रविवार, 28 अगस्त 2011
अन्ना के साथ चलना , नहीं चलने से बेहतर है ....
अन्ना की आंधी ने स्वतंत्रता संग्राम के बाद पहली बार अनगिनत रिकोर्ड बनाते हुए युवाओं के जोशोखरोश को एक निश्चित दिशा दी है . जैसे पूरा देश एक नींद से जाग उठा है , मुर्दा जिस्मों में हरकतें होने लगी हैं . आजादी के बाद देश में पहली बार सत्ता पक्ष के अलावा पूरा देश एक मुद्दे पर एकजुट नजर आ रहा है . युवा , बाल , वृद्ध , सरकारी संस्थाओं से जुड़े लोंग या व्यापारी , अन्ना की मुहीम में सभी एक साथ कंधे से कन्धा मिला कर खड़े हैं .
स्वतन्त्रता की लडाई एक- दो वर्षों नहीं सदियों के लम्बे संघर्ष की दास्तान है. लडाई जीत कर स्वतन्त्रता का जश्न मनाते लोगों ने तब सोचा नहीं होगा कि यह आंतरिक गुलामी की ओर बढ़ता एक कदम है . माटी के ऊपर सफ़ेद झक वस्त्रों में मंच पर सलामी ले रहे नेताओं और आह्लादित जनसमूह ने धीरे-धीरे उन लोगों को भूलना शुरू कर दिया जिनके शरीर लोकतंत्र की नींव में दबे पड़े थे और जिनकी आत्माएं वही उसी मिट्टी के नीचे दबी पड़ी कराह रही थी . 65 वर्षों में हम अपनी पीढ़ियों को एक ऐसा नेता या अगुवाई करने वाला शख्स नहीं दे सके , जो हमारे युवाओं को देश निर्माण की राह पर चलने को प्रेरित कर सके , फलतः यह युवा शक्ति विभिन्न रक्तरंजित आंदोलनों का हिस्सा बन जाने में जाया होती रही है l सरकारों द्वारा बनाई जाने वाली नीतियाँ और उपरी स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के जाल ने आम आदमी को सोचने पर मजबूर कर ही दिया कि क्या यही वास्तविक आज़ादी थी , जिसके लिए हमारी पुरानी पीढ़ी ने अपने लाल यूँ ही गँवा दिए . लोकतंत्र में जनता ही चुनती है सरकार , मगर जिसे भी चुनो , सत्ता की मलाई का स्वाद चखते ही उनकी भाषा बदल जाती है या वे बदलने पर मजबूर होते हैं . ईमानदारी से काम करने या सेवा करने का संकल्प लिए युवा जब राजनीति , लोक सेवा अथवा पुलिस सेवा का दामन थामते हैं तब उनमे अतुल्य साहस और जोश होता है मगर कुछ कदम चलते ही उन्हें लडखडाना पड़ जाता है और अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए वे इस व्यवस्था के कुचक्र का हिस्सा बन जाते हैं .
व्यवस्था के महाजाल में फैले भ्रष्टाचार से सत्य और न्याय का गला घुटता रहा है और आखिर अंतिम साँसें लेते दिखाई पड़ने लगा है . हमारी सरकारी नीतियाँ अमीर को और अमीर तथा गरीब को और गरीब बनाने में ही कामयाब रही हैं . विकिलीक्स के आंकड़े बताते हैं कि किस तरह देश की पूरी पूंजी कुछ लोगों के हाथ में सीमित होती जा रही है जिसके दुष्परिणाम आम मध्यम वर्ग /निम्न वर्ग को भुगतना पड़ रहा है . सुरसा की तरह बढती महंगाई ने आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है . वर्षों तक दबा पड़ा यह गुस्सा आज अन्ना के साथ फूट निकल पड़ने को तैयार है . वर्तमान सरकार इस ज्वालामुखी में दबे लावे को समझ नहीं पाई बल्कि हास्यास्पद तर्क देती रही है कि प्रस्तावित जनलोकपाल बिल सिर्फ एक सिविल सोसाईटी की मांग है . उमड़े जन सैलाब और अन्ना के प्रति श्रद्धा और दीवानगी देखकर भी कोई ना समझना चाहे तो उसे क्या कहा जाए .
वास्तव में इस तरह का कोई बिल भ्रष्टाचार से त्रस्त आम आदमी की मांग है . यह मध्यमवर्गीय जन की पीड़ा है क्योंकि सबसे ज्यादा भुगतना उसे ही पड़ रहा है. भीतर दबे उनके गुस्से की चिंगारी को अन्ना नाम की आंधी ने दावानल बनाने में मदद की . कहीं न कही बाबा रामदेव के साथ दुर्व्यवहार , अन्ना की गिरफ़्तारी और सत्ता पक्ष के अनर्गल बयानों ने भी आमजन की निर्लिप्तता को दूर किया और उन्हें सड़क पर आ खड़े होने को विवश किया . अब जनता इतनी भोली भी नहीं रही कि वह खुली आँखों से भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले को ही भ्रष्टाचारी साबित करने की कोशिशों को समझ नहीं सके और अब तो वह कह भी चुकी है की बस , अब और नहीं !
