शहर के मुख्य बाजार की पैदल तफरी, आभासी दुनिया की चर्चाओं और विवाद के बीच भावनाओं का कॉकटेल....
कल #जयपुर के #चौड़ा रास्ता स्थित बाजार में पैदल चहल कदमी करते हुए #साहू की चाय पीते बच्चों से उस समय की बात होती रही जब कभी इस बाजार के बीच से पैदल चलते सामान्य जन , पालकी में या अन्य वाहनों से खरीददारी के लिए अथवा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए जाते धनाढ्य वर्ग के लोग /लुगाई गुजरते रहे होंगे....
कल #जयपुर के #चौड़ा रास्ता स्थित बाजार में पैदल चहल कदमी करते हुए #साहू की चाय पीते बच्चों से उस समय की बात होती रही जब कभी इस बाजार के बीच से पैदल चलते सामान्य जन , पालकी में या अन्य वाहनों से खरीददारी के लिए अथवा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए जाते धनाढ्य वर्ग के लोग /लुगाई गुजरते रहे होंगे....
किसी एक स्थान पर खड़े जैसे आँखों के सामने वह समय सजीव हो सैर पर निकल पड़ता है. ज्योतिष की मानें तो प्रत्येक व्यक्ति ही नहीं, स्थान और प्रश्न की भी कुंडली होती है.... उस शास्त्र का ज्ञान तो नहीं मगर घर, मकानों, महलों , किलों और शहरों की भी रूह होती है...
होती है पर जोर नहीं दूँगी. महसूस होती है यही कहती हूँ....
जिस तरह उम्र अपनी सीढ़ियाँ चढ़ती जाती है, स्मृतियों का दायरा भी बढ़ता जाता है. आपकी संवेदना उन स्थानों की रूह को अवश्य महसूस करती है जहाँ से आप गुजरते हैं ....
इतिहास विषय को पढ़ने के कारण समझें या इतिहास में रूचि होने के कारण या फिर अपनी मिट्टी, संस्कृति , सभ्यता से जुड़े होने की ललक के कारण अपनी धरोहरों के प्रति एक आकर्षण सा महसूस होता है और यह आकर्षण गिने चुने लोगों में नहीं है...आमेर महल, सिटी पैलेस, हवा महल में अटी पड़ी भीड़ भी यही दिखाती है कि उन स्मृतियों से जुड़ना, उनको महसूस करना अपने आप में बेहद रोमांचक है. सिटी पैलैस में राजा महाराजाओं के आदमकद चोगे,वस्त्र, शस्त्र आदि एक कल्पना लोक को आपके सामने साकार करते हैं. अजब सम्मोहन है जो पर्यटकों को अपनी ओर खींच लाता है देश विदेश से...
चित्तौड़ महल को भीतर से देखना नहीं हो पाया था मगर वहाँ से गुजरते एक उदासी महसूस की जा सकती है....कपोल कल्पना नहीं...नाजियों द्वारा गैस चैंबर में मारे गये लोगों की दुर्गंध आज भी वहाँ के सन्नाटों में लोग महसूस करते हैं...वैसी ही जौहर की अग्नि में लिपटी कितने हजार स्त्रियों/बच्चों की चीखें उस स्थान की रूह में अनुभव करते रहे हैं लोग...और इतिहास के ये पन्ने पलटते हुए उन लोगों की मानसिक स्थिति को समझा जा सकता है जिनका उस मिट्टी से वास्ता रहा हो....
ऐसे में कोई आपसे कहता है कि आप स्वयं को उस स्थिति में रख कर देखें तो वह आपका अपमान नहीं करता बल्कि अपनी पीड़ा को प्रकट कर रहा होता है.
ताजातरीन पद्मावती के संबंध में हो रहे विरोध, प्रदर्शनों के पीछे यह पीड़ा साफ प्रकट होती है....
इतिहास विषय को पढ़ने के कारण समझें या इतिहास में रूचि होने के कारण या फिर अपनी मिट्टी, संस्कृति , सभ्यता से जुड़े होने की ललक के कारण अपनी धरोहरों के प्रति एक आकर्षण सा महसूस होता है और यह आकर्षण गिने चुने लोगों में नहीं है...आमेर महल, सिटी पैलेस, हवा महल में अटी पड़ी भीड़ भी यही दिखाती है कि उन स्मृतियों से जुड़ना, उनको महसूस करना अपने आप में बेहद रोमांचक है. सिटी पैलैस में राजा महाराजाओं के आदमकद चोगे,वस्त्र, शस्त्र आदि एक कल्पना लोक को आपके सामने साकार करते हैं. अजब सम्मोहन है जो पर्यटकों को अपनी ओर खींच लाता है देश विदेश से...
चित्तौड़ महल को भीतर से देखना नहीं हो पाया था मगर वहाँ से गुजरते एक उदासी महसूस की जा सकती है....कपोल कल्पना नहीं...नाजियों द्वारा गैस चैंबर में मारे गये लोगों की दुर्गंध आज भी वहाँ के सन्नाटों में लोग महसूस करते हैं...वैसी ही जौहर की अग्नि में लिपटी कितने हजार स्त्रियों/बच्चों की चीखें उस स्थान की रूह में अनुभव करते रहे हैं लोग...और इतिहास के ये पन्ने पलटते हुए उन लोगों की मानसिक स्थिति को समझा जा सकता है जिनका उस मिट्टी से वास्ता रहा हो....
