परम्पराओं के जरिये विभिन्न उत्सवों का आयोजन करना आपसी मेल मिलाप और मानसिक उन्नति का  मनोवैज्ञानिक हल भी है।
इसमें शक नहीं कि  कालांतर में वास्तविक उद्देश्य का विस्मरण हुआ ,परम्पराओं ने रूढ़ियों और अंधविश्वास का स्थान लिया और  बेड़ियां सी प्रतीत होने लगी। मगर  परम्पराओं के महत्व को ही सिरे से नकारना समाज में उल्लास और उत्साह को  नष्ट करना उदासीनता एवं नैराश्य को बढ़ावा देने जैसा है।  रूढ़ियों के अनुसरण से बचते हुए स्वस्थ परम्पराओं का अनुकरण समाजों में आपसी सद्भाव हेतु एक सेतु बन सकता है।   

अभी श्राद्ध पक्ष है। पूर्वजों को याद कर उनकी स्मृति में  गाय , कौवे , कुत्ते , अतिथि (यहाँ अतिथि माने मेहमान नहीं है! द्वार पर सबसे पहले भोजन लेने आने वाले व्यक्ति को  भी अतिथि कहा जाता है ) को भोजन प्रसाद देने का समय है।

(पूर्वजों के स्मरण का पर्व सिर्फ हिन्दुओं में नहीं होता।  विभिन्न संस्कृतियों , समुदायों  में भी भिन्न नामों से ये परम्पराएँ प्रचलित हैं।  यहाँ तक कि ईसाईयों में भी दुःख भोग सप्ताह के रूप में पूर्वजों को स्मरण किया जाता है. पूरे सप्ताह  विशेष पूजा अर्चना के अलावा कब्रिस्तान में फूलों की सजावट और मोमबत्तियां जलाकर पूर्वजों को नमन किया जाता है) 

श्राद्ध के समाप्त होते ही नवरात्र प्रारम्भ होंगे। नवरात्र में पूजा पाठ अधिक होगा।   प्रसाद के लिए छोटी बच्चियों को ढूँढा  जाएगा। पुत्रों को त्राण कर देने  वाला मानने वाली परम्परा में पुत्री भी उपेक्षित नहीं थी। नौ दिन इन कन्याओं के नाम कर उनका स्थान सुरक्षित करने की कोशिश की गयी। परिवारों में विभिन्न संस्कारों /उत्सवों में न सिर्फ पुत्रियों द्वारा  आरती/ पूजन , नेग सुनिश्चित थे , अपितु परिवार के प्रत्येक सदस्य की  विभिन्न रस्मों के समय आवश्यकता और महत्व को ध्यान में रखा गया।    
माली /कुम्हार की आवश्यकता भी होगी पुष्प , कलश/ मिटटी के सिकोरे  आदि के लिए ! अभी कुछ समय पहले वट सावित्री पूजन पर वटवृक्ष तो गोवत्सद्वादसी (बछबारस ) पर बछड़े वाली गाय की आवश्यकता थी। पशुपालकों के लिए  बछिया वाली गाय प्रसन्नता देती है , मगर  बछबारस के बहाने बछड़े को भी याद किया।  
उसके बाद कार्तिक मास में नदी , कुएँ , बावड़ी आदि के जल से स्नान के समय उनकी भी पूजा होगी।  केला ,पीपल , आँवला ,तुलसी , सूर्य , चन्द्र किसको याद नहीं किया। करवा चौथ पर करवे के लिए तो  दीपावली पर फिर से कलश /दीपक के लिए कुम्हार  तक पहुंचे। होली पर चंग -ढोल बजाने वालों का नेग था तो संक्रांति पर सफाई कर्मियों  का भी  । होली दिवाली कपड़ों/कालीनों आदि की  सफाई तो होली में रंगों /कीचड (!) आदि से सरोबार कपड़ों की धुलाई में धोबी की आवश्यकता थी।

संक्रांति पर्व पर भी परिवार के सदस्यों के साथ ही सफाईकर्मी के अलावा  गरीबों /भिक्षुकों आदि को विशेष दानपुण्य।  इनके साथ चील कौवों के लिए पुए पकौड़ी का भोग.  
शीतलाष्टमी पर सराई /करवे में माता को भोग लगाकर थाली का प्रसाद व दक्षिणा भी कुम्हार के हिस्से में आया।

विवाह में चाक की रस्म में कुम्हार की आवश्यकता और नेग, तो घर -घर बुलावे देने और विभिन्न रस्मों की तैयारी  में नाई /नाईन की आवश्यकता और नेग।  गृहप्रवेश , जलवा पूजन में कुएँ का पूजन और जलभर  कलश  का लाना …बालक /बालिका के जन्म पर जच्चा बच्चा की मालिश/स्नान /सफाई  आदि के साथ वही बुलावे से लेकर अन्य संस्कारों की तैयारी में  धोबी , नाई , दाई की आवश्यकता , मनुहार और उनका नेग भी । 
और भी जाने कितने पर्व , संस्कार और रस्में और उनके कारण से समाज में प्रत्येक अंग की आवश्यकता , मनुहार, नेग  निश्चित किया गया। 
पंडितों  के विषय में अलग से नहीं लिखा  क्योंकि उनके कार्यों /दक्षिणा आदि के बारे में अलग से जागरूक करने की आवश्यकता नहीं है। पूजा पाठ करने वाले /करवाने वाले और दक्षिणा देने वाले /नहीं देने वाले पंडितों के विषय में यूँ भी अधिक जानते ही हैं। 
  
अचंभित होती हूँ किस तरह परम्परा में हमें प्रकृति /पेड़ / पौधे /नदी /कुएँ आदि की आवश्यकता और उनके महत्व  के प्रति जागरूक किया जाता रहा। उनके प्रति कृतज्ञ होने का अवसर प्रदान किया जाता रहा। वहीँ समाज के प्रत्येक अंगों की आपस में समन्वयन के लिए एक दूसरे की आवश्यकता और महत्व पर बल दिया गया। 
सोचती हूँ कि जिन समाजों में ये परम्पराएँ नहीं है , वे लोग कैसे जुड़ते होंगे प्रकृति से अथवा आपस में भी जिस तरह हमें दैनिक जीवन की  आदतों और विभिन्न उत्सवों के रूप में बचपन से ही जोड़ा जाता रहा है !  

विभिन्न संस्कृतियों में मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक रहने वाले समाज के विभिन्न अंगों में समन्वय का जरिया कुछ न कुछ अवश्य होता होगा … बस भिन्न परम्पराओं/नामों /प्रतीकों आदि  के द्वारा ही सही।  

यदि आप विभिन्न संस्कृतियों की परम्पराओं द्वारा प्रकृति और समाज के प्रत्येक अंग के आपस में समन्वय के विषय में जानकारी रखते हैं तो अवश्य साझा करें !!  

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

द्विरागमन ....(3)

अपने जीवन की परेशानियों से निबटता एक सैनिक जा बैठा हरे भरे पार्क की एक बेंच पर , उसी बेंच से कुछ दूर मखमली दूब पर तिनके कुतरती एक स्त्री ,. तल्खी भरे परिचय से बढती मुलाकातें अजनबियत को परे धकेलती आत्मीयता में बदलती है . दोनों के बीच के  संवादों  के टुकड़े उन दोनों की कहानी को आगे बढ़ाते हैं , उनके जीवन की कहानी को . कहते हैं सुख में साथ चल रहे अपने फिर पराये हो जाते हैं मगर दुःख और संवेदना दो इंसानों के बीच बेहतर पहचान बनाती है ....जीवन की आपधापी के भागते क्षणों के बीच कुछ ठहर सी गयी है खुद को तलासते , सैनिक के दर्द अभी सिर्फ उसके अपने हैं ! पिछले  दो अंकों  द्विरागमन (1), द्विरागमन (2)के बाद अब आगे ....


        

उससे बतियाते मैं जानने लगा था कि वह अपने पति और बच्चों के साथ अकेले रहती थी।  उसके सास ससुर इतने नाराज थे कि एक ही शहर में रहने के बावजूद उससे कभी मिलने नहीं आते ...बच्चों के जन्म से लेकर उनके स्वास्थ्य खराब होने पर भी। बताया नहीं था उसने बस , उसकी बातों से जाना।
एक दिन पूछ  लिया था मैंने -
तुम्हारा प्रेम विवाह हुआ है क्या  !
हां, प्रेम विवाह के बाद हुआ है।
प्रेम विवाह के बाद प्रेम!
बुद्धू , प्रेम मुझे विवाह के बाद हुआ !!
अच्छा , उससे पहले किसी से प्रेम नहीं हुआ ! सच बताओ , तुम्हे विवाह से पहले कभी प्रेम नहीं हुआ।
वह कुछ देर खामोश रही।
प्रेम क्या होता है आखिर ! दो व्यक्ति एक साथ रहने और साथ जीने में ख़ुशी महसूस करते है , इसके अतिरिक्त प्रेम क्या होता है !
 मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूँ जब कुछ अच्छा नही लगता ...  घबराहट होती है !भूख- प्यास मिट जाती है ... पढने में मन नही लगता ... रात में नींद नहीं आती  दिन में सपने देखने लगते हैं लोग !
वह प्यार होता है।  मुझे तो लगता था कि ये लक्षण ब्लड प्रेशर के होते हैं या अनिमिक होने के !
इस उम्र में तुम यह कह सकती हो , मगर मैं उस उम्र की बात कर रहा हूँ जब यह सब होता है ! क्या तुम्हे कभी कोई अच्छा नहीं लगा। तुम भी अच्छी खासी खूबसूरत हो ...तुम्हे भी तो किसी ने पसंद जरुर किया होगा .
अच्छा  क्यों नहीं लगा।  हम अपने जीवन में बहुत लोगो से मिलते हैं जो हमें अच्छे लगते हैं.  हम उनसे और  वो हमसे आकर्षित होते हैं.  सब हमारे जीवन में शामिल नहीं होते .  इससे प्रेम का क्या सम्बन्ध !
अभी तुमने कहा न दो व्यक्ति एक साथ रहने जीने में ख़ुशी महसूस करें , वही प्रेम है !

अचकचा गई वह।  शब्दों के जाल में उलझा दिया था मैंने।  उलझन भरी नजरों से थोडा नाराजगी से कहा उसने , मुझे नहीं पता ये सब ! मुझे इस तरह का कोई प्रेम नहीं हुआ बस।  मैं उसे ही प्रेम मानती हूँ जो जिम्मेदारी बन जाता है।
वह कुछ जल्दी में थी उस दिन। जल्दी जाना था उसे।  उसके पति शहर से बाहर जा रहे थे कुछ दिन के लिए . उनके सामान की पैकिंग करनी थी और भी घर के कुछ काम भी।  मुझे हैरानी हुई कि उसका पति उसकी कजिन के विवाह में अकेला ही जा रहा था।
कमाल है ! कजिन तुम्हारी है और पति तुम्हारा जा रहा है शादी में।  तुम क्यों नहीं जा रही।
मैं नहीं जा सकती। कम से कम एक सप्ताह लगेगा . बच्चों की पढाई का नुकसान होगा। वह कुछ उदास सी थी।
ऐसा भी क्या कि बच्चों को कुछ दिन की छुट्टी नहीं दिला सकती।
एक्जाम होने वाले है उनके कुछ दिनों में ही।
हाँ , मगर इसमें क्या हुआ ! तुम अपने सास ससुर के पास छोड़ सकती हो बच्चों को।
नहीं छोड़ सकती , वे नहीं आते हमारे घर !
मैंने उसकी ओर गौर से देखा तो वह एकदम से गड़बड़ा गयी .
मेरा मतलब है कि बच्चे कभी रहे नहीं है अकेले  इसलिए नहीं छोड़ सकती उनको कहीं।
वह कुछ नहीं बोली।  मगर मैं चाहता था कुछ कहे वह ! क्यों नहीं जाना चाहती है वह , क्यों नहीं जा सकती है !!
बस नहीं जा सकती , काफी है तुम्हारे लिए।
मुझे पता चल गया क्यों नहीं जाना चाहती हो तुम।  उसके जाने के बाद एक सप्ताह पार्क में मुझसे मिलने ज्यादा देर आ सकोगी … उसे खीझा कर बुलवाने का हुनर मैं सीख गया था !
खिझी बहुत अधिक वह मगर बोली कुछ और ही।
मैं तुम्हारा सर फोड़ दूँगी।
हा हा हा , मेरे सर तक तुम्हारा हाथ पहुचेगा भी  !! मैं सीधा तन कर खडा हो गया।  वह मेरे कंधे से भी छोटी थी।
मुझे बात ही नहीं करनी है तुमसे और उस दिन वह  नाराज होकर पैर पटकते चली गयी।

वह सचमुच नाराज हो गयी थी।  उस पूरे एक सप्ताह वह पार्क में आई ही नहीं . मैं पहली बार थोडा बेचैन हुआ। किससे पूछूं उसके बारे में।  आस पास खेलते बच्चों से , या आइसक्रीम वाले से।  मैं नहीं जानता था कहाँ रहती है वह . कभी मैंने पूछा नहीं . कभी उसने बताया भी नहीं। पहली बार मैंने सोचा ! कई बार उठ कर उन बच्चों के बीच गया मगर कदम फिर फिर कर लौट आते।  क्या पूछूं बच्चों से  , क्या कहेंगे बच्चे ! कौन थी वह जिसके बारे में मैं जानना चाह रहा था।  पता नहीं  कौन क्या सोचेगा . मैं चुप ही बैठा रहा मगर मुझे बेचैनी होती रही। इस बार मुझे खुद पर भी गुस्सा आ रहा था . मैंने उसे उदास देखा था कुछ परेशान भी और मैंने उसे चिढाना जारी रखा था . मुझे नहीं करना चाहिए था ऐसा .

