डोर बेल की आवाज सुनकर घर के भीतर हलचल हुई ...दो छोटी बच्चियां भागती हुयी आयीं ...
" बुआ आ गयी ...दीदी को नही लाई ...." कहती हुई कविता से लिपट गयी।
हाँ ...बेटा ...मैं तो इधर मार्केट आयी थी ...सोचा तुम लोगों से मिलती चलूँ ...मम्मी और दादी कहाँ है ...दोनों भतीजियों को साथ लिए कविता ड्राइंग रूम में कदम रख चुकी थी ।
किचन में बर्तनों की खडखडाहट कुछ समय के लिए रुक गयी ...हाथ पोंछते हुए माँ भी ड्राइंग रूम तक पहुँच गयी थी ...
"आज अचानक कैसे "....कविता को पास बैठाते हुए माँ बोली ...
"बस ...ऐसे ही तुम लोगों की बहुत याद आ रही थी ...भाभी कहाँ है ..."
"वो अपने कमरे में दो बच्चियों को पढ़ा रही है...अपनी महरी की बेटियाँ हैं...वो किसी मार्केटिंग वाली कंपनी का टास्क जो पूरा करना है" ...
वाह ...ये तो बहुत बढ़िया काम है .... काम भी और समाज सेवा भी ...
"हाँ ..वो तो है ....तू बैठ ...मैं जरा दो बर्तन सलटा दूँ ..चाय बनाती हूँ ".....कुछ अनमनी सी माँ बोली...
"नही माँ रहने दो ...अभी मार्केट में जूस पी लिया था ...लाओ बर्तन मैं करा दूँ ..."
"नही बेटा मैं कर लूंगी ...तू थोडी देर के लिए ही तो आयी है ...बैठ आराम से ..."
"और बच्चा पार्टी तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है ...इस एक्जाम के बाद रिपोर्ट कार्ड आ गया क्या ..
दिखाना मुझे " ....
"नही बुआ ....रिजल्ट तो आ गया पर रिपोर्ट कार्ड लेने कोई गया ही नही ...पैरेंट्स के हस्ताक्षर के बिना देते नही है और पापा मम्मी को फुरसत ही नही मिली "...
" कोई बात नही ...अब ले आयेंगे ...क्या परसेंटेज रही " ...
" अरे पढ़ती कहाँ है दोनों ...बहुत ख़राब मार्क्स आए हैं "..बीच में ही बच्चों की दादी बोल पड़ी ...
" बुआ ...ट्यूशन वाले सर पढाते हैं ...कुछ समझ ही नही आता ...दुबारा पूछो तो डांटने लग जाते हैं " ...
"आज के लिए इतना बहुत है ...अब कल पढ़ना "...
बोलती हुई भाभी महरी की बच्चियों के साथ बाहर आ गयी ...
"अरे कविताजी ...आप कब आयी ....मुझे तो पता ही नही चला ....और तुम दोनों कब से खेल रही हो ...जाओ अपने कमरे में पढो "....
" मम्मी , ये सवाल समझ नही आ रहा जरा समझा दो इसे "...
" अभी थोडी देर फुरसत मिली है मुझे ...तुम्हारे ट्यूशन सर से पूछ लेना ...जाओ ...मुझे तंग मत करो "...
रुआंसी सी दोनों बच्चियां अपने कमरे में चली गयी ......
कविता वापसी में सारे रास्ते रुआंसी भतीजियों और माँ के मलिन चेहरे के बीच भाभी की समाजसेवा के औचित्य के बारे में ही सोचती रही ...यह कैसी समाजसेवा ....!!
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क्या बात है वाणी जी...
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा..
charity begins at home ...
पहले अपना घर ठीक होना चाहिए फिर देश की सोचनी चाहिए...वर्ना ऐसी समाज सेवा को चूल्हे में ही डालना चाहिए....हा हा हा हा
आपका आलेख हमेशा की तरह जानदार है...बहुत ही ज्यादा उर्जा है आपकी लेखनी में..पढ़ते ही व्यक्ति बदल जाता है..बहुत खूब ..लिखती रहे..
बेहतरीन ढंग से आपने सुन्दर सन्देश दिया है. अदा जी से पूर्णतया सहमत 'charity begins at home'
जवाब देंहटाएंकथानक रूप काफी प्रभावशाली है.