ऐसे में कोई आपसे कहता है कि आप स्वयं को उस स्थिति में रख कर देखें तो वह आपका अपमान नहीं करता बल्कि अपनी पीड़ा को प्रकट कर रहा होता है.
ताजातरीन पद्मावती के संबंध में हो रहे विरोध, प्रदर्शनों के पीछे यह पीड़ा साफ प्रकट होती है....
जिस महारानी ने अपने मान के लिए धधकती अग्नि में कूदकर इसलिए प्राण दे दिये हों कि उसकी राख भी किसी के हाथ न लगे. उसको स्वप्न में वहशी आक्रांता की प्रेयसी के रूप में फिल्मांकित कर ग्लैमराइज किया जाये तो विरोध /प्रदर्शन द्वारा प्रतिक्रिया स्वाभाविक है.
यदि फिल्मकार के पक्ष में यह कहा जाये कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन का साधन है तो उनके द्वारा किरदार भी वही लिये जाने चाहिए जो अवास्तविक हों. सच्चे नामों के साथ मनोरंजन अनुचित ही माना जायेगा. यदि मनोरंजन ही उद्देश्य है तो चरित्र काल्पनिक होने चाहिए.
यदि फिल्मकार के पक्ष में यह कहा जाये कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन का साधन है तो उनके द्वारा किरदार भी वही लिये जाने चाहिए जो अवास्तविक हों. सच्चे नामों के साथ मनोरंजन अनुचित ही माना जायेगा. यदि मनोरंजन ही उद्देश्य है तो चरित्र काल्पनिक होने चाहिए.
हमारे देश में आज भी सिनेमा मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम है. इसके जरिये करोड़ों का व्यापार एवं मुनाफा होता है अत: वह नागरिकों के जीवन, जीवन शैली और आचार व्यवहार और सोच पर अवश्य प्रभाव डालता है. धर्म, इतिहास, राजनीति पर आम जन की जानकारी इन संचार माध्यमों के जरिये ही पुष्ट होती है जो भविष्य का इतिहास बनती है.
यदि फिल्मकार इस बात पर दृढ़ है कि कोई भी दृश्य वास्तविक किरदार के मान और चरित्र को धूमिल नहीं करता और वास्तव में ऐसा ही है तब प्रदर्शन अनुचित है.
विरोध करने वालों के लिए भी यह अनुचित है कि एक स्त्री के मान के लिए वह दूसरी निरपराध स्त्री का शब्दों से भी मानभंग करें...जैसा कि एक अभिनेत्री और फिल्म के समर्थन करने वालों के लिए अनर्गल शब्दों का प्रयोग किये जा रहे.... मान और मानभंग दोनों का ही बोझ सिर्फ स्त्रियाँ ही क्यों उठायें!
और सबसे आखिरी में वह बात जिसकी सुगबुगाहट जोरों पर है कि यह सब विरोध, प्रदर्शन , चर्चाएं सिर्फ प्रचार तंत्र का ही हिस्सा है तो हम आम जनता सिर्फ दो पाटन के बीच उल्लू बने हैं. हमारे जैसे संवेदनशील होकर यह लेख लिखने वाले भी...
यदि फिल्मकार इस बात पर दृढ़ है कि कोई भी दृश्य वास्तविक किरदार के मान और चरित्र को धूमिल नहीं करता और वास्तव में ऐसा ही है तब प्रदर्शन अनुचित है.
विरोध करने वालों के लिए भी यह अनुचित है कि एक स्त्री के मान के लिए वह दूसरी निरपराध स्त्री का शब्दों से भी मानभंग करें...जैसा कि एक अभिनेत्री और फिल्म के समर्थन करने वालों के लिए अनर्गल शब्दों का प्रयोग किये जा रहे.... मान और मानभंग दोनों का ही बोझ सिर्फ स्त्रियाँ ही क्यों उठायें!
और सबसे आखिरी में वह बात जिसकी सुगबुगाहट जोरों पर है कि यह सब विरोध, प्रदर्शन , चर्चाएं सिर्फ प्रचार तंत्र का ही हिस्सा है तो हम आम जनता सिर्फ दो पाटन के बीच उल्लू बने हैं. हमारे जैसे संवेदनशील होकर यह लेख लिखने वाले भी...
विचार आवश्यक है कि हम सब भावनाओं के बाजार के मोहरे तो नहीं बन रहे. संवेदनाओं का भी अपना एक बाजार है जहां बस भावनाएं खरीदी जाती हैं...जहां भावुक लोगों को यह मोल सिर्फ पैसों से नहीं बल्कि आंसुओं, दर्द, व्यथा, अपमान, मानसिक संताप से भी चुकाना पड़ता है!!
समस्या यह भी है कि अब हमें सिर्फ और सिर्फ बवाल करने से मतलब है वह भी राजनीति से प्रेरित. वर्ना फिल्म किसी ने देखी नहीं अभी तक.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-11-2017) को "भावनाओं के बाजार की संभावनाएँ" (चर्चा अंक 2794) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार....
हटाएंसचमुच हम भावनाओं के बाज़ार में मोहरे बन रहे हैं
हटाएंविरोध करने वालों के लिए भी यह अनुचित है कि एक स्त्री के मान के लिए वह दूसरी निरपराध स्त्री का शब्दों से भी मानभंग करें... बेहद सशक्त बात कही आपने ....
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