क्यों नहीं आई वह ! सब ठीक तो है या हो सकता है वह भी अपने पति और बच्चों के साथ चली गयी हो विवाह में।  या कही मुझसे सचमुच नाराज तो नहीं हो गयी है।  ईश्वर जानता था मैंने सिर्फ उसे खिझाने के लिए ही कहा था।  जब कभी वह अनमनी नजर आती या अधिक चुप रहती नजर आती मैं जानबूझकर कुछ ऐसा कहता कि उसे गुस्सा आ जाये और चिल्लाते हुए लड़ पड़ती और लड़ते हुए उदासियाँ उस ज्वालामुखी चेहरे के डर के मारे दुबकी रहती . लड़ते हुए ही जाने कब मुस्कुराने भी लगती।   मुझे उसे मुस्कुराते देखना बहुत अच्छा लगता था।  मैं टटोलता हूँ खुद को , उसे ही क्यों , मुझे सबको मुस्कुराते देखना अच्छा लगता है।

उस पूरे सप्ताह मुझे बहुत अकेलापन लगा।  गलत है यह . मैं खुद को धिक्कारता था।  मैं सब बन्धनों से छूट चूका हूँ , मुझे किसी को याद नहीं करना ., याद नहीं आना है।  मगर क्या सचमुच छूटा जा सकता था !!
 मैं याद करता था उस मनहूस दोपहर को जिसने मेरी जिंदगी का रुख बदल दिया था।  हलकी सर्दी के दिन उस पार्क की बेंच पर धूप का टुकड़ा मुझे आकर सहलाता रहा . मैं याद करता रहा जो मैं भूल जाना चाहता था , मगर भूला नहीं था।
सैनिकों के जीवन में छुट्टियाँ उनकी पूरी एक उम्र होती है।  कब जाने कौन सी छुट्टी उनके जीवन की आखिरी हो जाए , उस छुट्टी के बाद कभी लौट नहीं पाए जीवन। हर जवान जी लेना चाहता है उन पलों को यादगार लम्हों की तरह। अचानक घर जाकर निशा को चौंका देना चाहा था मैंने . मगर उससे पहले ढेर सारी खरीददारी करनी थी मुझे . लाल किनारे वाली सफ़ेद साडी  बंगला साहित्य को सनक तक पसंद करने वाली निशा . बहुत भाता था उसे उसी बंगला स्टाईल में साडी पहनना , उसके लम्बे बालों और बड़ी आँखों के बीच चेहरे की बड़ी बिंदी उसे ठेठ बंगाली लुक देती थी . कई बार यकीन करना मुश्किल हो जाता कि वह बंगाल से नहीं थी , बंगाली नहीं थी .  "आमी तुमाको भालो वासी " दुकानदार ने चौंक कर देखा था मेरी ओर . सेल्सगर्ल द्वारा खोल कर दिखाई जाने वाली साडी में जाने कब निशा आ खड़ी हुई थी . सेल्सगर्ल ने भी पूछा,  कुछ कहा आपने सर!,
हाँ हाँ वो .... इस साडी को पैक कर दो . मैं घबरा गया था . क्या सोचा होगा उन लोगों ने . कैसी चुभती अर्थपूर्ण निगाहें थी दुकानदार की मगर सेल्सगर्ल बहुत प्यारी संजीदा सी लड़की थी.
 वह समझ गयी थी ,"सर , मैम पर बहुत जचेगी यह साडी , अच्छी पसंद है आपकी !"
घर परिवार से दूर रहने वाले जाने कितने पथिक घर की उड़ान भरने से पहले यहाँ भटकते आ जाते होंगे . माँ , बहन, पत्नी,  प्रेयसी के लिए कुछ उपहार में खरीदते उनकी आँखों को पढना सीख जाती है ये बालाएं . कई बार उनसे सलाह भी ले लेते हैं जैसे अपनी पसंद से दे दीजिये बहन को क्या अच्छा लगेगा ... क्या ले जाना चाहिए माँ के लिए , प्रेयसी को कौन सा रंग सुहाएगा . अनजान दुनिया के कुछ पल के साथी जाने पहचाने अपनों के लिए किस अपनेपन से जुट जाते हैं . ना , सिर्फ व्यापार या मजबूरी नहीं . उनके चेहरे की नम आत्मीयता बेगानों में भी संवेदनाओं के बचे होने की पूरी गारंटी देती हैं . और जब अपनी नन्ही परी  तृषा के लिए परियों वाली ड्रेस और गुडिया सिंड्रेला लेते तो जैसे वात्सल्य का समन्दर उछाले भरता उनकी ममता को सहलाते रहा .
मेरी नन्ही परी , आ रहा हूँ मैं !  फोन पर अपनी तुतलाती जुबान में जाने क्या सुनाती रहती थी .  उसकी माँ से ही जान पाता था कि कभी वह लोरी सुना रही होती है तो कभी मम्मा की शिकायत . उस दिन उसकी प्यारी शरारतें बताते सुनते हम दोनों के गले भर आये थे . कागज़ पेन लेकर बैठी उसकी तृषा अपने पिता को ख़त लिख रही थी . उसकी माँ का सिखाया गीत गाते. पापा , जल्दी आ जाना . अच्छी सी गुडिया लाना .

क्रमशः ....
चित्र गूगल से साभार !

बुधवार, 9 जुलाई 2014

द्विरागमन .... (2)




मुझे लगता था कहीं भीतर से आती उसकी आवाज - तुम सब कुत्ते ही होते हो , सब एक जैसे।  गोश्त चूस लेने के बाद हड्डियां चुभलते रहने वाले कुत्ते , तुम्हारी भौंक बस हड्डी मुंह में रहने तक ही बंद रह सकती है।  
मैं काँप रहा था इस अनकही को सुनते , उसने तो कुछ कहा नहीं था।  कहीं मेरे मन की ही बात तो मेरे कानों में नहीं उड़ेली जा रही थी उसके अनकहे शब्दों में।  अपने आप को हमसे बेहतर और कौन जान सकता था! 
अपनी बेरहमी और बेशर्मी से घबराया मैं उसी बाग़ के दूसरे कोने पर लगे फूलों और बच्चों को देख मुस्कुराता , अपने भीतर के पशु को छिपाते सांत्वना देता मनुष्य को ! (द्विरागमन -1)
अब इससे आगे --

उस दिन जब वह लॉन की दूब को दांतों से कुरेदती ही तो मिली थी मुझे यहाँ , अपनी व्यग्रता को ही कुरेदती थी जैसे।  बाद के दिनों में मुझे बताया उसने।  मध्य आयु के स्त्री पुरुषों में जैसे परिवर्तन होते हैं  वैसी ही बेचैनियां लिए बढ़ती उम्र ...रिश्तों का ठहरापन ...मुट्ठी से फिसली उम्र के बीच कुछ भी अपने मन का न पा सकने की निराशा .,जाने क्या -क्या !

उस दिन फिर जल्दी -जल्दी करते भी तवे पर पराठे जल गए थे और उसका पति गुस्से में खाना खाए बिना ऑफिस निकल गया था ...नल से  पानी भांडे भरे बिना ही जा चुका  था ...बच्चों की डायरी में क्लास में पिछड़ते जाने का नोट !
वह देखती थी आस- पास स्त्रियों को सुबह जल्दी उठकर झाड़ू बुहारू लगाते , पूजा -पाठ करते , खाना बनाते ,  बच्चों को तैयार करते ख़ुशी -ख़ुशी और सबसे फारिग होकर कभी बाजार तो कभी पास पड़ोस में गप्प गोष्ठियां करते।  बड़ी ख़ुशी से अपनी गोपनीय बातें उजागर करते जैसे कि  आज धूप  में कुछ कार्य कर रही थी तो लाड़ में भरा पति दूध में ढेर सारे ड्राई ट्स घोल लाया उसके लिए ... कोई पिछली रात की बात खुसर फुसर में इस तरह करते कि  दूसरी महिलाएं झट कान लगा कर पूछ ले दुबारा।  कोई पति की शिकायत इस तरह करती मिल जाती जैसे कि  प्रशंसा कर रही हो ... हमारे ये तो कुछ काम ही नहीं  कराते घर का या की इन्हे तो कुछ पता ही नहीं रसोई  में कौन सी चीज कहाँ रखी  है ...कोई बताती छिपा  कर रखे गए पैसों से सोने के गहने / खरीददारी जिससे वह अपने उनको  चौंका देगी। सास की पदवी पा चुकी कुछ स्त्रियां अपने दुःख का पुलिंदा खोले बैठी होती।  उसका कभी इस गपगोष्ठी  में शामिल होना होता तो  चुपचाप बस सुन लेती क्योंकि उसके पास  या तो ऐसा कुछ सुनाने को होता नहीं  या फिर रिश्तों की गोपनीयता उजागर करना उसे अच्छा लगता भी नहीं। मंगोड़ियां , पापड़ बनाती हुई स्त्रियां , तो कभी लहंगा , ब्लाउज सिलती ये स्त्रियां खुश लगती थी अपनी जिंदगी से,  बहुत खुश !

किसने कौन सी किताब पढ़ी ...कौन सी फिल्म देखी... नया क्या सीखा सुन लेने को ही तरसती ! ऐसा नहीं था कि उन गोष्ठियों में स्त्रियां  पढ़ी लिखी नहीं थी।  अधिकांश संतोषजनक डिग्रियां प्राप्त थी , कुछेक कामकाजी भी मगर उनकी बातचीत का दायरा वहीँ तक सिमित था।  जल्दी ही वह ऊब जाती , अलबत्ता उसके पास समय भी नहीं होता था अधिक देर इनका हिस्सा बनने का ....

