"दूर हटो..जाने दो... "
गोवर्धन यात्रा के परिक्रमा पथ अपने परिजनों से दूर निकल चुकी वृंदा जैसे- तैसे धकियाते हुए पीछे मुडकर अपनी ननद और जिठानी से जा मिली ।
उसने देखा कि श्रीकृष्ण का जयघोष करते हुए बच्चे और उनका पीछा करते हुए उनके पिता काफी आगे निकल चुके थे । यह तीनो महिलाएं इधर -उधर की बातें करते हुए कभी तेज तो कभी मंथर गति से अपना परिक्रमा पथ पूरा कर रही थी।
वर्ष का आखिरी दिन था । वृंदा के पति हर्ष ने इस बार अपने भाई और बहन के परिवार के साथ २१ किलोमीटर की गोवेर्धन परिक्रमा पैदल करते हुए पुराने वर्ष की विदाई और नववर्ष का स्वागत इस अनूठे अंदाज़ में करने का मन बनाया था । हर्ष के बड़े भाई अंश , उनकी पत्नी रजनी और दोनों बेटे जय और विजय , बहन राखी अपने पति रोशन और दोनों पुत्र शुभ और लाभ के साथ थे , वही हर्ष अपने पत्नी वृंदा और दोनों बेटियों कृति और यामिनी के साथ थे।
उनका पहला दिन तो श्रीकृष्ण के जन्मस्थल और वृन्दावन की गलियों में विभिन्न मंदिरों में दर्शन करते बिता । एक खुली जगह में गाड़ी पार्क करने के बाद छोटी तंग गलिओं में पैदल चलते हुए मंदिरों की मनोरम झांकियां उन्हें रोमांचित कर रही थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो अभी यही कहीं गलियों में कृष्ण अपने बाल गोपाल मित्रों के साथ माखन चुराते रँगे हाथ पकड़े जायेंगे या कहीं यमुना तट पर अपनी बांसुरी की मधुर धुन से राधा और गोपियों को मंत्रमुग्ध करते बस नजर आने ही वाले हैं। आज प्रातः अँधेरा रहते ही यमुना का दर्शन लाभ कर उन्होंने अपनी गोवर्धन यात्रा प्रारम्भ की थी।
बच्चों के हुजूम ने जब बहुत देर तक अपनी माँओं को साथ नही देखा तो एक स्थान पर रुक कर उनका इंतज़ार करने लगे।
कृति तेज क़दमों से लपकते हुए वृंदा के पास आते हुए बोली .."मां..परिक्रमा पूरी भी करनी है ..थोड़ा तेज चलिए। "
"अभी चलते हैं बेटा ..थोड़ा रुक कर चाय या जूस ले लें " जब वृंदा ने यह कहते हुए बेटी को पास खिंचा तो वह छिटक कर दूर जा खड़ी हुई।
"मां..मैं सब जानती हूँ आपकी चालबाजियां ..मैं बैठने वाली नही हूँ ."
दरअसल घर से रवाना होते हुए उनके परिचित ने , जो गाड़ी चला रहे थे , कृति के दुबलेपन पर हँसते
हुए कह दिया था .."यह पार्टी तो फ़ेल होने वाली है ...इसके लिए तो रिक्शा करना होगा। "
बस फिर क्या था ..जिद पर अड़ गयी कृति .
"दुबले होने से क्या होता है ..देखना मैं कहीं बैठे बिना ही अपनी परिक्रमा पूरी करूंगी।"
बहुत जोर दिए जाने पर जब वे लोग चाय या जूस पीने के लिए रुके भी तो बस दिवार का सहारा लेकर खड़ी ही रही। पूरे परिक्रमा पथ पर वृद्धों और बच्चों की सुविधा के लिए रिक्शा का इंतजाम भी है । अक्सर घर के बुजुर्ग छोटे बच्चों के साथ रिक्शे में सवार हो कर अपनी परिक्रमा पूरी करते हैं ,जबकि बाकि सदस्य उनके पीछे पैदल ही चलते है। सड़क के दोनों किनारे बनी सैकडों दुकानें और उनसे गूंजती भजनों की आवाजों से सुर मिलते दौड़ते -भागते से पदयात्रियों के साथ उसी भीड़ का हिस्सा बनना भावविभोर कर देता है।
कुछ दूर ही चले थे कि...
