शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

सहायता की व्यथा...

 हमारी कॉलोनी में एक बुजुर्ग महिला प्लास्टिक का कट्टा (थैला) उठाये अक्सर चली आती है घर के बाहर झाड़ू लगाने या सफाई करने की आवाज लगाते. पूरी तरह सीधे भी खड़ी नहीं हो पाती उस स्त्री को देखकर करूणा उपजती है कि क्या कारण होगा जो इस उम्र में वह इस तरह शारीरिक श्रम कर पैसे कमाना चाहती है. पहले सफाईकर्मी नहीं होने के कारण उसे कई घरों में काम मिल जाता था परंतु इधर लगभग डेढ़ दो वर्ष से  उन्हें काम नहीं मिलता अधिक.  कुछ उनकी शारीरिक अवस्था देखकर भी लोग काम नहीं देते। मेरी एक सखी जब तब उनकी सहायता कर देती है थोड़ा बहुत काम करने पर . ऐसे ही इधर काफी समय से कुछ सफाई का कार्य नहीं होने के कारण उन्हें यूँ ही दस बीस रूपये दे दिया करते. अब होता यह कि वे हर तीसरे दिन चक्कर लगाने लगीं. 

बरसात के समय में हमारी तरफ सड़क का ढ़लान होने के कारण आगे से  बहुत सारी मिट्टी बहती हुई यहाँ इकट्ठी हो जाती है जिसे मैं स्वयं ही उठा लेती हूँ . मगर एक दिन उन बुजुर्ग स्त्री के आने पर मैंने उन्हें पूरी मिट्टी उठाकर बाल्टी में भर देने को कहा क्योंकि इसमें अधिक श्रम की आवश्यकता नहीं थी. मैं वहीं खड़ी होकर देख रही थी ताकि बाल्टी भरने पर स्वयं ही उठा लूँ जिससे उन्हें तकलीफ न हो. मैंने ध्यान दिया कि मिट्टी इकट्ठा करती कुछ बड़बड़ा रही थीं. पास जाकर पूछा तो बोली कि उधर किसी ने सफाई की थी इतने पैसे दिये, इतने लूँगी आदि आदि . 

मुझे मन ही मन हँसी आई कि इन्हें इतना भरोसा भी  नहीं कि जब मैं कुछ साफ सफाई करे बिना ही महीनों से कुछ न कुछ दे रही हूँ तो क्या अभी कुछ नहीं दूँगी . परंतु इस बार उनकी अपेक्षा बहुत अधिक थी.

मैंने कहा- माताराम, उनका तो आपने गिना दिया कि इतने दिये, उतने दिये. और मैं जो इतने समय से दे रही हूँ तो क्या अब आपसे काम करा कर भी नहीं दूँगी!

एकदम से उनके व्यवहार में नरमी आ गई - हाँ बाई, देओ थे तो.

खैर, काम करके अपनी अपेक्षानुसार पैसे लेकर वे चलीं गईं. बात यहाँ समाप्त नहीं हुई.  मुहल्ले के दूसरे सम्पन्न घरों को छोड़कर  कुछ समय से उनसे कुछ कम उम्र की स्त्री भी उनके साथ ही आती है. जब उनको दस-बीस रूपये दूँ तो कहती है - बाई मन्ने भी दयो थोड़ा पीसा!  जाने उनको कैसे गलतफहमी हो गई है कि बाकी सबकी तुलना में हम ही अधिक धनवान है. 

नतीजा पिछले कुछ समय से उनकी पुकार कई बार अनसुनी करनी पड़ रही है !

छोटी -मोटी सहायता की यह व्यथा है तो बड़े -बड़े मददगार, समूह किस तरह झेलते होंगे उन लोगों, समूह की अनपेक्षित अपेक्षा को....


2 टिप्‍पणियां:

  1. जितना अपने से सम्भव है उतना देने का भाव मन में जगा है तो यह छोटी-छोटी व्यथाएँ बाधा नहीं बन सकतीं। हाँ, अपनी इच्छा से देना और किसी के मांगने पर देने में बहुत फर्क है

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  2. अजीब उलझन होती है जीवन में कई बार.

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