आम स्त्रियों से भिन्न शौक/मिजाज  रखने वाली निम्न अथवा उच्च  मध्यमवर्गीय स्त्रियों के मन का एक कोना किस तरह सूखा  अनछुआ सा रहता है .उससे नहीं मिलता तो शायद कभी जान भी नहीं पाता।  उसकी बातों ने , उसके चुप रह जाने ने , उसके चिल्ला पड़ने में , उसके हंसने ने , उसके मुस्कुराने ने मुझे बताया , समझाया। बस उसके आंसूं नहीं देखे मैंने . भरा गला और चेहरे की मुस्कराहट के साथ कुछ नमी जरूर थी कोरों पर मगर उसे आंसू नहीं कहा जा सकता था।

उसका नाम क्या था , क्या फर्क पड़ता है , भीड़ में शामिल भीड़ से अलग दिखने वाली कोई भी स्त्री हो सकती है वह. मध्यवय की मध्यमवर्गीय स्त्री जो अपने नाम का अपने होने का अर्थ ढूंढ रही हो वही स्त्री हो सकती है , हो सकती थी।

उस दिन जब मैं पहली बार उससे मिला था उस पार्क की बेंच पर बैठा उसे देखता दूर तक फ़ैली दूब  से तिनका तोड़ दांत में फंसाते जैसे कि  जिंदगी की तमाम नीरसता , व्यग्रता , बेचैनियों को खुरचती हो जैसे !

उस दिन बस मुस्कुराकर नमस्कार को नाराजगी से अनदेखा करने वाली स्त्री कभी इतनी घुली मिली होगी मुझसे कि  मैं उसके वय और परिवेश की स्त्रियों की मानसिक स्थिति का अंदाजा भी लगा सकूंगा  सोचा नहीं था मैंने।
उस दिन उसकी नाराजगी पर  मुस्कुराते हुए मैंने कहा था ,
शुक्र है आप बोली तो …
मैं अजनबियों से बात नहीं करती! त्योरियां अभी चढ़ी ही हुई थी।
मगर हम अजनबी नहीं है , कितने समय से तो एक दूसरे को देख  रहे हैं यहाँ !
क्या मतलब , मैं यहाँ किसी को देखने -दिखने नहीं आती।
जी , आप तो यहाँ लॉन की दूब  कुतरने आती हैं। मैंने लॉन के एक हिस्से से उखड़ी हुई दूब  की ओर इशारा किया।
इस बार वह कुछ झेंपी सी थोड़ी अधिक ही  मुस्कुराई।  पहली बार उसके चेहरे की ओर ध्यान से देखा मैंने , गेंहुए रंग पर कुछ गोल सा चेहरा, घनी पलकों वाली सम्मोहित करती सी बड़ी काली आँखें , मुस्कुराते गालों पर पड़े हुए भंवर... एक सामान्य चेहरे मोहरे से कुछ अधिक आकर्षक . बहुत  खूबसूरत  नहीं कहूँगा क्योंकि अपने इस जीवन काल में बहुत खूबसूरत लड़कियां देखी मैंने , लम्बे अंडाकार चेहरे वाली दूध सी गोरी लड़कियां , संतरी फांकों से गुलाबी होठों वाली पहाड़ी लड़कियां तो  लम्बी पतली तरासी हुई अँगुलियों से गालों पर उतर आई लटें संवारती सैंडिलों को खटखटाती आधुनिकाएं भी। वह इतनी खूबसूरत नहीं थी ! मगर उसकी छोटे बच्चों जैसी भोली कोमल मुस्कराहट बहुत प्यारी थी।   बेध्यानी में मैं एक बारगी उस  मुस्कराहट में अटक सा गया , मगर जब उसने भोंहे तरेर कर आँखें सिकोड़ी तब अपनी बेहूदगी पर लज्जित होता दूसरी ओर देखने लगा।

उस दिन बातचीत का  वह सिरा पकड़ने के बाद हम अब तक बातों के पालने बुनने लगे थे। अपनी शिक्षा , बच्चों की बातें , शरारतें , अपने शौक , राजनीति , खेल , फ़िल्में जाने कितनी दुनिया जहां की बातें करते हम।  कई बार मैं खुल कर हँसता उसकी बेवकूफियों भरी बातों पर , कभी चिढ़ता भी तो कभी सरल सहज सी बातों में उसकी दार्शनिकता ढूंढ लेने पर  अचंभित भी होता।  सामान्य से  दिखने वाले लोग सामान्य से अधिक ही चौंकाते हैं कई बार।  हालाँकि आम स्त्रियों की तरह ही उसे गुलाबी रंग बहुत पसंद था , गीत- संगीत भी ,  फूलों और बच्चों से भी उसका प्यार वैसा ही था जैसा की  स्त्रियों को होता है, मगर कहीं कुछ अलग था, अलग लगता था, बस बता नहीं सकता क्या। .... यही कहूँगा पता नहीं !

तो  आज जब मैंने कहा कि  हम सब कुत्ते हैं ! तब भी वह मुस्कुराई मगर मैं जान गया था कि उसने क्या कहा था।

तुम लड़कियां अजीब होती हो , सोचती कुछ हो , कहती कुछ हो और करती कुछ उससे अलग ही हो !

खुद का पता है ! तुम सब एक जैसे होते हो तुम्हारा शब्द इस्तेमाल नहीं करुँगी मगर ! वैसे तुम्हारी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि मैं लड़की नहीं हूँ .अपने पति के दो प्यारे बच्चों की अम्मा हूँ!  अपने मातृत्व के गर्व से गर्दन टेढ़ी कर वह इतरा- सी जाती।
क्यों ! क्या अम्माएं लड़कियां नहीं होती ! सीधे अम्मा ही जन्म लेती हैं !
 तुम्हे कैसे पता यह सब  , तुम्हारी तो शादी नहीं हुई न ! वह तीखी नजर से देखती!
पता चल जाता है ! मैं चिढ़ाता उसे !
कैसे पता चल जाता है , बताओं न … उसे अपने शब्दों  के द्विअर्थी होने का भान ही नहीं होता   मगर जब मैं शरारत से मुस्कुराता तो खिसिया सी जाती … तुमसे तो बात करना ही बेकार है , दिमाग में भूसे की तरह बस एक ही चीज भरी होती है।
अच्छा ! कौन सी एक चीज !
वह  इस तरह दांत पीसती मानो कच्चा ही चबा जाएगी।

सब जानता था मैं उसके बारे में ! उसका छोटा सा घर ... प्यार करने वाला पति ...स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे मगर अपने बारे में कभी कुछ कहा नहीं मैंने।
एक दिन जिद पर अड़ ही गयी ...
तुम बहुत आत्मकेंद्रित हो . कभी अपने परिवार और बच्चों के बारे में बात ही नहीं करते।
मैं क्या कहता … कई बार पूछने पर एक दिन झूठ बोल दिया मैंने।  मेरी शादी नहीं हुई अब तक !
उसे हैरानी जरूर हुई थी मगर वह इसे  सच मान बैठी थी।

क्यों नहीं की शादी अब तक तुमने ! किसी ने  धोखा दिया क्या !
क्या बताता कि  मुझे धोखा किसी और  ने नहीं स्वयं मेरी किस्मत ने दिया था।

क्यों करोगे तुम लोग शादी ! तुम्हारी आवारगी पर बंधन जो लग जाएगा इसलिए ही न .... मगर इस बंधन से तुम लोगो को क्या फर्क पड़ता है . घर में उसे बिठाकर बाहर तुम्हारी मटरगश्तियाँ तो उसी प्रकार चलती हैं . घर  में तुम लोगों को सती सावित्री , शांतचित्त , सुघड़ गौ सी स्त्री चाहिए मगर घर से बाहर तुम उनकी तारीफों में मरे जाते हो जो स्मार्ट , तेजतर्रार , महफ़िलों की शान लगती हो।
ओह अच्छा ! तुम्हारा पति भी करता है यही सब !
शटअप  , वो ऐसे नहीं है . बहुत मेहनत करते हैं हमारी छोटी सी गृहस्थी की गाडी खींचने को !
अच्छा , तो तुम कैसे जानती हो पुरुषों के बारे में यह सब ....
लो इसमें जान लेने का क्या है , दिखता  है न हर तरफ !
 मैं गोल घुमाता बात बदल देता , वह कई बार कोशिश तो करती कि मेरे जीवन का कोई सिरा  पकड़ सके। मगर सैनिक जीवन के अभ्यास ने ही शायद इतनी दृढ़ता दी थी कि मैं अपने गम भुलाकर दूसरों को हंसा सकता था।
मैं उसे हँसते देखना  चाहता था हमेशा , क्यों पता नहीं ! और सिर्फ उसे ही नहीं ., मैं सभी को खुश देखना चाहता था हमेशा।  खुशियों की कितनी छोटी सी उम्र देखी थी मैंने ! मैं जानता था उनकी अहमियत और हैरान हुआ करता था जब लोगो को  छोटे मामूली मसलों पर टन भर मुंह लटकाये देखता था।
 उससे भी शायद मेरी इसलिए ही अधिक बनती थी कि  वह मुस्कुरा सकती थी फूलों को खिलते देख , बच्चों की हंसी के साथ खिलखिला सकती थी , कितनी ही बार चहकते देखा मैंने उसे जब वह किसी की छोटी सी भी मदद कर पाती , कभी रसोई में अपने नए प्रयोग पर ही खुश हो लेती।
 एक दो बार ही अनमना सा देखा मैंने उसे - दो छोटे बच्चों को खेलते देख मुग्ध निहारते कुछ उदास सी ! मैंने लक्ष्य किया उसकी उदासी को तो बोल पडी , मुझे बच्चों की याद आ रही है ! हर दिन मुझे हैरान करने की उसकी यह  हरकत थी।  रोज घर से गायब रहना एक घंटे के लिए , इस पार्क में यूँ ही बैठे , अब तक जान नहीं पाया था मैं।
 तो घर चली जाओ , यहाँ क्यों बैठी हो।
 नहीं , अभी नहीं जाना है मुझे घर।  बच्चों को कुछ देर अकेले भी रहना चाहिए न !
इस रहस्य की गुत्थी मुझसे सुलझती न थी. एक दो बार लेकर भी आई थी वह उन्हें साथ ही ., दो छोटे से बहुत ही  प्यारे बच्चे थे उसके .,मोनू और स्वीटी।   पहले कुछ दिनों में जितनी चुप उदास -सी दिखी ... वह स्त्री स्वयं वही नहीं थी।

शुक्रवार, 27 जून 2014

द्विरागमन .... (1)




"We All are Dogs !"
कह दिया मैंने और उसकी प्रतिक्रिया को परखता रहा।  पिछले जितने समय से उसे जानता था उसे लगा था कि वह  बुरी तरह चिढ़ेगी , चीखेगी और कहेगी कि  इसमें क्या शक है ! 
मगर नहीं! एक सेकण्ड के लिए उसके चेहरे का रंग बदला और फिर से वही  स्निग्ध मुस्कराहट लौट आई थी।
बात चल रही थी उसके पति की .  अपनी धुन में डूबी हुई सी वह बता रही थी उसके पति के बारे में . वह मितभाषी है , ईमानदार है , दिल बहुत बड़ा है उनका …  
मैं उसे चिढ़ाना चाहता था या फिर उसका भ्रम दूर करना चाहता था  पता  नहीं क्यों . मैं देर तक  सोचता रहा था  उसके जाने के बाद कि  आखिर क्यों। … 
मैं जवाब नहीं जानता था या  जो जानता था उसे झुठलाना चाहता था। । पता नहीं , क्या , क्यों।
अचानक हंसी आ गयी मुझे। 

उस दिन पूछ लिया था था मैंने. आखिर तुम अपनी  जिंदगी से चाहती क्या हो।
पता नहीं!
तुम जिंदगी से खुश हो!
पता नहीं!
तुम नाराज हो!
पता नहीं!

