रामचरित मानस की ये चौपाईँआं अर्थ सहित लिखने का कोई प्रवचन देने जैसा उद्देश्य नहीं है ....बदलते समय और समाज के विकास के साथ हमारे जीवन और सामाजिक गतिविधियों , आचार -विचार, नैतिक मूल्यों में भी परिवर्तन होता है ...परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है , और कुछ हद तक इसका पालन भी होना चाहिए ...मगर जब जीवन से जुड़े हर क्षेत्र (राजनीति , खेल , मनोरंजन )में बुरा और ज्यादा बुरा में से चुनने लगे हैं ...तो धर्म को भी इसी बदली दृष्टि के साथ स्वीकार करना चाहिए ...जिस कार्य से जीवन में सहजता हो , वही किया जाए ...आँख मूंदकर लकीर पीटने जैसा ना संभव है , ना स्वीकार्य होना ही चाहिए ...
कुछ और मोती ...
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करई सप्रीति ...
दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन , शत्रु अथवा मित्र किसी का भी हित सुनकर जलते हैं । यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह दास प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है ....
बंदउं संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु करना ॥
बिछुरत एक प्राण हरि लेही । मिलत एक दारुण दुःख देहि ॥
अब मैं संत और असंद दोनों के ही चरणों की वंदना करता हूँ , दोनों ही दुःख देने वाले हैं परन्तु उनमे कुछ अंतर कहा गया है ..वह अंतर यह है कि एक (संत ) से बिछड़ते समय प्राण हर लेते हैं , वही दूसरे (असंत ) मिलते हैं तब दारुण दुःख देते हैं ...अर्थात संतों का बिछड़ना मृत्यु के समान दुखदाई है तो असंतों का मिलना भी इतना ही दुःख देने वाला है ....
उपजहिं एक संग जग माहिं । जलज जोंक जीमि गुन बिलगाहिं ॥
सुधा सुर सम साधू असाधु । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥
संत और असंत दोनों ही जगत में एक साथ पैदा होते हैं पर कमल और जोंक की तरह उनके गुण भी अलग- अलग होते हैं। कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है , किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही खून चूसने लगती है । साधु अमृत के समान (मृत्युरूपी संसार से उबारने वाला ) और असाधु मदिरा (मोह , प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला ) के समान है । दोनों को उत्पन्न करने वाला जगात्रुपी अगाध समुद्र एक ही है ...(शास्त्रों में समुद्रमंथन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गयी है )
भल अनभल निज निज करतूति । लहत सुजस अपलोक बिभूति ॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू । गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥
गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेहिं भाव नीक तेहि सोई ॥
भले और बुरे अपनी -अपनी करनी के अनुसार सुन्दर यश और अपयश संपत्ति पाते हैं । अमृत , चन्द्रमा , गंगाजी , साधु , विष और अग्नि कलियुग के पापों की नदी अर्थात कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याघ्र , इनके गुण-अवगुण सब जानते हैं , किन्तु जिसे जो भाता है , उसे वही अच्छा लगता है ।
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा ॥
तेहिं ते कुछ गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग ना बिनु पहिचाने ॥
दुष्टों के पापों और अवगुणों और साधुओं के गुणों की कथाएं, दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं । इसी से कुछ गुणों और दोषों का वर्णन किया गया है । क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण अथवा त्याग नहीं हो सकता है ।
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद बिलगाए ॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुण साना ॥
भले - बुरे सभी ब्रह्मा के ही पैदा किये हुए हैं , पर गुण और दोषों का विचार कर वेदों ने उनको अलग - अलग कर दिया है । वेद, इतिहास , और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण - अवगुणों से भरी सनी हुई है ।
अस बिबेक जब देई बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥
का सुभाऊ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकई भलाई ॥
विधाता जब इस प्रकार का विवेक (हँस का सा ) देते हैं तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है । काल -स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु ) भी माया के वश में होकर कभी -कभी भलाई से चूक जाते हैं ...
