शनिवार, 5 जून 2021

खजांची बाबू का पेड़...

 


बिहार के एक छोटे से गाँव में थी हमारी आधुनिक कॉलोनी परंतु पर्यावरण के मापदंडों पर खरी उतरती.  जैसेा  सामान्य तौर पर घर होते थे - हर घर (मकान/झोंपड़ी कुछ भी हो)  के बाहर बगीचा, बारामदा जहाँ आने वाला प्रत्येक अतिथि आराम पाता था, वहीं पड़ी बेंच पर बैठे सुबह अनूप जालोटा को चिड़ियों की चहचहाहट के बीच सुनते रहे थे. और उसके बाद भीतर बड़ा/छोटा सा आँगन जहाँ भरी सर्दियों में खटिया पर पड़े गुनगुनी धूप का आनंद लेते -दिल ढ़ूंढ़ता है फिर वही रात दिन की पृष्ठभूमि बनती थी.

गाँव के बाहर की टूटी फूटी सड़कों, कच्चे रास्तों के विपरीत कॉलोनी की अच्छी डामर वाली सड़कों के दोनों ओर आम, शहतूत, फालसा और खुद के घर में इलाहाबादी लाल अमरूद आदि के घने पेड़ होते थे ज गरमियों की भरी दुपहरी में  भी हमें घर के भीतर आराम न लेने देते.  

याद है मुझे सावधान करते सायरन की आवाज से  कॉलोनी के बीच में बने मंदिर के पास इकट्ठा हुए थरथर काँपते बच्चे और चिंतातुर माताओं के  चेहरे जो कॉलोनी के एक किनारे वाली दिवार के बाहर के हिस्से से रोने चिल्लाने की आ रही आवाजों से भयभीत थे. एक दो बार गोली चलने की आवाज भी सुन पड़ी थी. पता चला कि कहीं डाका पड़ रहा था. कॉलोनी के सभी पुरूष बाउंड्री के चारों ओर अलर्ट की मुद्रा में बंदूकें ताने सिक्योरिटी गार्ड के साथ खड़े दिख रहे थे. कुछेक घरों में सुरक्षा कारणों से संकलित छोटी पिस्तौल, लाठी, भाले आदि भी निकाल लिए थे. बात यह थी कि कॉलोनी के बाहर एक बस्ती में डाकूओं ने धावा बोल दिया था. 

जैसे-तैसे शोर कम होने की आवाज सुनाई दी यानि डकैत अपना काम करके लौट गये थे. धीरे-धीरे सब लोग भी  अपने घरों में लौट गये. कॉलोनी के बाहर घुप्प अँधेरों में किसी ने बाहर जाकर स्थिति का आकलन करना उचित नहीं समझा था. कई- कई दिनों तक बिजली रानी की और हमेशा के लिए पुलिस व्यवस्था के लापता रहने की बात आम ही थी वहाँ .  उस डरावनी रात के गुजर जाने के बाद जब मालिक लोग अपने सिक्यूरिटी प्रबंधक व अन्य अफसरों के साथ कॉलोनी की सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेने निकले तब  उन्हें बाउंड्री की ऊँची दिवारों  से लगे हुए उनसे भी  कहीं बहुत ऊँचे वृक्षों को देखकर चिंता हुई. शंका थी कि उन पेड़ों की लंबी शाखाओं का  सहारा लेकर चोर / डाकू कॉलोनी में कूद सकते थे.  तय किया गया कि बाउंड्री से लगने वाले घने पेड़ों को काट दिया जाये. दुख तो सबको होना ही था पर सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज से जरूरी भी था.

हमारे घर के पीछे वाली पंक्ति के मकानों के मुँह बाउंड्री की दीवार की तरफ थे और वहाँ लगे आम , फालसा आदि के बड़े पेड़ों पर भी उनका अधिकार- सा था. पेड़ काटते हुए मजदूर जब एक घर के सामने पहुँचे , उस घर की हट्टीकट्टी स्वामिनी बाहर निकल आईं और पेड़ के सामने हाथ फैला खड़ी हुईं. 