मुझे झुंझलाहट होने लगी थी। तुम्हे कुछ पता भी  होता है !
अभी मैं इस समय यहाँ तुम्हारे साथ हूँ , तुम रखते हो न सब पता… 
और उसकी  खिलखिलाहट में मेरी झुंझलाहट जाने कहाँ ग़ुम  हो गयी।
मैं चिढ़ता हूँ खुद पर  उस पर-  गुस्सा हो तो खिन्न दिखना  चाहिये मगर  नहीं, उसे तो मुस्कुराना या  कहकहे ही लगाना है हमेशा। 
और आज मैं था जो हर बात पर कहता था.… पता नहीं !
इतनी देर से बात कर रहा हूँ उसके बारे में। 
वह कौन! कौन थी वह !कहाँ से आई थी ! कौन थी वह मेरी !
इस अनजान  शहर में चला आया था सबकुछ छोड़कर , या कहूँ छूट गया था …

अपने बारे में क्या लिखूं , उसकी ही बात करता हूँ.  इस  नए शहर की वसंत ऋतु की  एक दोपहर रही होगी . उस बाग़ की एक बेंच पर बैठा यूँ ही कर रहा था जिंदगी का हिसाब- किताब .  पता नहीं चला था कब सामने आ बैठी थी वह बेंच से थोड़ी दूर . पार्क की दूब पर बैठी तिनके तोड़ कर दांत में कुरेदती जैसे कुछ फंसा था  उसके दांत में ! 
नहीं , कुछ अटका हुआ जेहन में जैसे कुतरती जाती थी।

मेरी नजर कैसे पड़ी उस पर . शायद वहां खेलते दो बच्चों की बॉल उसके सर पर जा लगी थी . बच्चे डरे सहमे उसके पास जा खड़े हुए थे . उसने हलकी सी मुस्कराहट के साथ बॉल उठाई और दम  लगा कर दूर फेंक दी। बच्चे हुलस  कर बॉल के पीछे भागे और वह फिर उदास सी दूब कुतरती रही दांतों में जैसे कि  जिंदगी की मुश्किलात को कुतर देना चाहती हो।

क्या सूझा मुझे मैं अपनी जिंदगी के हिसाब किताब बंद कर उसकी ओर  देखने लगा।  एक अनचीन्ही सी मुस्कराहट लिए बैठी रहती है रोज उसी स्थान पर कभी मेरे आने से पहले , कभी आने की बाद से। कभी किसी को  देख मुस्कुरा देती मगर कुछ कहती नहीं  . कभी हाथ में पकडे काले क्लच के बटन को खोलती बंद करती , कभी घडी में समय देखती , कभी अँगुलियों पर कुछ गिनती। … एक सप्ताह  हो गया था मुझे उसे इसी प्रकार देखते। अपनी आँखों के सामने पड़ने वाले दृश्य से बिना  जाने कब हमसे  रिश्ता  बना लेते हैं .  जाने कब हमें उनकी आदत हो जाती है।  रोज देखते हुए उसे मुझे भी  उत्सुकता होने लगी थी . कौन है यह स्त्री ! किसी से बातचीत नहीं बस कभी अपने में खोयी तो कभी दूसरों को निहारती चुपचाप एक निश्चित समय तक ,. उसके बाद उठकर धीमे क़दमों से चल देती।

अपनी शांति को दरकिनार रख मेरा मन करने लगा  था  कुछ बातचीत करने को ,. किसी से भी  पास से गुजरते चने या आईसस्क्रीम वाले को रोक उससे जोर से बातें करता ,  मगर वह निस्पृह सी दूसरी और निगाह  किये जाने क्या तलाशती लगी मुझे।  बात करना चाहता था मैं उस ख़ामोशी से जो उस हरी दूब के मखमली लॉन  से  इस बेंच के दरमियान पसरी रहती थी. संकोच भी था कहीं वह मुझे  असभ्य न समझ बैठे।

मौका मिल गया था उस दिन बातचीत का जब फिर से एक बॉल आ टकराई थी उसके क्लच से होते हुए मेरी बेच तक !
मैंने मुस्कुराकर उसे नमस्कार कहा-  रोज देखता हूँ आपको यहाँ !
हूँ -  उसके शब्दों के रूखेपन में टोकने पर टरका  दी जाने वाली की नाराजगी ने मुझे आगे कुछ कहने से रोक लिया !
 भीतर कही जिद जोर मारने लगी . शायद मेरे भीतर का पुरुष  जानवर क्यों न कहूँ .  एक स्त्री की उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। कहीं भीतर मेरे सम्मान को चोट तो नहीं लगी यह देखकर कि  मुस्कराहट का जवाब भी मुस्कुराहट से नहीं दिया  गया। अब मेरी जिद मेरी ख़ामोशी को पीछे धकेलते वाचालता में तब्दील होती जाती थी।  उससे बेखबर होने का दिखावा करता मैं कभी बॉल खेलने वाले बच्चों से  कभी कुल्फी या चना  वालों से जोर से बातें करता . बिना बात कहकहे लगाता मगर इतने दिनों बाद भी उन आँखों में पहचान या होठों पर मुस्कराहट नहीं उभरी। 
मैं समझ नहीं पाता  था , क्यों चाहता था मैं ऐसा। ऐसा कुछ ख़ास तो नहीं था उस स्त्री में . उसके सामान्य कद जैसा ही सामान्य पहनावे में लिपटा  .... किसी भी स्त्री को देखकर ही प्रभावित हो जाने वाला या उनके आगे पीछे चक्कर काटने जैसा चरित्र मेरा नहीं था. अपने  सैनिक जीवन के  औपचारिक  माहौल में जमने  वाली  अनौपरिक बैठकों में खूबसूरत ग्लैमरस तेजतर्रार  पार्टी की शान बनी तितलियाँ कम  नहीं देखी थी मैंने , देखने से लेकर मित्रता , साथ घूमना और वह सब भी जो सामान्य जीवन में अनैतिक माना जा सकता था … शायद एक सामान्य सी स्त्री द्वारा उपेक्षित किये जाने   ने ही मुझे कही भीतर नाराज किया था। जिस व्यक्ति को आप रोज देखते हो दिखते हो !  बात न करे पहचान आगे न बढ़ाये मगर सामने पड़ने पर मुस्कुराया तो जा सकता है !

उसे मुस्कुराता देखने की मेरी नाकाम कोशिशें मुझे चिढ़ाती जाती थी।  अपने व्यवहार की तबदीली पर हैरान मैं स्वयं पर झुंझलाता  था  और एक दिन जब यह झुंझलाहट हद से बढ़ी तो मैं पास से गुजरते कुल्फी वाले को जबरन रोककर उसे सुनाने की गरज से जोर से  बोल पड़ा , जब लोगो को किसी से बात नहीं करनी होती , किसी से घुलना मिलना पसंद नहीं होता तो घर से बाहर ही क्यों निकलते हैं।  सार्वजानिक स्थानों पर आने  की क्या आवश्यकता है , अपना कमरा बंद कर पड़े रहे न घर में !
इस बार पलटकर देखा उसने।  जाने कैसी सख्त निगाहें थी - सार्वजानिक स्थान किसी की बपौती नहीं , और  लोग  हर किसी से बातें करने के  लिए यहाँ आते भी नहीं।
मेरा तीर निशाने पर लगा था .  गुस्से से तिलमिलाती ही सही कुछ कहा तो उसने ! 

उस शाम से लेकर अब तक जाने कितनी शामें थी हम रोज ही आते मुस्कुराते  बातें करते .  वह बताती अपने बारे में , अपने पति , अपने बच्चों के बारे में , और मैं सुनता , कभी कुछ पूछ भी लेता … 
जाने कब  बीच की अनौपचारिकता की दीवार ढही मुझे या शायद उसे भी पता नहीं चला नहीं होगा  जब भी मैं उस दिन की तल्खी की बात सोचता हूँ।

आज वह गुस्से में तिलमिलाई नहीं  मगर उसके शब्दों में पर्याप्त तीखापन था - हंसी आ रही  है मुझे कि एक पुरुष मुझे यानि एक स्त्री को यह बता रहा है!
उसकी आँखों में अभी भी वही पहले से सख्ती जैसे कह रही हो मुझे कि हम स्त्रियां बेहतर जानती हैं कि तुम कुत्ते ही होते हो मगर अगले ही पल  फुर्ती से लौटी उसी स्निग्ध मुस्कराहट ने अपने शब्दों पर पर्याप्त  बल  देकर कहा - नहीं , वे ऐसे नहीं है ! सब ऐसे नहीं होते !
मत  मानो अभी  . एक दिन तुम मानोगी तब मुझे याद करोगी।
तुम्हे याद तो मैं यूँ ही कर लूंगी . कुत्तों के बहाने क्यों !
उसकी तिरछी नजरों के साथ  खिलखिलाहट  का अंदाज बात वहीं समाप्त कर देने जैसा था ! मगर बात समाप्त नहीं हुई  थी वहां।
मुझे लगता था कहीं भीतर से आती उसकी आवाज - तुम सब कुत्ते ही होते हो , सब एक जैसे।  गोश्त चूस लेने के बाद हड्डियां चुभलते रहने वाले कुत्ते , तुम्हारी भौंक बस हड्डी मुंह में रहने तक ही बंद रह सकती है।  
मैं काँप रहा था इस अनकही को सुनते . उसने तो कुछ कहा नहीं था।  कहीं मेरे मन की ही बात तो मेरे कानों में नहीं उड़ेली जा रही थी उसके अनकहे शब्दों में।  अपने आप को हमसे बेहतर और कौन जान सकता था! 
अपनी बेरहमी और बेशर्मी से घबराया मैं उसी बाग़ के दूसरे कोने पर लगे फूलों और बच्चों को देख मुस्कुरा दिया. अपने भीतर के पशु को छिपाते सांत्वना देता मनुष्य को !

मुझमे अभी बाकी है जिंदगी . रहेगी भी ! यकीन दिलाता स्वयं को।  वह थी ही ऐसी . बुरी तरह कुरेदती  अपने शब्दों से भीतर को बाहर खड़ा कर देती  जैसे कि आईने में अपना अक्स नजर आ रहा हो।

क्रमशः

(चित्र गूगल से साभार )

गुरुवार, 22 मई 2014

संत हृदय नवनीत समाना ....

सद्जनों की संगति आचार /विचार और व्यवहार में परिवर्तन लाती ही है , ऐसे लोग संख्या में कम होते हैं जिन पर इसका विशेष प्रभाव नहीं होता ! माँ के पूज्य फूफाजी विद्वान शिक्षक थे।   जब कभी  छुट्टियों में घर आते , फुर्सत मिलते ही किताबें मंगवा कर प्रश्न पूछते , और न आने पर विस्तार से समझा भी देते हालाँकि ये स्मृतियाँ  उन दिनों की है जब ऐसा होता नहीं था कि हमसे कोई प्रश्न पूछा जाए और हम उसका उत्तर दे न सकें . उन दिनों शिक्षा से जीविकोपार्जन तो अवश्य होता था मगर वह व्यवसाय नहीं थी. हालाँकि एक दुक्का किस्से सुनने को मिल जाते थे सरकारी विद्यालयों के कि फलां शिक्षक ने छात्रों से फल , सब्जी , अनाज आदि मंगवाए।  शिक्षक के लिए शिक्षा देना विद्या का दान करने जैसा ही अधिक होता था . कोर्स की किताबों के सिवा नैतिक शिक्षा का ज्ञान भी अभिभावकों से अधिक गुरु से ही प्राप्त होता था . इसलिए पढ़ते हुए वे ज्ञान/ धर्म की चर्चा भी कर लिया करते थे . और हम तो ठहरे हम , जिज्ञासा और प्रश्न करते रहना तो अब तक इस अधेड़ावस्था में भी नहीं छूटा  तो तब तो बचपन ही था .