" बुआ ..कुछ दे जा...भगवान् तेरे कान्हा सा भतीजा देगा,"।
कहते हुए कुछ मांगने वाली महिलाओं ने इस बार राखी को घेर लिया। गज़ब होता है इनका मनोविज्ञान भी । अच्छी तरह जानती है कि क्या कहने पर ज्यादा बख्शीश मिल सकती है।
"अब इसने ऐसी बात कह दी है कि कुछ तो देना ही पड़ेगा।" राखी अपने पर्स में से खुले पैसे टटोलते हुए बोली।
"अरे! छोडिये राखीजी ...आप किस किस को देंगी..यहाँ तो हर दो कदम पर यही हाल है। और फिर बेटा चाहिए किसको ..मैं तो अपनी दो बेटियों से संतुष्ट हूँ। "
दो बेटियाँ ही होने के कारण कई बार वृंदा को ऐसी व्यर्थ और जबरदस्ती की सहानुभूति का सामना करना पड़ जाता है,हालाँकि परिवार छोटा रखने का फैसला उसने और हर्ष ने आपसी सहमति पर ही तय किया था मगर अपने मध्यमवर्गीय परिवेश में जब -तब उन्हें इस तरह की दया और करुणा को झेलना ही पड़ता है।यहाँ तक कि उनके द्वारा किये गए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को एक पुत्र हो जाने के मन्नत से से जोड़ कर देखा जाता है ।
"कोई बात नही ...आपको बेटा नहीं चाहिए तो ..दो भाभियाँ और भी तो है।"
पर्स से निकली रेजगारी उन महिलाओं में बांटती हुए उन महिलाओं से राखी बोली ..." अब तो अच्छा सा आशीर्वाद दे दे..."
हाँ.. जरुर बेटा ही देंगे रामजी...कहती हुई वे दूसरे शिकार की ओर लपक पड़ीं।
वृंदा को ख्याल आया, उसकी दोनों देवरानी गर्भवती थी और इसीलिए परिक्रमा पर उनके साथ नही आ पाई थी। बड़ी देवरानी के एक लड़का है और छोटी देवरानी के एक लड़की है और दो बार लिंग परिक्षण कर गर्भपात करवाने के बाद फिर उम्मीद से है।
सोचती है वृंदा कई बार... सामाजिक सुधार पर लंबे चौडे भाषण देना व दूसरो को समझाना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है परिवारजनों पर दबाव डाल कर रोक पाना। नवरात्री में कन्यों की पूरे विधिविधान से पूजा करने वाले लोगों की आत्मा कन्या भ्रूणों की हत्या करने की गवाही कैसे देती है ? कभी कभार दबी जबान में वह अपना विरोध व्यक्त करती भी है ..." एक ओर तो हम नवरात्र में कन्यों का पूजन करते हैं और एक ओर उन्हें जन्म से पहले मारने का पाप "... जब एक बार किसी नजदीक की रिश्तेदार ने दो बेटियों की मां होने के कारण उसपर कटाक्ष करते हुए कह दिया " अंगूर खट्टे हैं ।" तब से ऐसे मुद्दों पर कम से कम परिवारजनों के बीच वह मुंह बंद ही रखती है।
वृंदा तो चुप रही मगर कृति बोले बिना नही रह सकी ...
" पढ़े लिखे लोगों को भी पता नही यह बात कब समझ आएगी कि आजकल लड़के और लड़कियों में कोई अन्तर नहीं है । सही देखभाल और अवसर मिलने पर लड़कियां भी वो सब कुछ कर सकती हैं जो लड़के कर सकते हैं । अब तो लड़कियां अन्तरिक्ष तक भी जा पहुँची हैं। "
बेटी का मूड ख़राब होते देख वृंदा ने समझाया ..."अपने घर में तो ऐसा माहौल नहीं है ना... और फिर इतना बुरा लगता है तो ख़ुद को ऐसा बनाओ कि सभी कहें कि लड़कियां किसी मायने में लड़कों से कम नहीं है। "
यह सब बातचीत चल ही रही थी कि तब तक वृंदा के पति हर्ष भी वहां पहुँच गए और बेटी से थोड़ा रुक कर आराम करने के लिए कहने लगे।
" इस अपनी बेटी को संभालिये । मैं तो कह कर थक चुकी। " गर्व होता है वृंदा को अपने पति हर्ष पर। हर्ष ने ना सिर्फ़ हर कदम पर उसका साथ निभाया है वरन एक बहुत अच्छे पिता होने का फ़र्ज़ भी निभाया है। एक पुत्र होने की स्वाभाविक चाह और सामाजिक दबाव को दरकिनार रखते हुए उसने अपनी बेटियों को हमेशा अच्छी परवरिश दी है। उसके मार्गदर्शन और संरक्षणने बच्चों को अच्छे संस्कार और मजबूत आधार प्रदान किया है.
" क्यों बच्चे ...क्या हुआ..??
हर्ष ने कृति का हाथ पकड़कर साथ चलते हुएउसके उदास होते चेहरे को देखते हुए पूछा ।
"कुछ नही पापा...यह देखिये ना..लोग कैसे प्रसाद का अनादर करते हुए चल रहे हैं..."