मैं नहीं काटने दूँगी यह पेड़.

मजदूरों से होती हुई बात सिक्योरिटी अफसर पहुँच गईं पर माताजी न मानी तो नहीं ही मानी. पेड़ की रक्षा के लिए उसके नीचे खटिया बिछाकर बैठ गईं. सिक्योरिट अफसर के मार्फत मालिकों तक भी बात पहुँची होगी. वहीं से फरमान जारी हुआ किसी भी तरह समझा बुझा कर पेड़ काट देने का.

मजदूर कुल्हाड़ी उठाकर पहुँचे ही थे वृक्ष पर प्रहार करने की स्वामिनी की दर्द भरी आवाज गूँजी- इस पेड़ को काटोगे मतलब खजांची बाबू (उनके पति इसी नाम /काम से पहचाने जाते थे ) को काटोगे. 

 वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति सन्न रह गया. मजदूरों के हाथ भी न उठें और उस पूरी पंक्ति में सिर्फ एक पेड़ जीवनदान पाकर वर्षों झूमता रहा, फल देता रहा. बहुत बाद में खजांची बाबू न रहे. उनका परिवार भी अपने पैतृक स्थान पर चला गया मगर वह पेड़ खजांची बाबू के पेड़ के नाम से गर्वोन्मत्त होकर सिर ऊँचा उठाये अपनी भुजाएं फैलायें आश्रय देता रहा.

17 टिप्‍पणियां:

  1. खजांची बाबू पर प्रहार करने से लोग रुक गए, यह बड़ी अच्छी बात है । यूँ ही लोग एक पेड़ को भी जीवन दें तो पेड़ सुरक्षित होंगे

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  2. यह क्या कम है कि जो अम्मा के अनशन करने से न माने वे खजांची बाबू के नाम से रुक गए।

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  3. वाह बहुत प्रेरक व रोचक प्रसंग

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  4. Sahi baat...bahut dar lagta tha dakuo k naam se..night m daku duty bhi krni padti thi 4 hrs ki..2-3 logo ki jaan bhi chli gayi thi unka mukabla krnewalo ki..ab to bahut km trees hai waha.

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  5. पर्यावरण को इसी जज़्बे की आवश्यकता है आज | प्रेरक संस्मरण !

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  6. कम से कम इतनी इंसानियत बाकी थी कि खजांची बाबू के नाम से हाथ रुक गए और वो पेड़ वर्षों तक लोगों को आश्रय देता रहा । लिखा बहुत रोचक है । किसी भी कारण लोग पर्यावरण पर ध्यान दें ।

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  7. बहुत बढ़िया ।इतनी इंसानियत तो थी उनमें

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  8. कितना अजीब है! एक पेड़ तो बचा कम से कम! बाक़ी सारे पेड़ काट दिये गए?

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  9. स्व. सुन्दरलाल बहुगुणा की तरह

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  10. चिपको आंदोलन की यही पृष्ठभूमि रही होगी! ये पेड़ कभी हमारे बच्चों की तरह होते हैं तो कभी हमारे बुज़ुर्ग बनकर हमें छाया प्रदान करते हैं! एक प्रेरक संसमरण!

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  11. ज़ज़्बा कायम रहे..
    सादर नमन

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  12. पेड़ खजांची बाबू के पेड़ के नाम से गर्वोन्मत्त होकर सिर ऊँचा उठाये अपनी भुजाएं फैलायें आश्रय देता रहा.

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  13. किसी भी नाम से रुके, रुक तो गए !! यहाँ तो काट दो - चल रहा है, मनुष्य हो या पेड़...

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  14. किसी भी नाम से रुके, रुक तो गए !! यहाँ तो काट दो - चल रहा है, मनुष्य हो या पेड़...

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  15. बहुत सुंदर संस्मरण। अब तो शायद ही कोई किसी पेड़ को बचाने के लिए अड़े और लड़े। सब सोचते हैं कि छोड़ो, मुझे क्या ? यहाँ पेड़ के साथ उनके पति की यादें जुड़ा होना पेड़ को जीवनदान दे गया।

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