अन्जना कई वर्षों के बाद लौट आयी थी इस शहर मे ...गगनचुम्बी अट्टालिकाएं और उन पर लगे बड़े- बड़े होर्डिंग्स ,घुप्प अँधेरी रात में भी रौशनी से जगमगाता निजामों का शहर हैदराबाद ... प्राचीन धरोहरों को बड़े करीने से संभाले यह शहर पुरातन और आधुनिकता का अनोखा संगम है ...जहाँ गुलजार हौज़ , शमशेरगंज , बेगम बाज़ार , सहित शहर की तंग गलियों में क्रिकेट की बॉल के साथ जूझते बच्चे तो वहीं आबिद रोड की चौड़ी सड़कों पर फ़र्राट बाईक दौडाते भी ...
चारमीनार के पास से गुजरते उसके चारों ओर ट्रैफिक की रेलमपेल , भेलपुरी ,कट्लीस , डोसा , आमलेट की बंडीयां (थडीयां ), बांह भर हरी -लाल चूड़ियाँ खनकाती काले क्रीमी नकाब से झांकती सिर्फ़ आँखें , वहीँ चार मीनार के पास सड़कों के किनारे पर स्वादिष्ट चाट के चटकारे लेती महिलाएं , उसे याद है, शाम को घर से पैदल घूमते चारमिनार तक चक्कर काट आना ... भेलपुरी , चाट का स्वाद , जीभ पर खट्टा -मीठा सा स्वाद तैर आया ...
लाड़ बाजार मे लाख के जडाऊ कड़ों का मोल -भाव करती दर्जन भर महिलाएं ...कुछ भी तो नहीं बदला था ...पत्थर गट्टी पर मोतियों के जगमगाते शो रुम के बीच अलग प्रभाव जमाता गार्डेन वरेली शोरुम , सड़क के दूसरे किनारे पर रेडीमेड सलवार कमीज ,मैचिंग दुपट्टे की छोटी दुकाने पीछे छोड़ता हुआ उसका रिक्शा आगे बढ़ रहा था ....उसे याद आया काकी के साथ छोटे भाईओं को उनके मिशन स्कूल से लेकर लौटते अनगिनत बार यहीं पेड़ के नीच गन्ने का जूस पिया जाता था , गुलज़ार हौज़ से घर की और पैदल ही लौटते दुकानों के बाहर चिल्ला कर ग्राहकों को आमंत्रित करते ,
" देख लो दीदी , नयी डिजाईन के सलवार कमीज है ,या अम्मा ऐसे क्या करते , देख तो लो , नहीं जमे तो नक्को होना बोल देना "
कई बार पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता था ...
काकी ठसक कर कहती ..." क्या करते जी तुम , तुम्हारे मालिक को बोलती अभी , ऐसे राह चलते लोगों को परेशान करते , हौला समझ के रखा है क्या हमको " बेचारे खिसिया कर अपनी राह नापते .
शहर की चहल पहल से आँखे मिलाते पता ही नहीं चला , उसका रिक्शा छः लाईन पुल को कब का पीछे छोड़ चुका था ... सुल्तान बाजार चौराहे पर बहुमन्जिला इमारत के एक कोने पर तेज धूप मे चमकता आंध्रा बैंक का होर्डिंग ...
"बस यहीं रोक दो भैया" ....वर्षों बाद ऐसे रिक्शे पर बैठना हुआ था उसका ...पिता की नौकरी ने उसे मातृभूमि से अक्सर दूर ही रखा मगर जब भी हैदराबाद लौट कर आना होता तो घुटनों को पेट तक सटाए रिक्शे पर बैठे लोगों को देखकर बहुत हंसती थी ...कितने अजीब रिक्शे हैं ...और जब पूरा परिवार इन पर एक साथ लद कर निकलता तो नजारा देखने लायक होता था ...रिक्शे पर चार सवारी एडजस्ट की जाती , दो बैठे हुए और दो नीचे पैर लटका कर , अंजना भाग छूटती ," मुझसे नहीं बैठा जाता , मैं ऑटो से आउंगी " उसी अंजना को आज क्या सूझा...?