लोग कहते हैं जनता चुनती है सरकार ,मगर ये नहीं देखते की जिसे भी चुना जाता है , वह इरादतन या मजबूरन इस व्यवस्था का अंग बन जाने को मजबूर हो जाता है इसलिए इस लोकपाल बिल के साथ ही अपने भावी कार्यक्रमों में भ्रष्ट चरित्रों के लिए नापसंदगी का प्रावधान रखने अथवा चुने जाने के बाद भी वापस बुला लेने जैसे सुझावों ने आम जनता को सिविल सोसाईटी के उद्देश्यों से खुद को जोड़ने और उनमे आस्था रखने में मदद की है .
मैग्सेसे पुर्सस्कार से सम्मानित अन्ना की टीम के डॉ महत्वपूर्ण साथी अरविन्द केजरीवाल आयकर विभाग से तो किरण बेदी पुलिस के उच्च अधिकारी रहे हैं और कही न कही प्रताड़ित भी रहे हैं, जबकि शांति भूषन और प्रशांत भूषन नामी गिरामी वकील हैं इसलिए यह टीम व्यवस्था की खामियों और दुष्प्रभाव से अच्छी तरह वाकिफ है .
जन लोकपाल बिल पर छेड़ा गया आन्दोलन हालाँकि उस तरह नहीं पास हुआ , जैसी इसकी कल्पना की गयी थी , मगर फिर भी भ्रष्टाचार मुक्त देश की सकारत्मक दिशा की ओर बढ़ते एक कदम के रूप में यह समय यादगार बन गया है । वास्तव में सही यही है कि सिर्फ कोई भी कानून इस देश को सुन्दर भविष्य नहीं दे सकता , जब तक देश के नागरिक इसे सुन्दर बनाने की ठोस पहल ना करें । कानून सिर्फ एक माध्यम है , जबकि कार्य नागरिकों द्वारा किया जाना है ,वह है -संकल्प लेना और निभाना कि हम रिश्वत नहीं लेंगे , नहीं देंगे । हममे से अधिकांश यही मानते हैं कि रिश्वत नहीं लेना कहना जितना आसान नहीं , नहीं देना उतना आसान नहीं है । कानून कब बनेगा , किस तरह बनेगा , अभी इसके भविष्य पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है , क्योंकि जिस स्टैंडिंग कमेटी में इस पर विचार किया जाना है , उसके सदस्य खुले तौर पर टीम अन्ना की सलाह पर अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं । लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से आम आदमी का जुड़ जाना इस टीम या कैम्पेन के लिए के लिए ऐतिहासिक उपलब्धि है । कम से कम अपने जीवन में आज तक मैंने देशभक्ति के गानों पर झूमते लहराते युवाओं के ये दल स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के अवसर पर भी नहीं देखे ।
अन्ना ने साबित कर दिया कि यदि स्वच्छ छवि वाले लोंग अपने सुख वैभव का त्याग कर अगुवाई करे तो दिग्भ्रमित युवाओं की विध्वंसकारी गतिविधियों को सही दिशा दी जा सकती है . जो बात सरकार या उनके समर्थक समझाना चाहते हैं कि यह बिल एक दम से भ्रष्टाचार को दूर तो नहीं कर सकेगा , आम जनता भी इस सच्चाई को स्वीकार करती है , मगर हाथ बांधे खड़े मूक दर्शक बने रहने की दौड़ में शामिल होने की तुलना में सकारत्मक दिशा में कुछ कदम चलना कही ज्यादा बेहतर है!
इसलिए लोग अन्ना के साथ चल रहे हैं , दौड़ रहे हैं !
कल जयपुर में भी इस जश्न को मनाने लोंग इकठ्ठा हुए । वाकई यह पहला अवसर था जब ईद , होली या दीवाली के बिना भी पूरा शहर एक साथ जश्न मना रहा था ...
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कल फ्रीडम पार्क भी आनन्द में डूबा था।
जवाब देंहटाएंकुछ मूलभूत प्रश्न हाशिये में ढकेल दिए गये ! हम हिंदुस्तानियों को ट्रिमिंग ( कतर ब्योंत ) में जबरदस्त भरोसा है ! रूट काज की चिंता किसे है ?