एक बार "कल्याण " पत्रिका से संस्मरण सुनाते हुए वे उपदेशकों पर चर्चा करने लगे . पंडितों /ज्ञानियों या सन्यासियों का सुख सुविधाओं का उपयोग करना मुझे आश्चर्यचकित करता ही था . वे किसी गुरु की अगवाई के किस्से सुना रहे थे . साधू महात्मा जी का बड़ी गाडी में आना , लाल कालीन बिछाकर उनका स्वागत करना  मुझे हैरान कर रहा था . उनके बड़प्पन का  लिहाज करते हुए भी मैंने पूछ ही लिया कि सन्यासियों को इस ठाठ बात की क्या आवश्यकता है . वे जनता को भोग लिप्सा से दूर रहने को कहते हैं , स्वयं क्यों डूबे रहते हैं !
मेरी शंका को समझ लिया उन्होंने . प्रत्यक्ष कुछ कहा नहीं , मगर एक दूसरा किस्सा सुना दिया अपने गुरु जी का . हुआ यूँ कि उनके गुरु जी को किसी अमीर शिष्य ने महँगी घड़ी भेंट की .  गुरु जी हर समय उस घड़ी को धारण किया करते।  उनके  एक शिष्य को बहुत अखरता।  कई दिनों तक वह देखता रहा , मन मे सोंचता रहा कि गुरूजी हमे तो माया मोह त्यागने का उपदेश देते हैं , मगर स्वंयं इतनी महँगी घड़ी पहने रखते हैं।  गुरूजी से उसकी मानसिक स्थिति छिपी नहीं रही।   उन्होंने शिष्य को पास बुलाया और कहा , मैं बहुत समय से देख रहा हूँ कि तुम कुछ पूछना चाहते हो , तुम्हारे मन मे जो भी शंका है , खुलकर कहो।  
शिष्य  ने झिझकते हुए पूछ  लिया - आप हमें भौतिक वस्तुओं के प्रति लालसा न रखने का उपदेश  देते हैं , मगर  स्वयं इतनी महँगी घडी पहनते हैं !
गुरूजी स्नेह पूर्वक मुस्कुराये, तुम्हे यह  घडी बहुत पसंद है !
किसे पसंद नहीं होगी , आपको भी है इसलिए आपने पहन रखी है।

गुरूजी  ने तत्काल घडी हाथ से उतारकर शिष्य को दे दी।  इसे हर समय पहने रखना !

अब शिष्य बड़ा  प्रसन्न हुआ।  मूल्यवान होने  के कारण  वह हर समय घडी पहने रखता मगर उसकी हिफाजत के लिए प्रयत्नशील भी बना रहता। घडी की देखभाल और चिंता में उसके दैनिक प्रभावित होने लगे। स्नान - ध्यान में विघ्न पड़ने लगा।  एक दिन स्नान के लिए जाते समय उसने घडी उतार कर रखी।  जरा सी आँख चूकते घडी अपने स्थान से गायब।  हर तरफ  हेर लेने पर भी  घडी का कही पता न चला ।  उसे बहुत दुःख हुआ और जार जार रोने लगा।  उसे भय भी था की गुरूजी  ने उसकी ख़ुशी को देखते हुए घडी प्रदान की थी और उसकी हिफाजत के लिए निर्देश भी दिए थे, मगर वह उसे संभाल न सका।  
एक  दो दिन के बाद गुरूजी की नजर उसपर पड़ी , वह फिर से वैसे ही उदास , चिंतित !
 गुरूजी  ने पास बुलाकर  उसकी उदासी का कारण पूछा।  सर झुकाया अश्रुपूरित नेत्रों के साथ उसने  घडी के खो जाने की बात बताई और साथ ही उनसे क्षमायाचना करने लगा।  
गुरु  जी ने उसे आश्वस्त किया  कि आश्रम से घडी कहाँ खो जायेगी , यही कहीं मिल जायेगी। साथ ही सभी शिष्यों  को बुलाकर घडी को तलाशने के निर्देश दिए।  खोजबीन करते आखिर एक शिष्य को वह घडी मिल ही गयी, किसी पेड़ की डाल पर लटकी।  शायद किसी पक्षी की करामात रही हो , या किसी शिष्य की ही !  
गुरु जी ने सभी शिष्यों को बुलाया , और  उनकी उपस्थिति में घडी ढूंढ  लाने वाले शिष्य से कहा.…   यह घडी तुमने  परिश्रम से ढूंढ ली है , इसलिए अब इसे तुम ही रख लो !
इस पर  पहले  वाले शिष्य का प्रतिवादी स्वर गूंजा - मगर यह घडी तो मेरी है , आपने इसे मुझे दिया था !

मगर यह घड़ी मैंने तुम्हे दी थी , जो मुझे भी किसी ने भेंट की  थी।   इस शिष्य ने तो इसे परिश्रम से प्राप्त किया है , इसलिए इसका अधिकार होना चाहिए ! गुरूजी के चेहरे पर स्मित मुस्कान थी।
मगर  दूसरे शिष्य ने भी घडी लेने  से इंकार कर दिया  यह कहते हुए कि  मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है।

अब पहले शिष्य को अपनी गलती का एहसास हुआ।  उसे समझ आया कि गुरूजी के लिए मूलयवान घडी का कोई मोल नहीं था. श्रद्धापूर्वक भेंट की गयी वस्तु को वे धारण तो किये हुए थे , मगर उनका उस घडी या वास्तु से कोई मोह नहीं था।

विद्वान शिक्षक भी मुझे समझा रहे थे। ऐसे ही सही मायनों में संत वे हुए जो किसी प्रलोभन अथवा मोह माया में अटकते नहीं।  उनका स्वागत किया श्रद्धा से , उन्होंने प्रेम से स्वीकार किया !  वे सुविधा के लिए लालायित नहीं हैं , ना प्रयत्नपूर्वक सुविधा प्राप्त करना चाहते हैं मगर इन अमीर  भक्तों को इस प्रकार आत्मसंतुष्टि मिलती है तो यही सही ! यदि वे सिर्फ झोपडी / मुफलिसी / असुविधा में रहने वालों को ही उपदेश देते रहेंगे तो सुविधाभोगी उन तक पहुंचेंगे ही नहीं।  जबकि इस वर्ग में सद्विचार का प्रसारण अधिक आवश्यक है ताकि वे गरीबों/वंचितों  के कष्ट  का कारण समझें , कष्ट को समझे और उसके निराकरण में अपना सहयोग कर सकें। उनमे सद्विचारों का रोपण उनकी सुविधाजनक स्थितियों में ही करना होगा , वरना वे विमुख ही होंगे ! संत पानी में रहकर भी सूखे रह सकते हैं , सुविधाएँ उनके मार्ग का व्यवधान नहीं होती।  वे प्रत्येक स्थिति को ईश्वर प्रदत्त मानकर निरपेक्ष भाव से  रहते हैं।


नोट -  अनेकानेक तथाकथित धार्मिक/सामाजिक  संस्थाओं के सन्दर्भ में न पढ़े जो धर्म और समाज सेवा की आड़ में व्यभिचार और नाकारापन को बढ़ावा देती हैं !! 

शुक्रवार, 9 मई 2014

रोशनी है कि धुआँ..... (8 )



मध्यम वर्ग में पली बढ़ी तेजस्वी अपने तेज के दम पर ही आगे बढती आयी है , कार्यालय की मुसीबतों से लड़ कर विजयी होते इस बार उसने लडाई लड़ी अपनी सखी के लिए , साथ ही उस स्त्री के लिएभी  , जिसने बेटी के रूप में लड़कियों को ताना या निपटा दी जाने वाली जिम्मेदारी ही समझा था . 

अब आगे ...

                                   


मिसेज वालिया ने बेटी के दिन पर दिन पीले पड़ते चेहरे और खाना खाने की इच्छा नहीं होने को बिगड़ते रिश्ते के कारण तनाव और पढाई के साथ कॉलेज की भागदौड़ ही समझा था , मगर एक दिन जब कॉलेज से लौट कर बेहद थकान के साथ सीमा ने खाया पीया सब उलट दिया तो उन्हें चिंता होने लगी थी उसके स्वास्थ्य की भी . लेडी डॉक्टर ने बधाई के साथ जो सूचना दी , उसने एकबारगी उन्हें खुश भी किया था , शायद आने वाले बच्चे की ख़ुशी में परिवार के मतभेद सुलझ सके , मगर सीमा और अधिक चिंतित हो गयी थी . मिसेज वालिया यह खुशखबरी लेकर सीमा के ससुराल पहुंची तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था , सौरभ घर पर ही मौजूद था , वह दुबई से अपनी नौकरी छोड़ कर आ चूका था . उसके माता पिता ने बहुत अधिक प्रसन्नता न जाहिर करते हुए भी वे सीमा को अपने घर छोड़ जाने की ख्वाहिश प्रकट की , मगर सौरभ ने इस पर कुछ नहीं कहा और वहां से उठकर चला गया . उसी शाम  सीमा के फोन पर सौरभ का फोन आया तो जो थोड़ी बहुत उम्मीद बची थी , वह भी टूट गयी . नशे में फोन पर ही भारी गालीगगलौज करते हुए उसके चरित्र पर अंगुली उठाते सौरभ का यह रूप इससे पहले सीमा ने नहीं देखा था . सौरभ का यह रुख देखते सीमा तय नहीं कर पा रही थी कि वह आगे क्या करेगी , उसकी पढाई , करिअर , जीवन सब अधरझूल में था . अँधेरे आंसुओं में डूबते एक रात पेट में उठे भीषण दर्द ने उसे अस्पताल पहुंचा दिया , आने वाली जिंदगी ने खुद अपना रास्ता तलाश कर लिया था , उसने मुक्त कर दिया सीमा को. यह खबर जब सीमा के के ससुराल पहुंची तो तीनो प्राणी चीख पुकार उठे कि उनके खानदान के वारिस को जानबूझकर इस दुनिया में आने नहीं दिया गया . सीमा और उसके माता पिता हैरान थे कि कल तक जिस बच्चे को स्वीकार ही नहीं किया जा रहा था , वह इतना अजीज हो गया आज कि उसके न होने का कारण भी सीमा के मत्थे ही मंड दिया गया . मगर सीमा के लिए मुश्किलें यही समाप्त नहीं होने वाली थी , हॉस्पिटल से घर पहुँचते उसके सामने कानूनी नोटिस था जिसके अनुसार वह घर के कीमती जेवर और रुपयों के साथ लापता थी . उस नोटिस का जवाब देने के लिए वकील से मिलने जुलने का दौर चल रहा था इन दिनों !गहरी सांस लेकर सीमा ने अपनी कहानी समाप्त की .  उत्पीडन और शोषण के अनेकानेक केस से रूबरू होने के बाद भी तेजस्वी को इस मामले में कुछ कहना सूझा नहीं . खिड़की से बाहर देखा उसने , बाहर घिरता अँधेरा उसके दिल में घर करने लगा था जैसे मगर  अपनी सखी से सब कहकर सीमा का मन हल्का हो गया था .  अब वह बहुत संयमित लग रही थी .
चलती हूँ अब , बहुत रात हो गई सी दिखती है .
सॉरी , यार . तुम दिन भर से थकी मांदी लौटी थी , अपना दुखड़ा रोने में मैंने यह ध्यान ही नहीं रखा .
कोई बात नहीं  , मुझे अच्छा लगा कि मैं तुम्हारे लिए इतनी विश्वसनीय हूँ कि तुम बेहिचक सब कह सकी . चिंता मत करो , सब ठीक ही होगा . अपनी परीक्षा की तैयारी अच्छी तरह करो , कुछ मदद चाहती हो तो भी कहना .
अवश्य ही , खाना खा लो बेटा. मिसेज वालिया उसे बड़े स्नेह से कह रही थी . उनके शब्दों की आर्द्रता ने छुआ तेजस्वी के मन का कोई कोना , बीत कुछ वर्षों की कडवाहट जो उसने कभी जाहिर नहीं की थी , घुल कर बह गयी जैसे उसमे .
नहीं आंटी , माँ इन्तजार करती होंगी . आप सीमा का ख्याल रखिये . मैं अभी चलती हूँ ....स्नेह से भरी तेजस्वी  ने जवाब दिया और दरवाजा खोल कर बाहर निकल आई . माँ-पिता और भाई बहन खाने पर लिए उसका ही इन्तजार कर रहे थे . माँ ने कुछ पुछा नहीं , सिर्फ खाना परोसती रही . तेजस्वी को माँ की यह बात भी बहुत पसंद आती है कि वे चुप रखकर सुनने का इन्तजार करती है . खाने के बाद बालकनी में बैठी माँ बेटी देर रात सीमा की परेशानियों पर विचार करती रही , क्या हल निकलेगा इसका !!
अगला दिन बहुत व्यस्त था तेजस्वी की लिए , सीमा के माता पिता के साथ वह भी वकील बत्रा से मिलने चली गयी थी. उन्होंने सीमा को कोर्ट में प्रताड़ना का केस दर्ज करवाने की सलाह दी मगर वह इसके लिए तैयार नहीं थी . उसके मन में हलकी सी उम्मीद थी कि वह सौरभ से मिलकर बात करेगी तो शायद बात संभल जाए . आखिर तेजस्वी के प्रयासों के फलस्वरूप मध्यस्थ की सहायता से सीमा के कॉलेज में सौरभ का आना तय हुआ क्योंकि वह उसके घर आने के लिए बिलकुल तैयार नहीं था . सौरभ सीमा से मिलने कॉलेज पहुंचा तब भी नशे में ही धुत था . सीमा ने  अपना पक्ष समझाने की बहुत कोशिश की , मगर सौरभ टस से मस ने हुआ.  सीमा का हाथ पकड़कर ग्राउंड में ले आया और चीखने चिल्लाने  लगा ,  कॉलेज के अन्य साथियों ने भरसक प्रयास कर उसे चुप कराया और उसकी गाडी में ले जाकर बैठाया . सुलह की यह आखिरी कोशिश नाकाम हो गयी थी , मगर पास ही मौजूद तेजस्वी के कैमरे में उसकी हरकतें कैद हो चुकी थी . तेजस्वी ने जब यह मिसेज वालिया और उनके परिवार को दिखाया तो वे समझ गए कि अब सुलह की कोई गुन्जाइश नहीं रही हालाँकि वे यह भी जानते थी कि कोर्ट में सीमा के चरित्र हनन की कोशिशों को सामना करना इतना आसान नहीं था . तेजस्वी ने अपने कैमरे की गवाही के साथ ही सौरभ की नशे की आदतों , बुरे व्यवहार  एक मजबूत पक्ष अवश्य खड़ा कर लिया था . तेजस्वी ने सीमा को कुछ बताये बिना ही उसके सास ससुर से अपने सुबूतों के साथ संपर्क किया तब वे समझ चुके थे कि अब सीमा को कोर्ट में बुलाना उनके लिए मुसीबत हो सकता है . वे हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगने लगे और सीमा को वापस ससुराल बुला लेने की बात भी कर उठे .  तेजस्वी जानती थी कि उसके लिए इस तनावपूर्ण  तकलीफदेह व्यवहार को भूला पाना संभव नहीं होगा मगर वह सीमा से मिलकर ही आखिरी फैसला करना चाहती थी . सीमा ने सौरभ के साथ आगे जीवन बिताने में असमर्थता प्रकट की . आखिर तय यह हुआ कि आपसी सहमति के आधार पर तलाक लिया जाएगा , और सीमा के विवाह में होने वाला खर्च , दहेज़ में दिया गया सामान सहित  उसका स्त्रीधन उसे वापस दिया जाएगा . भरण पोषण के लिए सौरभ से रकम लेने में सीमा की कोई रूचि नहीं थी .
तेजस्वी को सीमा के लिए दुःख अवश्य था कि मात्र 24 वर्ष की उम्र में उसने क्या नहीं देखा , मगर फिर भी उसके मुश्किल समय में मददगार होने का आत्मसंतोष भी था.
मिसेज वालिया को समय ने सबक दिया है कि बेटी का विवाह हो जाना ही कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है , उनके सामने सपनों , महत्वाकांक्षाओं का विस्तृत संसार है , उनका साथ देना है , उत्साह बढ़ाना है .जब तब तेजस्वी की सहायता से  गदगद हुई जाती बलईंयाँ लेती हैं , बेटी हो तो तेजस्वी जैसी !
सीमा के जीवन में भी धीरे- धीरे खुशियाँ लौट आएँगी . कडवे दुखद समय को भूलने में कुछ समय तो लगेगा ही . समय ने उसे सिखाया है बहुत कुछ ....
तेजस्वी ने जो बाहर की दुनिया में सीखा , सीमा को घर की चाहरदिवारियों ने ही सिखाया . चुनौतियाँ , कठिनाई , कहीं भी कम नहीं !
अब मिसेज वालिया नहीं करती किसी पर कटाक्ष , यही कहती नजर आती है - बेटी है तो क्या , पढाओ लिखाओ , अपने पैरों पर खड़ा करो , जीने दो उन्हें अपनी जिंदगी , शादी /विवाह भी समय पर हो ही जायेंगे !!
तेजस्वी की एक और यात्रा पूर्ण हुई , हालाँकि चुनौतियों का सफ़र सतत है . उसे अभी अपने जीवन के अनगिनत सोपान इसी दृढ़ता और साहस के साथ तय करने हैं !!
धुंए के पार रोशनी है , विश्वास और  दृढ़ता कायम रहे तो धुंध को चीर कर रोशनी की लकीर पहुँचती ही है !!

