सोमवार, 15 जून 2009

तुम्हारी ऑंखें

मेरी सूरत की पहचान तुम्हारी ऑंखें
मेरे दिल की निगेहबान तुम्हारी ऑंखें
जो राज़ कह सके लबों से
वो हर राज़ उगल गयी तुम्हारी ऑंखें

सुना है हमसे नाराज़ हो
यकीन होता तो क्यों कर
तुम्हारे दिल में हमारी मूरत
दिखा गयी तुम्हारी ऑंखें

हर सुबह हमें जगा कर गयी
हर शब् हमें रुला कर गयी
उभरे अश्क अपनी आँखों में
क्या तरल हुई तुम्हारी ऑंखें?

कश्ती टूटी पर पार कर ही आए
ग़मों की वो बहती दरिया
सहारा था तुम्हारा हमें
साहिल थी तुम्हारी ऑंखें

जिनमे संभलकर डूबे हम
जिनमे खोकर संभले हम
प्यार से प्यार जताती
हैं..सनम तुम्हारी ऑंखें

अपनी जुदाई का अफ़सोस क्या
अपने में समाये हैं तुम्हारी ऑंखें
हम किसी राह भी हो आयें
मंजिल है....तुम्हारी ऑंखें

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सशक्त अभिव्यक्ति

    रामराम.

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  2. बहुत ही सुंदर रचना ,जितनी तारीफ की जाये कम है .

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  3. Harek pankti dohraayee jaa saktee hai..harek rachnaa kee...aapke sundar, nishchhal man ka ehsaas karatee ye rachnayen...!

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  4. Please, ye word verification hata den..!
    Pata nahee, kitnee baar type kiya lekin, avtarit nahee hota..balki, alagse ek shbdpunj saamne aa jata hai..anytha na len..maaine rachnayon ke baareme bade man se likha hai..lekin, kahan kho raha hai,pata nahee..aur yahan to baar baar aanaa chahungi..follower ban rahee hun..

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  6. कश्ती टूटी पर पार कर ही आए
    ग़मों की वो बहती दरिया
    सहारा था तुम्हारा हमें
    साहिल थी तुम्हारी ऑंखें

    गज़ब का आकर्षण है इन तुम्हारी आँखें में ... खूबसूरत रचना

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  7. खूबसूरत अहसासों को पिरोती हुई एक सुंदर रचना. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  8. रचना बहुत प्रभावपूर्ण है

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