निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
आधुनिक हिंदी कविता के आदि रचनाकार भारतेंदु हरिश्चंद्र उपरोक्त दोहे में मातृभाषा हिंदी की कितनी ही प्रशंसा कर उसकी महत्ता साबित कर गये हों परंतु हाल ही में हमारे देश के हिंदीभाषी प्रदेश में हिंदी में आठ लाख विद्यार्थियों का फेल होना बताता है कि हम हिंदी को कितनी गंभीरता से लेते हैं. वर्ष में एक बार हिंदी दिवस मनाकर हम अपनी मातृभाषा की इतिश्री कर रहे हैं.
पिछले एक स्टेटस में मैंने लिखा भी था कि महत्वपूर्ण विषयों की अनदेखी करने में हम भारतीय अव्वल हैं.उसमें से एक हिंदी भाषा भी है और उपरोक्त समाचार में इस बात की पुष्टि भी होती है.
देश में हिंदी की दुर्दशा के बाद जब हम प्रवासी भारतीयों को हिंदी के प्रचार/प्रसार के लिए कृतसंकल्प देखते हैं तो कहीं मन में एक आश्वस्ति बनी रहती है. जिस तरह हर प्रकार के शोध/ अनुसंधान की सत्यता अथवा प्रमाणिकता के लिए हम पश्चिम जगत पर ही विश्वास करते हैं, अगले कुछ वर्षों में मातृभाषा के लिए भी शायद विदेश में रहने वाले भारतीयों पर ही निर्भर हों. इस सत्यता का भी भान होता है कि जिसको जो वस्तु सरलता से उपलब्ध नहीं, वही उसकी सही कीमत भी जानता है.
हिंदी की इस दशा-दिशा के दौर में जब यूके की एक हिंदी समिति आपके ब्लॉग ज्ञानवाणी की एक पोस्ट को अपने पाठ्यक्रम (सिलेबस) के एक कोर्स में सम्मिलित करती है तो खुशी स्वाभाविक ही है.
https://vanigyan.blogspot.com/2019/04/blog-post.html
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
आधुनिक हिंदी कविता के आदि रचनाकार भारतेंदु हरिश्चंद्र उपरोक्त दोहे में मातृभाषा हिंदी की कितनी ही प्रशंसा कर उसकी महत्ता साबित कर गये हों परंतु हाल ही में हमारे देश के हिंदीभाषी प्रदेश में हिंदी में आठ लाख विद्यार्थियों का फेल होना बताता है कि हम हिंदी को कितनी गंभीरता से लेते हैं. वर्ष में एक बार हिंदी दिवस मनाकर हम अपनी मातृभाषा की इतिश्री कर रहे हैं.
पिछले एक स्टेटस में मैंने लिखा भी था कि महत्वपूर्ण विषयों की अनदेखी करने में हम भारतीय अव्वल हैं.उसमें से एक हिंदी भाषा भी है और उपरोक्त समाचार में इस बात की पुष्टि भी होती है.
देश में हिंदी की दुर्दशा के बाद जब हम प्रवासी भारतीयों को हिंदी के प्रचार/प्रसार के लिए कृतसंकल्प देखते हैं तो कहीं मन में एक आश्वस्ति बनी रहती है. जिस तरह हर प्रकार के शोध/ अनुसंधान की सत्यता अथवा प्रमाणिकता के लिए हम पश्चिम जगत पर ही विश्वास करते हैं, अगले कुछ वर्षों में मातृभाषा के लिए भी शायद विदेश में रहने वाले भारतीयों पर ही निर्भर हों. इस सत्यता का भी भान होता है कि जिसको जो वस्तु सरलता से उपलब्ध नहीं, वही उसकी सही कीमत भी जानता है.
हिंदी की इस दशा-दिशा के दौर में जब यूके की एक हिंदी समिति आपके ब्लॉग ज्ञानवाणी की एक पोस्ट को अपने पाठ्यक्रम (सिलेबस) के एक कोर्स में सम्मिलित करती है तो खुशी स्वाभाविक ही है.
https://vanigyan.blogspot.com/2019/04/blog-post.html
वाह! बच्चों के सिलेबस में ब्लॉग का आना आपके लिए ही नहीं, ब्लॉगिंग के लिए भी उपलब्धि है। ब्लॉग्स को एक विधा के रूप में देखा जाने लगा है। बहुत बहुत बधाई आपको।
जवाब देंहटाएंवाणी दी..
जवाब देंहटाएंप्रणाम..
यह जानकार अच्छा लगा कि आपके आलेख को बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है.. आपको हृदय से शुभकामनायें ईश्वर आपको और ग्यान वाणी को नित नई ऊंचाइयां प्रदान करे..
🙏
वाह! हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (01-07-2020) को "चिट्टाकारी दिवस बनाम ब्लॉगिंग-डे" (चर्चा अंक-3749) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
इस उपलब्धि पर आपको बहुत बहुत बधाई एवम शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाएं आ0
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई हो आपको ... एक अच्छी खबर है ...
जवाब देंहटाएंबधाई
जवाब देंहटाएंबधाई हो!
जवाब देंहटाएं