" कहाँ जाना है अम्मा " घर से निकलते ऑटो रिक्शे वालों की पुकार को अनसुना कर जानबूझ कर यह रिक्शा पसंद किया उसने ...इन बीच के वर्षों में उसकी और आर्णव की नौकरी के के चलते कई छोटे -बड़े शहरों में प्रवास करना हुआ ...
" किसी शहर को जानना हो , उसकी ख़ूबसूरती निहारनी हो तो , उसे पैदल घूमो , या फिर छोटे रिक्शा में ...तेज भागते वाहनों से भी कभी किसी शहर को जाना जा सकता है ".. अक्सर आर्णव कहता था .
और फिर ये तो उसका अपना शहर था ,उसकी भीनी खुशबू को अपने नथुनों में भर लेना चाहती थी , जाने फिर कितने वर्षों बाद उसे यह मौका मिले ...उसे याद आया ,यहाँ पहुँचते ही उसे फोन करना था , पर्स से मोबाइल निकाल कर आर्णव का नंबर मिलाने लगी .
क्रमशः थैंक्स राम ! (2), थैंक्स राम ! (3), थैंक्स राम ! (4)), थैंक्स राम ! (5),
थैंक्स राम ! (6) आखिरी किश्त
बहुत दिनों से नहीं , सालों से कहानियों के पात्र दिल और दिमाग में हलचल मचाते रहे हैं , देखूं... लेखनी से क्या कुछ कहते हैं!!
चारमीनार के पास से गुजरते उसके चारों ओर ट्रैफिक की रेलमपेल , भेलपुरी ,कट्लीस , डोसा , आमलेट की बंडीयां (थडीयां ), बांह भर हरी -लाल चूड़ियाँ खनकाती काले क्रीमी नकाब से झांकती सिर्फ़ आँखें , वहीँ चार मीनार के पास सड़कों के किनारे पर स्वादिष्ट चाट के चटकारे लेती महिलाएं , उसे याद है, शाम को घर से पैदल घूमते चारमिनार तक चक्कर काट आना ... भेलपुरी , चाट का स्वाद , जीभ पर खट्टा -मीठा सा स्वाद तैर आया ...
लाड़ बाजार मे लाख के जडाऊ कड़ों का मोल -भाव करती दर्जन भर महिलाएं ...कुछ भी तो नहीं बदला था ...पत्थर गट्टी पर मोतियों के जगमगाते शो रुम के बीच अलग प्रभाव जमाता गार्डेन वरेली शोरुम , सड़क के दूसरे किनारे पर रेडीमेड सलवार कमीज ,मैचिंग दुपट्टे की छोटी दुकाने पीछे छोड़ता हुआ उसका रिक्शा आगे बढ़ रहा था ....उसे याद आया काकी के साथ छोटे भाईओं को उनके मिशन स्कूल से लेकर लौटते अनगिनत बार यहीं पेड़ के नीच गन्ने का जूस पिया जाता था , गुलज़ार हौज़ से घर की और पैदल ही लौटते दुकानों के बाहर चिल्ला कर ग्राहकों को आमंत्रित करते ,
" देख लो दीदी , नयी डिजाईन के सलवार कमीज है ,या अम्मा ऐसे क्या करते , देख तो लो , नहीं जमे तो नक्को होना बोल देना "
कई बार पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता था ...
काकी ठसक कर कहती ..." क्या करते जी तुम , तुम्हारे मालिक को बोलती अभी , ऐसे राह चलते लोगों को परेशान करते , हौला समझ के रखा है क्या हमको " बेचारे खिसिया कर अपनी राह नापते .
शहर की चहल पहल से आँखे मिलाते पता ही नहीं चला , उसका रिक्शा छः लाईन पुल को कब का पीछे छोड़ चुका था ... सुल्तान बाजार चौराहे पर बहुमन्जिला इमारत के एक कोने पर तेज धूप मे चमकता आंध्रा बैंक का होर्डिंग ...