जो सुधरी हरिजन जिमि लेहिं । दलि दुःख दोष बिमल जासु देहिं ॥
खलउ करहिं भाल पाई सुसंगू । मिटहिं न मलिन सुभाउ अभंगू ॥
भगवान् के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख दोषों को मिटाकर निरमल यश देते हैं , वैसे ही दुष्ट भी कभी -कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं , परन्तु कभी भंग न होने वाला उनका मलिन स्वभाव नहीं मिटता है ...
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेउ ॥
उघरहिं अंत न होई निबाहू । कालनेमि जिमि रावण रहू ॥
जो ठग हैं , उन्हें भी अच्छा वेश बनाये देखकर बेष के प्रताप से जग पूजता है , परन्तु एक -न-एक दिन उनके अवगुण चौड़े (दोष जाहिर होना ) आ ही जाते हैं , अंत तक उनका कपट नहीं निभता जैसे, कालनेमि , रावण और राहू का हाल हुआ ।
कियेहूँ कुबेष साधु सनमानू । जिमी जग जामवंत हनुमानू ॥
हानि कुसंग कुसंगति लाहू । लोकहूँ बेद बिदित सब काहू ॥
बुरा वेश बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है , जैसे जगत में जाम्बवान और हनुमानजी का हुआ । बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है , यह बात लोक और वेद में हैं और सब जानते हैं ...
कुछ विशेष ...
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥
भावार्थ:-वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं ॥
इस चौपाई में श्री रघुनाथ के लिए गरीबनवाज और सूफी हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह (अजमेर ) का गरीबनवाज के नाम से प्रसिद्द होना ...सुखद ही तो है .... !
प्रयत्न तो बहुत किया है कि सही शब्द ही लिखूं , फिर भी जो त्रुटियाँ रह गयी हैं , उनके लिए अल्पज्ञ मान कर क्षमा करें ...
अति सुन्दर, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर, बहुत बढ़िया भाव, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबड़ी ई की मात्राएँ अनावश्यक रूप से आयी हैं -उन्हें कृपया सुधारे -प्रथम चौपाई ख़ास तौर पर !
जवाब देंहटाएंसुबह सुबह गरीबनवाज श्री रघुनाथ ...रामचरितमानस से कुछ चौपाईँयां ... पढना बेहद सुखद लगा....
जवाब देंहटाएंregards
श्रीरामचरितमानस से सुंदर भावपूर्ण प्रसंगों का चयन...आज के युग में मानस की ये सूक्तियां बार बार पठनीय और अनुकरणीय हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ……………आभार्।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा पढ़कर।
जवाब देंहटाएंतुलसीदास की चौपाई तो हर युग में सार्थक है!
जवाब देंहटाएंनवरात्रि पर इतनी मेहनत से इन चौपाइयों को प्रस्तुत करने का दिल से शुक्रिया..
जवाब देंहटाएंतुम्हारा यह कार्य अत्यंत स्तुतीय है
अति सुन्दर,आप तो धीरे धीरे मुझे पुरी रामायण पढवा देगी, मैने कभी पढी ही नही, थोडी बहुत सुनी हे, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ... धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारे
हे माँ दुर्गे सकल सुखदाता
अति सुंदर, दुर्गा नवमी एवम दशहरा पर्व की हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
तुलसी कृत रामचरितमानस तो एक विश्वकोष है , जो भी ग्रहण करना चाहो मिल जाता है
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है जिस सुख श्रोत के संधान में व्यक्ति अपने को जीवन भर पचाता खपाता रहता है,उसके सूत्र रामायण में,गीता में हजारों वर्ष पहले ही सविस्तार व्याख्यायित कर दिए गए...पर लोग उसे पुराना मान आगे निकल जाना ही बेहतर समझते हैं और जीवन भर पड़े रहते हैं पंक में हाथ पैर मारते हुए..
जवाब देंहटाएंरामचरित मानस तो ऐसा सागर है,जिसमे जितनी बार गोता लगाया जाय उतनी बार भर भर हाथ मोती लेकर बाहर निकल सकता है आदमी और अपने हर सांस के साथ जीवन के अंतिम क्षण तक भी यदि डुबकी मार मोती निकालता रहे तो भी उस भण्डार से एक बूँद नहीं घटा सकता ...
आपका कोटिशः आभार इस अनुपम प्रस्तुति के लिए.!!!!