राजा के राज्य में हर ओर अमन चैन था। अच्छी बरसात ने झीलों ,कुओं और तालाबों को लबालब कर दिया , फसलों की हरियाली लुभावनी थी. गायों और भैंसों को ताजा हरा चारा प्राप्त था , शुद्ध दूध, दही ,घी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। प्रजा को ताजा फल ,हरी सब्जियां , अनाज भी उपयुक्त कीमत पर मिल रहे थे लिहाज़ा अच्छी खासी सेहत के साथ कोई भूखा नंगा नहीं था। खेत , व्यवसाय , उद्योग और राजकीय कार्य में व्यस्त प्रजा को मनोरंजन के तमाम विकल्प भी उपलब्ध थे। हर और ख़ुशी का साम्राज्य था। सुबह शाम खुशनुमा हुए जा रहे थे , प्रजा अपने कार्य करती , मनोरंजन करती , खाती पीती सोती और जागती।
मंदिर ,मस्जिद , गुरूद्वारे ,गिरिजाघर में समय पर झालर, घंटे , मंजीरों और नियमानुसार समय से होने वाली आरती , प्रार्थनाओं ने ईश्वर को विसराने ना दिया , मगर धीरे- धीरे राजा के महल में फरियादों की संख्या नगण्य हो गई।
महल के बाहर टंगे घंटे ने जाने कब से टंकार नहीं सुनाई , राजा की जय हो , न्याय की विजय हो ,भी कानों में सुन नहीं पड़ते और ना ही प्रजा में राजा की दयालुता के चर्चे। सत्ता के केंद्र का आकर्षण बने राजा के कानों को याचना और प्रशंसा की कमी खलने लगी। वह कैसा राजा जिसे दयालुता दिखने का मौका ना मिले , न्याय -अन्याय की तराजू पर अपने फैसलों पर प्रजा की जयकार सुनने अवसर ना मिले।
राजा के कानों में सरसराहट होने लगती। बार -बार लगता कोई पुकार रहा है , मगर दूर -दूर तक कोई नहीं। कान थपथपाकर कर दोनों सिरे खिंच कर सुनने का प्रयास करता , मगर कोई लाभ नहीं। जैसे -जैसे समय बीतता गया , कानों में खुजली बढ़ने लगी। बात करते , खाते पीते , सोते जागते राजा के हाथ कानों पर। राजा की इस परेशानी को रानियों ने ,दासियों ने दरबारियों ने , सबने देखा , महसूस किया। आखिर राजवैद्य जी को बुलाया गया। वैद्य ने हर प्रकार से निरीक्षण कर जाना कि बीमारी तन की नहीं , मन की थी। राजवैद्य ने राज ज्योतिषी की सलाह ली और बीमारी के निराकरण हेतु प्रजा की सेवा करने , गरीबों को वस्त्र , अनाज , आभूषण आदि दान करने तथा अनाथालय /चिकत्सालय आदि के निर्माण का उपाय सुझाया गया।
राजा ने दरबारियों से मशवरा किया और गरीबों , अनाथों , बीमारों को दरबार में उपस्थित होने को कहा , मगर यह क्या। राज्य में कोई गरीब , अनाथ अथवा मरीज न था। दरबार में फरियादी का स्थान खाली का खाली। राजा की खुजली दिन बी दिन बढ़ती ही जाए।
राजा की व्यग्रता देखकर कुछ वरिष्ठ मंत्रियों ,दरबारियों ने मिल कर फैसला लिया , राज्य में कर बढ़ा दिए गए , खेतों में खड़ी फसलों को गौशाला और अश्वशाला के निवासियों के सुपुर्द कर दिया गया , सर्दी में जल रहे अलाव की अग्नि रहस्मय रूप से खलिहानों तक पहुँच गयी। प्रजा में त्राहि-त्राहि मच गयी। कुछ ही दिनों में कंगाल/ गरीबों और मरीजों की संख्या बढ़ती गयी। प्रजा के दुखों का भार बढ़ते राजा के महल तक जा पहुंचा। आये दिन महल के बाहर बने घंटे की टंकार सुनाई देती रहती। राजा के कानों की खुजली और सरसराहट कम होने लगी।