हाँ कैसी समाज सेवा यह -पुनीत कर्म घर से तो शुरू होते हैं
जवाब देंहटाएंआपने मन किया है सो इसके आगे नहीं बोलूँगा
कहीं और टीप दिया है इस पर...
जवाब देंहटाएंaaj kal yahi ho raha hai log baahar aur dusaro ko samaj sewa seekhaa rahe hai aur khud .......
जवाब देंहटाएंaaoke post kee feed mujhe drri se mil rahi hai
आपने कहानी के माध्यम से बहुत अच्छा संदेश दिया है .. अपने पारिवारिक दायित्व को संभालना महिलाओं की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए .. आजकल जो महिलाएं समाज सेवा के बहाने व्यस्त रहा करती हैं .. उनके बच्चे अपनी मनमानी करते देखे जाते हैं .. क्या फायदा ऐसी समाज सेवा से ?
जवाब देंहटाएंबहुत सटीकता से समस्या रखी आपने पर लगता है दिये तले अंधेरा वाली कहावत ही सही है. बहुत शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
धारदार व्यंग्य है।
जवाब देंहटाएंआपने बिल्कुल ठीक लिखा है। परिवार भी तो समाज ही है ना।
परिवार सेवा अर्थात समाज सेवा।
राजनीति में भी तो यही हो रहा हे।
वैचारिक ताजगी लिए हुए रचना विलक्षण है।
जवाब देंहटाएंkya kahne aisi samaaj sewa ke,,,,, tathya to sundar hai hi lekin kathya ki jitni tareef karen kam hai...
जवाब देंहटाएंजानदार लेख
जवाब देंहटाएंसच बात कही कि ऐसी समझ सेवा से क्या मतलब
बहुत सही लिखा है ........... अक्सर हम दिखावी समाज सेवा करते हुवे अपने परिवार को भूल जाते हैं .......... मेरा मानना है सबसे पहले अपने परिवार, अपने आस पास के लोगों की सेवा और फिर समाज की सेवा करनी चाहिए ............
जवाब देंहटाएंAise dhakoslon kee pol kholnee hee chahiye...nihayat sundar tareeqese aapne apnee baat rakhi hai...padhte hue ek seekh lene ke alawa 'katha kathan' ka ehsaas hua!
जवाब देंहटाएंJanam din kee badhayee ke liye tahe dilse shukriya..! Mujhe nahee pata ki, pahle 2 tippanee karon ko mera janam din kaise aur kahan se pata chala...!
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बहुत सुंदर लिखा.. आज ऎसे समाज सेवक बहुत मिल जायेगे जिन के बच्चे हद से ज्यादा बिगडे होते है... कारण मां बाप खुद ही है, आप का लेख ऎसे समाज सेवको के मुंह पर करारा तमाचा है.... मैने देखा भी है ऎसा होता.वेसे यह सच मै समाज सेवा ही करते है या....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आपकी लेख पूरी तरह से जानदार है इसमे गहराई भी बहुत है .....और जीवंत है जो आत्मा चेतना को जगाता है ......बहुत सुन्दर बधाई!
जवाब देंहटाएंकहानी व्यंग व सटीकता का अद्भुत संगम
जवाब देंहटाएंएक उत्तम रचना
वाह.. वाह... अच्छी रचना के लिये साधुवाद स्वीकारें......
जवाब देंहटाएंबहुत ही सही कहा आपने इस लेख के माध्यम से सच्चाई प्रकट करती एक बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंthis is what we call hippocresy
जवाब देंहटाएंअरे भई पाखण्ड..
ek saath, ek kahani mein , vaicharik dridhta, manviya mulya aur sandesh...
जवाब देंहटाएंshort but sincere..
great!
वाणीजी
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है पता नही क्या हो रहा है क्यों सब दिखावे कि जिंदगी जीना चाहते है |
मेरी एक परिचित है महिला मंडल के तथाकथित समाज सेवा के कार्यो में अपनी बूढी बीमार साँस को दिन भर घर मेअकेली छोड़ चंदा एकत्र करने लोगो के घर जाती है |
waah ji waaah..bahut hi achha sandesh liye aapki kahani ...dhanaywad..its amazing !!!
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