(पूरी कहानी को दो भागों में एक साथ यहाँ भी पढ़ा जा सकता है )


चित्र गूगल से साभार!


शनिवार, 19 अप्रैल 2014

रोशनी है कि धुआँ..... (7)





तेजस्वी के जेहन में कौंधी माँ की शंका जो उन्होंने सीमा की सगाई के समय व्यक्त की थी ," तुम्हे सीमा के ससुर का स्वभाव कैसा लगा ".
सीमा कहते हुए कुछ देर के लिए रुकी थी और तेजस्वी सोच रही थी ये माताएं सचमुच अंतर्ज्ञानी होती है . बचपन में उनसे छिप कर की जाने वाली शरारतें भी वे झट से ताड़ लेती थी .किचन में से आवाज लगा लेती , तुम लोग सोफे पर क्यों उछल रहे हो , दूध का वेशिन में उड़ेल दिया न . बच्चे हर बार हैरान हो जाते .  माँ , आप एक साथ क्या- क्या कर लेती हो . आपको सब कैसे पता चल जाता है . ममता से भरी माँ मुस्कुराती . बच्चों के जन्म के समय ईश्वर माँ की पीठ पर भी आँख उगा देते हैं और चार अदृश्य हाथ भी देते हैं . कुछ भी शरारत करते उन्हें याद रहता कि  माँ की पीठ पर लगी आँखें उन्हें देख रही है .

सीमा की आवाज जैसे किसी अंधे कुंए से आ रही थी . उसे ससुराल में अजीब सा भय लगने लगा था हालाँकि वह अपने आप को समझाती कि कहींं उसका भ्रम तो नहीं रहा . कहींं उनके स्नेह को उसने गलत अर्थ तो नहीं दिया.  यदि ऐसा हुआ तो कितना बड़ा पाप अपने सर पर ले रही है वह . हर समय कशमकश अथवा अपराधबोध  में घिरी रहती .  एक दिन बेडरूम से अटैच्ड बाथरूम से बाहर निकल बेध्यानी में साड़ी पहनते जब उसकी नजर दरवाजे पर गयी तो उढ़के दरवाजे के पास एक साया सा नजर आया . वह धीमे चलते कमरे से निकल कर किचन तक आई तो फ्रिज में ठन्डे पानी की बोतल निकलते उसके ससुर सास से चाय बनाने की फरमाईश करते नजर आये . वह घबराई पसीने से भरी उलटे पैरों  कमरे तक पहुंची और अनुमान लगाती रही कि उसके कमरे के सामने से होकर रसोई तक जाने में कितना समय लगता लगेगा!

 एक बार फिर उसने डरते हुए भी  स्वयं को धिक्कारा . नहीं . इस तरह की शंका व्यर्थ है . मगर मन में बैठे भय ने कमरे में रहते उसे दरवाजे की सांकल बंद रखने को मजबूर कर दिया . यदि दरवाजा खुला रहता तो हर समय सावधान रहने की उसकी कोशिश न उसे सोने देती , न ही किसी काम में मन लगा पाती . अपने मन की शंका को अपने साये तक से भी छिपा कर रखना और अपनी संभावित गलत दृष्टि के अपराधबोध  और चिंता में डूबे उसका स्वास्थ्य गिरता जाता था . आँखों के नीचे काले घेरे होने लगे . सीमा अपनी स्थिति का बयान किसी से नही कर सकती थी . घर में काम करते हर समय घबराए ,चौकस रहते उससे काम में गलतियाँ होती जाती . कभी कप गिलास टूट जाते. रसोई से डायनिंग टेबल तक लाते खाने के डोंगे गिर जाते . डोर बेल बजने पर हर प्रकार से निश्चिन्त होने पर ही खोलने की उसकी आदत , घर में अकेले न  रहने का इसरार , सास अब उससे नाराज रहने लगी थी .
छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए सौरभ के घर आने से उसे कुछ राहत मिली क्योंकि वह ज्यादा समय घर में ही बिताता था. इस बार उसके व्यवहार में कुछ परिवर्तन भी था . देर से सही , कुछ खुशियाँ उसके हिस्से में आई तो . मगर जब छुट्टियों के बाद वह वापस काम पर जाने लगा तो सीमा ने उसके अच्छे मूड को ध्यान में रख कर अपनी पढाई मायके में रहकर पूरी करने की इच्छा प्रकट कर दी .
सौरभ इस पर सहमत नहीं था . उसके जाने के बाद मम्मी पापा के अकेले रह जाने की चिंता के साथ ही उनके बुरे मान जाने का भय भी था . फिर भी कुछ दिनों के अंतराल पर मायके आने -जाने और रहने की स्वीकृति देते हुए उसने अपने माता पिता को भी सूचित किया . सास यह सुनकर थोड़ी नाराज हुई . क्या तकलीफ है यहाँ इसे . अपना कमरा , अपना घर . कोई पाबंदी नहीं . लोग सवाल भी करेंगे , मगर सौरभ ने नई ब्याहता पत्नी के बिगड़ते स्वास्थ्य और अनुरोध की लाज रखते हुए माँ को मना ही लिया . सौरभ के जाने के बाद कुछ दिनों के लिए सीमा मायके रह आई . दाम्पत्य प्रेम की आभा, दुश्चिंताओं से मुक्ति और आराम . उसके चेहरे पर पुरानी रंगत लौट आने लगी थी .
एक सप्ताह बात पुनः लौटी ससुराल तो सास ,ससुर दोनों ही चहक उठे .
सुनती हो .  इसकी नजर उतार देना . और खूबसूरत हो आई हमारी बहू तो .
उसके ससुर अपनी पत्नी को सम्बोधित कर रहे थे. सास स्नेह से मुस्कुराई  मगर सीमा के चेहरे पर भय और सकुचाहट एक साथ उजागर हो आई .
दुश्चिंता और शक एक बार मन में घर कर जाए तो .व्यक्ति की सोच घड़ी की सूई की उलटी दिशा में चल देती है . हर कथन अथवा कार्य अपने विपरीत अर्थ में भाषित हो मानसिक कष्ट देता प्रतीत होता है . कहींं दोष उसकी सोच का ही हो . सीमा स्वयं को यह समझा साहस बटोर लाती .
एक बरसात के दिन सीमा कॉलेज से लौटी . रेनकोट और हेलमेट ने उसे पूरा गीला होने से तो बचा लिया था मगर फुहार ने मन का मौसम सीला कर दिया था . अपनी मस्ती में गुनगुनाते अपने कमरे की ओर बढ़ते उसके कदम ठिठक से गए .
आज फिर उसके श्वसुर घर पर ही थे . झिझकते हुए उसने पूछ ही लिया , आप अभी घर पर कैसे ! ऑफिस के काम से शहर से बाहर जाना है , पैकिंग के लिए जल्दी आना पड़ा . तुम थोड़ी देर आराम कर लो . फिर मदद कर देना .
मदद के नाम से सीमा की सिट्टी पिट्टी गुम थी . वह कमरे में गयी और तेजी से दरवाजा बंद कर लिया  . गीले कपड़े तक बदलने की इच्छा नहीं हुई उसकी . घबराई सी बैठी थी वह कि कब वे उसे पुकार ले ।  क्या कहकर वह कमरे से बाहर आने से मना करेगी , यही सोचती डरती सिमटी बैठी रही . कुछ देर में अपने दरवाजे पर खटखट की आवाज़ से तीव्र हुई उसकी धडकनों के कारण पैरों तक ने जैसे उसका साथ छोड़ दिया . उसने दबे पाँव दरवाजे और खिड़की की सांकल अच्छी तरह चेक की और आँखें बंद कर लेटने का नाटक करने लगी . एक दो बार की खटखट के बाद दरवाजे पर आहट बंद हो गयी और सोने का नाटक करते जाने उसकी आँख कब लग गयी, उसे पता ही नहीं चला  .
नींद खुलने पर उसने देखा खिड़की से बाहर शाम का धुंधलका छाने लगा था .
ओह , कितनी देर सोती ही रह गयी. साथ ही उसे अपना भय भी फिर से याद आने लगा .