फरियादी की बढ़ती संख्या देख शासन ने मुनादी करवाई , राजा प्रति सप्ताह गरीबों को अपने हाथों से अन्न , वस्त्र , दवा आदि दान करेंगे। जिस तरह राजा दान करते , उसी तरह जनता पर कर की दर बढ़ा दी जाती। कर बढ़ते , प्रजा व्यथित होती ,राजा दान करते , प्रजा राजा की दयालुता की सरहाना करते हुए अति विनम्रता से दान ग्रहण करती।
चतुर दरबारियों ने राजा के कानों की खुजली का स्थाई इलाज़ ढूंढ निकाला। राजा अब सदा के लिए स्वस्थ था।
:) :) :)
जवाब देंहटाएंright to food kee yaad aa rahi hai ji yah posty padh kar :)
:):) अजब गजब बीमारी और उसके नुस्खे .... शिल्पा जी की बात से सहमत । लेकिन यह सरकार ( राजा) सबकी भूख नहीं मिटा पायी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
जवाब देंहटाएंअंधेर नगरी चौपट प्रजा....:-p
जवाब देंहटाएंआखरी पैर के पहले मै कहने वाली थी कि गुडमार्निंग सुबह हो गई है जाग जाइये बैक टू रियलटी :)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद की चतुर दरबारियों ने राजनीतिज्ञो पर हमारे विश्वास को बनाये रखा :)))
राजाओ की बीमारियो का स्थाई इलाज करने वाले ऐसे "चतुर" पता नहीं क्यों चतुर से चापलूसी की ध्वनि आ रही है दरबारी न हो तो हमें तो ये भी न पता चले की पुरे देश की माँ कौन है और बहन :))
जवाब देंहटाएंहा हा हा !
हटाएंराजा के दिन तो बहुत पहले लद गए , रानी भी विदेशी थी बहुत निबाहा बिचारी ने { मै नारी को कभी कुछ कह नहीं सकती :)} अब राज कुमारी ने सम्भाल लिया होता तो ये दुर्गति ना होती कुछ गरीब वो खोज ही लेती। पता नहीं लोग क्यूँ बेटो को वारिस मानते हैं , राजकुमार कि शादी ही कर देते शायद अक्ल आ जाती और कान के नीचे कि जरुरत ना पड़ती।
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हटाएंव्यंग्य किसी एक राजा पर नहीं , बल्कि राजनीति की दशा और दिशा को लक्षित है।
शुक्रिया ! { बंदरिया के सिवा कुछ नहीं कहती , कहिये न :) }
सर्वसामयिक व्यंग्य! महाराज की जय हो!
हटाएंसदियों से यही होता आया है....राजा को भी तो कोई कार्य चाहिए...या तो वह नये नये देशों को जीतने निकल गया होता...
जवाब देंहटाएंचाटुकार सदियों से राजा की बिमारी और उसका हल खोजने में ही लगे रहते हैं ... अपनी जेबें भी तो तब ही भर पाते हैं ये लोग ...
जवाब देंहटाएंकंधा तो हर किसी को चाहिए ...
यथा राजा तथा प्रजा :):)
जवाब देंहटाएंअच्छा कटाक्ष
जवाब देंहटाएंकमाल का व्यंग है .
जवाब देंहटाएंसटीक ...कुछ ऐसा ही हाल है आज के परिवेश में भी ....
जवाब देंहटाएंराजा को राजा बने रहने का अहसास तो होते रहना चाहिए...जबतक प्रजा फ़रियाद न करे...गुहार न लगाए...आत्मतुष्टि कैसे मिले .
जवाब देंहटाएंवाह ...यह राजनीति भी जो न करवाए वो थोड़ा है ....!!
जवाब देंहटाएंराजनीति उस चिड़िया का नाम है जो किसी डाल पर नहीं
जवाब देंहटाएंबैठती ---
सार्थक और उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
पढ़कर हम भी मस्त...
जवाब देंहटाएंजादू … एक मुस्कान फ़ैल गई चेहरे पर
जवाब देंहटाएंदरबारी इसीलिये तो रखे जाते हैं :)
जवाब देंहटाएंये तो बिलकुल वैसा ही है जैसे घुटने पर की जाए चोट और ललाट पर दर्द अनुभूति हो. अच्छा लगा पोस्ट का अंदाज़.
जवाब देंहटाएंकान की सरसराहट में छिपा राजनीति का दंश
जवाब देंहटाएंराजा तब ही मस्त, जब प्रजा पस्त :)
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