बात बदलते हुए कृति बोली।
रास्ते में श्रद्धालुओं द्वारा दिए गए प्रसाद के दोने बिखरे पड़े थे। तीर्थ विशेष में ही दान किये जाने का पुण्य लाभ अर्जित करने वाले कई स्थानों पर प्रसाद वितरण कर रहे थे . पदयात्रियों से हाथ जोड़कर प्रसाद लेने का निवेदन करते , कभी- कभी तो जबरदस्ती हाथ में ही थमा देते ...उसने देखा वही आगे जाकर भिखारियों को दोने पकड़ा रहे थे मगर पेट भरा होने के कारण भीख में प्रसाद की बजाय रूपये पैसे मांगते भिखारी उन दोनों को यहाँ वहां सड़क के किनारे फेंक रहे थे ...कई स्थानों पर बंदरों के लिए केले बांटते श्रद्धालु भी नजर आये ...बिखरा हुआ प्रसाद , फलों के छिलके पूरे वातावरण को दूषित कर रहे थे ...अब इस तरह कौन सा पुण्य बटोर जा रहा था , ये उसे कभी समझ नहीं आया ।
तभी फिर से कुछ महिलाओं ने आकर घेर लिया। राखी को दान करते देख अब यह महिलाएं और बच्चे और पैसे मिलने की चाह में उसके इर्द गिर्द ही मंडराते रहे थे। इस बार हर्ष को साथ देख बोली ...
" बाई...तेरा जुग़ जुग़ जिए भाई ....कुछ तो हमें भी दे दे..."
अपने पीछे पड़े इस काफिले को देख कर अब तक राखी बहुत झुंझला चुकी थी। इस भीड़भाड़ से निकलने की उसकी कवायद को देखते हुए कृति मुस्कुरा पड़ी ...
" हाँ हाँ ...बुआ ...थोड़ा कुछ दान पुण्य और कर लो ...अजन्मे भतीजे के लिए तो इतना दान कर दिया ...सामने खड़े भाई के लिए कुछ नही करोगी."
मां के चुप रहने का इशारा करने को अनदेखा करते हुए भी कृति बोल पड़ी। अब झेंपने की बारी राखी की थी।
जय श्री राधे के जयघोष के साथ तेज क़दमों से सभी चल पड़े अपनी परिक्रमा पूरी करने।
जय श्री राधे ...!! जय श्री कृष्ण ...!!
वाणीजी कथा के माध्यम से बहुत ही सटीक बात को रसगुल्ले की तरह गले में उतार दिया है। आज के कुछ वर्ष पूर्व तक पुत्र ही माता-पिता का सहारा बनता था इसलिए सभी को उसी की आकांक्षा रहती है लेकिन अब स्थितियां बदलती जा रही हैं। समाज में परिवर्तन हो रहा है लेकिन परिवर्तन हमेशा धीरे-धीरे ही होता है। अब तो यह स्थिति है जिनके केवल पुत्रियां ही हैं वे अधिक सुखी हैं और इस बात को लोग अनुभव करने भी लगे हैं। आपको अच्छी पोस्ट देने के लिए बधाई और आभार।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सार्थक कथा| धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंइस कथा में कई बातों का ताना बाना बुना है ..कन्या भ्रूण हत्या जैसी बात को बहुत सहजता से कहा है ..अच्छी पोस्ट ...आभार ..
जवाब देंहटाएंबेहद रोचक्।
जवाब देंहटाएंसहमत है जी आप की बात से, ओर अजित जी की बात से
जवाब देंहटाएंसार्थक कहा है.....
जवाब देंहटाएंबहुत सहजता से बड़ी बातें कह दिन आपने .
जवाब देंहटाएंकहानी के माध्यम से बड़ी सरलता से गूढ़ बातों को व्यक्त किया है....भ्रूण हत्या...पुत्र ना होने का ताना देना ..लड़कियों के साथ दोहरा व्यवहार....धार्मिक कर्मकांड...तीर्थ स्थलों पर पूजा के नाम पर फैली गन्दगी...बहुत सारी बातें इस कहानी में सुगमता से गूंधी हुई हैं.
जवाब देंहटाएंसुन्दर एवं सार्थक कहानी
हर कहानी समाज का दर्पण होती है, और कहानीकार समाज को सही चेहरा दिखानेवाला/वाली...
जवाब देंहटाएंसबसे बड़ी बात...आप एक संवेदनशील महिला हैं...बहुत ही खूबसूरती से आपने कई समस्याओं को समेट लिया..
यह सचमुच एक सार्थक प्रविष्ठी है...
आभार..
बहुत सारा कुछ समेटा आपने इस पोस्ट में...
जवाब देंहटाएंचित्रवत सब साकार हो गया सामने...
एक एक बात सत्य कहा...
आपकी यह कहानी सामाजिक ताने बाने की बुराईयों की तरफ़ सशक्त इशारा करती है, बहुत शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अत्यंत ही गंभीर विषय पर आपने कथा लिखी है और बहुत सह्जता से सारी बातें समझा दी है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा प्रतिबिम्ब, “मनोज” पर, पढिए!
बातचीत के माध्यम से कितना कुछ कहती पोस्ट।
जवाब देंहटाएंNihayat khoobsoortee se ukera hai aapne hamare samaj ka dohrapan...shayad agle 20 saal baad ye bhroon hatya band ho!
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक कथा सुना दी...
जवाब देंहटाएंहिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!
सादर
समीर लाल
Bahut hi satik va sarthak katha.....dhanywaad
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
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