नींद भी क्या अजब शै है. बड़े से बड़ा दुःख और भय नींद में महसूस नहीं होते . ऐसे समय में नींद आ जाना राहत देता है तन मन दोनों को . दुःख के हाथो कलेजे फटने से रह जाते है उनके जिन्हें नींद आ सकती हो . चिंता , आशंकाओ से घिरे भी नींद आ ही जाती है . मानव प्रजाति के लिए प्रकृति की यह महत्वपूर्ण देन है .

धीमे से द्वार खोल देखा उसने . किचन से खटर पटर आती आवाज ने उसे आश्वस्त किया कि सासू माँ लौट आई थी घर . कॉलेज से आकर भूखे ही सो गयी थी , भूख भी सताने लगी थी अब उसे .  वह रसोई की ओर बढ़ गयी . सास के चेहरे पर नाराजगी साफ़ झलक रही थी .
ऐसे भी क्या घोड़े बेच कर सोना आता है तुम्हे , घर में कोई आये कोई जाए , किसी से कोई मतलब नहीं . पापा ने कहा भी था मदद करने को मगर तुम अनसुनी कर जाकर सो गयी , ये क्या तरीका है . क्या कर रही थी तुम इतनी देर !
मुझे अकेले घर में डर लगता है .
अकेले कहाँ थी तुम . तुम्हारे ससुर थे न घर में  और अपने घर में किससे डर लगता है ! तुम्हे अपने मायके में डर नहीं लगता था कभी !
वह आगे कुछ न कह सकी .  बस पैर से जमीन कुरेदती सी चुपचाप खड़ी रही . उन्होंने सीमा से यह पूछना भी उचित नहीं समझा कि उसने खाना खाया या नहीं . पेट में कुलबुलाते चूहों की अनदेखी कर वह रसोई में सास का हाथ बंटाने लगी . मगर अच्छा यह रहा कि दो तीन दिन के लिए उसे भय से राहत मिल गयी थी .

सप्ताहांत का दिन उसके लिए मनहूस होने वाला था, उसने सोचा नहीं होगा . कॉलेज से लौटी ड्राइंगरूम में टीवी देखते सोफे पर ही  लेटी सीमा को नींद आ गयी थी . मेनगेट का दरवाजा कब खुला , कौन अन्दर दाखिल हुआ उसे कुछ खबर ही नहीं रही . गालों पर कुछ सरसराहट से चौंक कर उसकी नींद खुली तो स्तब्ध सीमा को कुछ सोचने में भी वक्त लगा . सोफे पर उसके करीब कोई बैठा था जिसकी गोद में उसका सर था. घबराकर तेजी से उठते हुए वह स्वयं से बहुत नाराज थी . इतनी निश्चिंतता से वह सो कैसे सकती थी . स्थिति समझ में आते ही अपना आपा खोकर उसकी चीख निकल पड़ी  .
आप यहाँ क्या कर रहे हैं . दरवाजा बंद था.  भीतर कैसे आये ?
चाबी थी मेरे पास . बेल की आवाज पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला तो लॉक खोलकर अन्दर आ गया . मगर तुम इतना घबरा क्यों गयी . तुम्हे सोते देख उठाना उचित नहीं समझा . तुम आराम करो .
अपना बैग उठाकर वे अन्दर चले गए. मगर सीमा के लिए अब इस स्थिति में उस घर में अकेले रहना संभव नहीं था . हर समय भय के साये में रहना उसे मानसिक रूप से थका रहा था . उसी शाम सौरभ भी लौटा . मगर सीमा को समझ नहीं आ रहा था कि किस प्रकार वह अपना भय सौरभ के आगे प्रकट करे .
यदि सौरभ ने उस पर विश्वास नहीं किया .  यदि उसका भय भी बेबुनियाद रहा , भ्रम रहा हो तो वह स्वयं से कैसे नजरें मिलाएगी . मन को मजबूत कर उसने सौरभ  से अपने मायके में रहने  या उसके साथ ही जाने की बात की तो सौरभ का सौम्य दिखने वाला चेहरा गुस्से से तमतमा उठा .
क्या मतलब है तुम्हारा . क्यों जाना है तुम्हे मायके रहने या मेरे साथ . यही रहना होगा तुम्हे मेरे मम्मी पापा के साथ . क्या परेशानी है तुम्हे यहाँ !
 सौरभ के तेज चीखने की आवाज सुन उसके माता पिता भी वहीँ आ गए थे . एकांत में कही अपनी बात  पर तेज चीख कर हंगामा करते देख सीमा अपमान और ग्लानि से भर  उठी .
क्या बात है सौरभ ! इतना क्यों चीख रहे हो . क्या हुआ ?
कुछ नहीं माँ .  सीमा अपने मायके रहना चाहती है या मेरे साथ .
सौरभ की माँ को बुरा लगाना स्वाभाविक था . थोड़ी नाराजगी भरे शब्दों में वे बोली .   घर में कुल तीन प्राणी हैंं . काम का कोई दबाव नहीं है . कॉलेज जाने की छूट है .  पूछो इससे ये फिर भी ये ऐसा चाहती है .

हाँ ! बताओ क्या परेशानी है तुम्हे यहाँ . क्या कहती सीमा.
परेशानी कुछ नहीं है  , मैं आपके साथ रहना चाहती हूँ.

सौरभ की माँ दुःख और क्षोभ में भर उठी . इतने चाव से बहू लेकर आये थे मगर पता नहीं था कि उसे हमारी आवश्यकता नहीं . वह हमारे साथ नहीं रहना चाहेगी . कुछ महीनोंं की ही गृहस्थी हुई है अभी और इनके अलग रहने के ख्वाब जाग उठे हैं . उनकी आँखों से बहते आँँसू ने सीमा को अपराधबोध से भर दिया . विवाह से पहले सौरभ के माता- पिता के व्यवहार से प्रभावित सीमा ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उसे इन परिस्थितियों का सामना करना होगा . अपने छोटे से घर में अपने पति और उसके माता -पिता के साथ रह उनकी खुशियों और दुखों को जीना और साझा करना ही ध्येय समझा था उसने . मगर अब हर समय इस भय के साये में सौरभ के बिना उसका उस घर में रहना असंभव था . सौरभ के मना करने के बावजूद उसके जाने के बाद अपना बैग उठाकर वह मायके चली आई थी . सौरभ को यह पता चला तो वह सीमा को फ़ोन कर उसने अपनी नाराजगी प्रकट की  और कभी घर वापस न लौटने का फरमान सुना दिया था .
उधर सौरभ को  बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्य करने के प्रयास में अंततः दुबई में नौकरी मिल गयी थी . दुबई जाने की तैयारियों के लिए हालंकि वह कुछ दिन के लिए अपने शहर आया मगर सीमा से मिलने या उसको बुलाने की कोई कोशिश नहीं की . सीमा को इस खबर का पता उसके किसी मित्र से तब पता चला जब वह दुबई जा चुका था .
सौरभ के बिना उसे ससुराल जाना मंजूर नहीं था और उसके दुबई चले जाने के बाद वैसे भी उसके रास्ते बंद हो चुके थे . मिसेज वालिया ने सीमा को समझाने की बहुत कोशिश की कि उसे ससुराल में रहना चाहिए अपने सास ससुर के साथ.  मगर सीमा के लिए नहीं जाने का कारण बताना इतना आसान नहीं था .
बेटी की जिद के आगे मजबूर उन्होंने एक दो बार उसके सास ससुर से मिलकर बात करने की कोशिश की मगर वे इसे पति -पत्नी के बीच का मामला बताकर दूर हो गए . अब जो भी बातचीत हो सकती थी , वह सौरभ के दुबई से लौटने पर ही संभव थी . सौरभ के लौटने का इन्तजार करते सीमा ने अपनी पढाई पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया . फाइनल सेमेस्टर की तैयारी में उसने रात दिन एक कर दिए .

क्रमशः .... अपने भय से मुक्ति पाने के लिए  लिए सीमा के उठाये कदम उसके लिए कितने घातक होंगे , वह स्वयं नहीं जानती थी , कौन उसके साथ होंगा , कौन नहीं !

चित्र गूगल से साभार ....

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

रोशनी है कि धुआँ … (6 )

  मध्यमवर्ग परिवार की तेजस्वी अपने संघर्ष और मेहनत  की बदौलत मिडिया में   कर्मठ व्यक्तित्व के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है।  नाम और यश प्राप्त कर अपने माता पिता और शहर का गौरव बनकर पुनः अपने शहर लौटी तो कुछ और चुनौतियाँ और संघर्ष उसकी बाट जोहते मिले .... 

धीमी सिसकियाँ आह भरे तेज रुदन में बदलते देर नहीं लगी . तेजस्वी  पास बैठी बस पीठ सहलाती रही , उसने सीमा को चुप करने का प्रयास भी नहीं किया . भीतर जमे दर्द को तेज हिचकोलों की जरुरत थी बहकर निकल जाने को वरना  जाने कब तक दबा बैठा धीमे रिसता धमनियों को सख्त करता रहता. मिसेज वालिया एक बार कमरे में आई भी मगर तेजस्वी  ने चुप रहने का इशारा करते हुए बाहर जाने को कहा . वापस पानी के गिलास  और चाय के साथ लौटी , तब तक सीमा का गुबार भी कुछ शांत हो गया था . तेजस्वी ने पानी का गिलास उठाकर दिया उसे , धीमी चुस्कियों में पानी पीकर रखते सीमा का चेहरा और धड़कन भी सामान्य हो चुकी थी . तेजस्विनी की ओर देख  उसने धीमे से सौरी कहा , दुपट्टे से आंसू पोंछते आँखों के किनारे और नाक भी सुर्ख लाल सी हो उठी थी . चाय की चुस्कियों के बीच संयत होती सीमा ने विवाह के बाद के सुनहरे दिनों के बदरंग होते पलों की दास्तान बयान की तो तेजस्वी  हैरान हो गयी .

विवाह के बाद ससुराल में सबने उसे हाथो- हाथ लिया था ,  सभी रस्में बहुत उल्लास और शालीनता से निभाई गयी थी . चूँकि सास और ससुर से सगाई और विवाह की तैयारियों के दौरान कई बार मिल चुकी थी , इसलिए उनके बीच नए घर में उसे कुछ  अजनबीपन नहीं लग रहा था.वह भी अपने आप को खुशकिस्मत समझ रही थी इस परिवार का सदस्य बन कर . मगर सौरभ से उसका अधिक परिचय नहीं हो पाया था . देखने दिखाने की रस्म के समय भी उसके माता- पिता ही साथ थे , मगर संकोचवश सीमा ने अकेले में मिलने की इच्छा  जताना उचित नहीं समझा वही सौरभ ने कहा दिया कि माँ पिता जी को पसंद है , इसलिए मुझे भी पसंद है . अलग से बात करने की कोशिश भी नहीं की गयी .सगाई की रस्म के समय भी दोनों के बीच औपचारिक बात चीत ही हो पाई , एक दो बार उसकी रिश्ते की छोटी बहन या सहेलियों ने फोन मिलाकर बात करने की कोशिश की तो कभी उधर से सौरभ स्वयं तो कभी उसका  नंबर व्यस्त आता मिला. शक सुबह की गुन्जईश इसलिए नहीं रही कि उसके सास ससुर अक्सर फोन पर बाते करते या मिलने आते . उसके ससुर कई बार अकेले भी मिलने चले आते. सुसंस्कृत मृदु व्यव्हार युक्त अच्छे परिवार  के गुणों से प्रभावित होकर इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया कि सौरभ कभी सीमा से स्वयं बात करने का इच्छुक नहीं रहा .