जवाब देंहटाएंअंगुलियां कब तक दूसरों के लिए तैनात रहेंगी कभी तो वे खुद पर भी उठ्ठें :)
बहरहाल समयानुसार बहुत अच्छा आलेख ! साधुवाद !
सैंतालीस के वक़्त की पीढ़ी के लिए एक मसीहा था। सत्तर के दशक में एक और आया और तब हम युवक थे, वे हमारे लिए रोल मॉडल बने। आज की युवा पीढ़ी के लिए अन्ना आए हैं।
जवाब देंहटाएंइतना जन समर्थन त्याग, तपस्या, नैतिक आचरण और विचार की उच्चता से ही मिलता है।
ऐसा लगा मानों एक बार फिर कोई मसीहा की राह पर हमें ले जा रहा हो।
आम जनता भी इस सच्चाई को स्वीकार करती है , मगर हाथ बांधे खड़े मूक दर्शक बने रहने की दौड़ में शामिल होने की तुलना में सकारत्मक दिशा में कुछ कदम चलना कही ज्यादा बेहतर है!
जवाब देंहटाएंइसलिए लोग अन्ना के साथ चल रहे हैं , दौड़ रहे हैं !
बिल्कुल सही कहा है ... बिल किस रूप में पास होता है यह तो वक्त ही बताएगा .. लेकिन ज़रुरी है आत्मावलोकन का ..हर नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें ... कल के जश्न को देख कर सरकार की भी आँखें खुली होंगी .. वैसे तो उनको पिछले १३ दिन में सोने का अवसर मिला ही नहीं होगा ..
सार्थक लेख
आज़ादी के बाद पहली बार देश एक सूत्र में बंध गया, भ्रष्ट्राचार एवं मंहगाई के मुद्दे पर. ऐसा स्वस्फूर्त andolan पहली बार हुआ. शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंइस आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से तात्कालिक कोई गेन भले ही न मिलता दिखे लेकिन लोगों के भीतर एक चेतना जरूर जगी है, उनके अवचेतन मन में यह आंदोलन कहीं न कहीं भ्रष्टाचार के विरूद्ध अंकुर जमाने में कामयाब रहा है।
जवाब देंहटाएंbaat to sahi hai...
जवाब देंहटाएंएकदम सारगर्भित लेख...
जवाब देंहटाएंइस आन्दोलन ने युवा चेतना को मुख्य धारा से जोड़ा है....और उम्मीद है कि इसी जोश औ खरोश से आगे भी देश-समाज की समस्याएं सुलझाने में सहयोग करेंगे.
जवाब देंहटाएंसही कहा ………कुछ ना करने से कुछ करना बेहतर है।
जवाब देंहटाएंलगा जैसे स्वप्न सा बीत गया हो सब कुछ बल्कि स्वप्न के साकार हो उठने की अनुभूति!
जवाब देंहटाएंअन्ना ने देश को एक कर दिया । अब तो सही मायने में लोकतंत्र आकर ही रहेगा ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित लेख /जनता को पहली बार एकजुट होकर सरकार के खिलाफ लड़ते देखा फिर जीतने पर एक साथ ख़ुशी मनाते देखा /तब ना कोई जात बीच मैं आई ना कोई धर्म /बहुत अच्छा लगा / जनशक्ति जाग्रत हो गई है अब सरकार कितने ही पैंतरे दिखाए /इनको बिल पास करना ही होगा ,नहीं तो अन्ना और जनता इन्हें छोड़ेगी नहीं /बहुत अच्छा लिखा आपने बधाई आपको /
जवाब देंहटाएंplease visit my blog
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इस आन्दोलन ने आम आदमी को निराशावादी सोच से बाहर लाया है जो ये कह कह कर अपना काम ख़त्म कर लेता था की देश का कुछ नहीं हो सकता हम व्यवस्था नहीं बदल सकते है | अब उसने देखा लिया की व्यवस्था बदल सकती है बस उसे आगे बढ़ना है |
जवाब देंहटाएंNai Subah ka Agaz hai ye Aandolan....
जवाब देंहटाएंदेश में नव स्फूर्ति का संचार हुआ है . जागरण काल की संज्ञा देना अतिश्योक्ति नहीं होगी .सुन्दर आलेख .
जवाब देंहटाएंदेखते देखते एक ना हो सकने वाला घटना क्रम गुजर गया और बिना कंकड पत्थर चले एक नवक्रांति का आगाज हो गया. काश दो चार अन्ना इस देश में हमेशा लगे रहे तो जनता शांति के साथ गुजर कर सकती है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सही कह रही हैं,सहमत .
जवाब देंहटाएंsahi hai lekin jaane kyon is nav-chetna ko sandeh se dekhnewale bhi kam nahin hain...
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