तेजस्वी  के मन में ख्याल आया कि भारतीय पारम्परिक विवाह की कितनी अजीब परम्परा है कि जिसके साथ पूरा जीवन बिताना है बस वही अजनबी रहे  . कही पढ़ा हुआ भी याद आया उसे कि अजनबी लड़कों से बात न करो , मगर शादी कर लो . स्मित मुस्कराहट उसके चेहरे पर आकर लौट गयी , वह गंभीरता से सीमा की बातें सुनने लगी .
हालाँकि विवाह की रस्मों के दौरान उसकी भोली प्यारी मुस्कान और हलकी फुलकी छेड़छाड़ ने सीमा को गुदगुदाए रखा , सुदर्शन हंसमुख सा पति , हर पल ख्याल रखने वाला परिवार और सबसे बढ़कर उसके हर पल की चिंता रखने वाले उसके शवसुर . सीमा का मन अपने भाग्य पर इतराने को करता क्योंकि सामान्य हिंद्स्तानी कन्याओं की ही तरह विवाह और अच्छे परिवार से इतर कुछ अपने लिए उसने न सोचा था , न ही उसे प्रेरित किया गया था . शिक्षा का मकसद तो विवाह के लिए अच्छा लड़का मिलने पर ही पूर्ण मान लिया गया था , उनकी इच्छा हो तो आगे पढ़ायें ,नौकरी करवाएं वर्ना घर गृहस्थी संभाले ! हालाँकि सीमा के सास ससुर का वादा था उसकी शिक्षा पूरी करवाने का . पगफेरे पर मायके जाकर एक दिन रह भी आई सीमा , बेटी का प्रफुल्लित चेहरा मिसेज वालिया के चेहरे की रंगत को बढ़ा गया था , बड़ी ख़ुशी और उत्साह  के साथ बेटी के ससुराल से आये तोहफे , जेवर , कपडे आदि दिखाती फूली न समाती थी .
विवाह की सभी रस्मों के बाद मेहमान लौटने लगे . विवाह की गहमागहमी और रिश्तेदारों से गुलजार घर कुछ सूना सा होने लगा , सौरभ को भी अपनी नौकरी के लिए जाना पड़ा , एक सप्ताह की ड्यूटी के बाद पुनः छुट्टी लेकर आने का वादा कर जाने की तैयारी करता रहा  , मगर सीमा ने महसूस किया इन दिनों में कि कई बार वह अकेले में बैठा घंटे तक कुछ सोचता ही रहता था या कभी लेटा रहता चुपचाप बस छत को निहारते , उस समय सासू माँ उसे किसी बहाने से अपने पास बुला लेती कि उसे आराम कर लेने दिया जाए , शादी व्याह के काम काज में बहुत थक गया है , तब वे सीमा को अपने पास बिठाकर उससे ढेरों बाते करती वह स्कूल में कैसी थी , बचपन में क्या करती थे , उसकी पढाई के बारे में . सीमा सोचती रहती कि कितने अच्छे हैं सब लोग उसे बिलकुल अकेला नहीं रहने देते .
श्वसुर  हमेशा उसके आस- पास ही मंडराते रहते .  सौरभ के  चले जाने के बाद तो घर उसे बहुत सूना सा लगा कुछ पल के लिए मगर श्वसुर उसका बहुत ध्यान रखते , उसके लिए नाश्ते की प्लेट , मिठाई का प्याला लिए उसके कमरे में ही चले आते , तेरी सास को करने दे कुछ काम , हम दोनों खायेंगे साथ  . कभी उसके कमरे में टीवी ऑन कर बैठ जाते , साथ पिक्चर देखते हैं , सीमा को थोडा संकोच होता , कई बार वह उठकर सास के पास चली जाती मगर वे उन्हें वापस अपने कमरे में भेज देती कि अभी तो वह नई बहू  है , घर के कामकाज के लिये परेशां होने की जरुरत नहीं . ज्यादा कुछ कहते उसे डर लगता कि कही वे बुरा न मान जाए .
एक दो दिन में उसके माता पिता मिलने आये और दामाद के आने तक  अपने साथ मायके ले जाने की अनुमति मांग बैठे , कुछ दिनों में उसकी क्लासेज भी शुरू होने वाली थी ,. सीमा के सास श्वसुर  ने  आदर सत्कार से उनकी मेहमानवाजी की . साथ ही यह भी कह बैठे कि आप तो हमारे घर की रौनक ले जाना चाहते हो , आपके पास रह ली इतने वर्षों , अब यही रहने दो . मगर मिसेज वालिया के बहुत इसरार करने पर आखिर एक सप्ताह के लिए सीमा को मायके भेजने के लिए राजी हुए . मायके लौटी सीमा अपनी आवभगत में डूबी सौरभ के फोन का इन्तजार करती .  एक दो बार उसके माता -पिता ने कहा भी कि दामाद जी का फोन आये तो उनसे बात करवा देना, उनसे कभी अच्छी तरह बात ही नहीं हो पाई  . मगर वह कभी फोन नहीं करता . सीमा ही मिला लेती कभी उसे फ़ोन तो बहुत कम ही बात कर पाता . सीमा को संकोच होता कि क्या कहे वह माता -पिता को , कई बार बहाना लगा लेती कि उन्होंने फोन किया था , आप पड़ोस में थी , आप सो रहे थे , आप घर पर नहीं थे . आखिर एक दिन उसकी सास का फोन आने पर मिसेज वालिया ने कह ही दिया कि दामाद जी से तो कभी बात ही नहीं हो पाती , हमेशा जल्दी में फोन करते हैं . उसकी सास ने कह बैठी , बेचारा बहुत व्यस्त है , ऑफिस की नई जिम्मेदारी , और वहां कोई और है भी नहीं सब काम उसे ही करना पड़ता है , स्वभाव से ही संकोची है !
उसी शाम  फोन आया सौरभ का सीमा के पास , सीमा से औपचारिक बातचीत के बाद उसने उसके माता- पिता से भी बात की , माफ़ी मांगते हुए कि व्यस्तता के कारण वह अब तक उनसे बात नहीं कर सकता था ! एक सप्ताह में उसके सास- ससुर एक साथ और अकेले ससुर दो बार चक्कर काट गए थे कि हमारा तो मन ही नहीं लगता इसके बिना. मिसेज वालिया बेटी के भाग्य पर  ख़ुशी से फूली न समाती . सौरभ के लौटने पर ही सीमा भी लौटी ससुराल नवदाम्पत्य के मद में सिहरन भरी सकुचाहट में शरमाई सी .

मगर इस बार घर की दीवारों में अजब- सी ख़ामोशी सूनापन- सा था ,  इस समय घर में सिर्फ चार प्राणी होने के कारण ही नीरवता का अहसास हुआ , यही सोचा सीमा ने .  सास- श्वसुर को अपने दफ्तर के लिए विदा करती घर में सौरभ के साथ अकेले रहने से रोमांचित होती रही मगर उसका उत्साह अलसाये से पड़े चुपचाप छत निहारते सौरभ को देख विदा हो लिया .
वह घबरा गयी , आपका स्वास्थ्य तो ठीक है , हाथ से सर छू कर देखा उसने मगर तापमान सामान्य देख उसे राहत मिली .  दिन भर बिस्तर पर लेते उसकी बातों का हाँ हूँ में जवाब देता देख सीमा ने सफ़र और कार्य की थकान को ही कारण समझा . विवाह की रस्मों के तुरंत बाद नए दफ्तर की जिम्मेदारी , वह तो कुछ दिन मायके में बेफिक्री में बिता आई थी मगर सौरभ को आराम मिला ही नहीं ,सोचते हुए उसने सौरभ को डिस्टर्ब नहीं किया ., शाम को कुछ समय बाहर गया सौरभ , लौटकर थोड़ी देर उसका मूड अच्छा रहा  , सबने साथ खाना खाया .सौरभ अपने  कमरे में जाकर लेट गया .  सीमा रसोई का काम निपटाकर आई  तो उसने सौरभ को नींद की आगोश में डूबा पाया . सास श्वसुर अपने कमरे में चले गए वह देर रात  तक टीवी देखती सो गई  . मगर जब अगले कई दिनों सौरभ का वही रूटीन रहा तो सीमा के मन में शंका होने लगी . उसे समझ नहीं आया कि वह क्या कहे , क्या करे . माँ का फोन आता तो शुरू में सब ठीक होने की बात कह बहाना बना देती , बताती तो तब जब उसे इस अजीबोगरीब व्यवहार पर कुछ समझ में आता  और जब उसे समझ आया तो उसके क़दमों के नीचे की जमीन ही गुम हो गयी जैसे . सौरभ नशे का आदी था,  नशे में दिन भर पड़े रहना और शाम को बाहर नशे का इंतजाम करने जाना उसकी दिनचर्या थी .वह स्तब्ध खामोश हो गयी थी . कैसे करे वह उसकी इस लत का सामना , किसे कहे , किसे बताये . सास को बताना चाहा तो मगर वह शायद पहले से ही जानती थी . प्रकट में सिर्फ यही कहा उन्होंने कि पढाई इतनी मुश्किल होती है कि बच्चे दबाव को सहन नहीं कर पाते , इसलिए कभी कर लेते हैं नशा . इस तर्क ने उसे क्षुब्ध कर दिया , वह भी तो यही पढाई कर रही है , उसे तो कभी जरुरत महसूस नहीं हुई किसी नशे की . यहाँ परिवार समाज का दबाव है तो यह हाल है , नौकरी पर क्या करता होगा ! यह ख्याल उसे परेशान करता रहा . दूसरी ओर उसके कॉलेज में नए सेमेस्टर की क्लासेज भी शुरू हो गयी थी , सास से इजाजत मांगनी चाही तो टाल देती , अभी नयी शादी है , अभी से क्या कॉलेज पढाई , साथ समय बिताओ , एक दूसरे को समझो जब तक छुट्टी पर है . समझती क्या ख़ाक वह जब शब्दों , मन अथवा स्पर्श का आदान प्रदान होता तब तो . मन मार कर सीमा उसकी पोस्टिंग पर जाने का इन्तजार करने लगी . आखिर पंद्रह दिन की छुट्टी बिताकर जब वह पुनः  लौट गया तो सीमा कॉलेज जाने की तैयारी में लग गयी , कॉलेज में पढाई और साथियों के बीच उसका मन फिर भी रमा रहता मगर घर लौट कर वही घुटन उसे तोड़ जाती , मायके भी हो आती बीच में, सबके साथ हंसती मुस्कुराती  मगर उसने सौरभ के व्यवहार के बारे में कभी किसी से बात नहीं की .
श्वसुर का व्यवहार उसके प्रति अभी भी अत्यंत प्रेमपूर्ण था . एक दोपहर जब वह कॉलेज से घर लौटी तो श्वसुर घर पर ही मिले , सास दफ्तर में ही थी . वह इस समय उन्हें घर पर देखकर चौंकी जरुर ,
सीमा के पूछने पर कहा उन्होंने , कुछ नहीं, थोडा सर में दर्द था , आराम कर लूं यही सोचकर घर लौट आया. वह चाय का कप तैयार कर ले आई थी .  मुड़ी ही थी कि पीछे से आवाज लगा कर उन्होंने बाम की डिब्बी लाने को कहा . बाम ले आई तो सर पर मल देने का इसरार कर बैठे . कई बार पिता के सर में दर्द होने पर भी लगाया ही था बाम , ममता से भरी उसने धीमे बाम मलना शुरू किया , थोड़ी देर बाद उन्होंने सीमा के  हाथ की अंगुलियाँ जोर से थाम ली . घबरा गई सीमा  , भौंचक धीमे से हाथ छुड़ा कर वह कमरे से बाहर आ गयी.


क्रमशः .... सौरभ के अजनबी व्यवहार से उबरी ही नहीं सीमा अभी  कि कुछ और हादसे उसका इम्तिहान लेने की प्रतीक्षा में हैं  !