"बस यहीं रोक दो भैया" ....वर्षों बाद ऐसे रिक्शे पर बैठना हुआ था उसका ...पिता की नौकरी ने उसे मातृभूमि से अक्सर दूर ही रखा मगर जब भी हैदराबाद लौट कर आना होता तो घुटनों को पेट तक सटाए रिक्शे पर बैठे लोगों को देखकर बहुत हंसती थी ...कितने अजीब रिक्शे हैं ...और जब पूरा परिवार इन पर एक साथ लद कर निकलता तो नजारा देखने लायक होता था ...रिक्शे पर चार सवारी एडजस्ट की जाती , दो बैठे हुए और दो नीचे पैर लटका कर , अंजना भाग छूटती ," मुझसे नहीं बैठा जाता , मैं ऑटो से आउंगी " उसी अंजना को आज क्या सूझा...?
" कहाँ जाना है अम्मा " घर से निकलते ऑटो रिक्शे वालों की पुकार को अनसुना कर जानबूझ कर यह रिक्शा पसंद किया उसने ...इन बीच के वर्षों में उसकी और आर्णव की नौकरी के के चलते कई छोटे -बड़े शहरों में प्रवास करना हुआ ...
" किसी शहर को जानना हो , उसकी ख़ूबसूरती निहारनी हो तो , उसे पैदल घूमो , या फिर छोटे रिक्शा में ...तेज भागते वाहनों से भी कभी किसी शहर को जाना जा सकता है ".. अक्सर आर्णव कहता था .
और फिर ये तो उसका अपना शहर था ,उसकी भीनी खुशबू को अपने नथुनों में भर लेना चाहती थी , जाने फिर कितने वर्षों बाद उसे यह मौका मिले ...उसे याद आया ,यहाँ पहुँचते ही उसे फोन करना था , पर्स से मोबाइल निकाल कर आर्णव का नंबर मिलाने लगी .
क्रमशः थैंक्स राम ! (2), थैंक्स राम ! (3), थैंक्स राम ! (4)), थैंक्स राम ! (5),
थैंक्स राम ! (6) आखिरी किश्त
बहुत दिनों से नहीं , सालों से कहानियों के पात्र दिल और दिमाग में हलचल मचाते रहे हैं , देखूं... लेखनी से क्या कुछ कहते हैं!!
परिवर्तन की लहर तो सभी जगह चल रही है!
जवाब देंहटाएंआपका संस्मरण बहुत बढ़िया है!
आप तो एक मंजी हुयी कथाकार लग रही हैं -रोचक ,अगले भाग का उत्सुक इंतज़ार !
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन...आगे इन्तजार है.
जवाब देंहटाएंसरस कथा!! रसप्रद शैली!! गम्भीर गुंथन!!
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी का इन्तजार………
बहुत बेहतरीन...आगे इन्तजार है.
जवाब देंहटाएंबहुत बारीकी से वर्णन किया है । कहानी अच्छी लग रही है ।
जवाब देंहटाएंकहानी में बड़ी सरलता और सहजता है , ज़मीन को ज़मीन से देखने का ख्याल....... मेरी बेटियों को छोटे रिक्शे पर बहुत आनंद आता है
जवाब देंहटाएंकहानी अच्छी है....आगे इन्तजार है ।
जवाब देंहटाएंकहानी का कथानक प्रभावशाली है ... रोचक प्रस्तुति ...अब आगे ? इंतजार है ..
जवाब देंहटाएंप्रारम्भ होते ही क्रमश: आ गया। पूरा करिए तो बात बनेगी।
जवाब देंहटाएंआगे इन्तजार है.
जवाब देंहटाएंअपने अंदर के कथाकार को
जवाब देंहटाएंकब तक दवायेंगी आप
आखिरकार मुखर हो ही उठे भाव .
रोचक है प्लाट आगे देखते हैं क्या...
hame bhi intzaar hi karna hoga...:)
जवाब देंहटाएंबहुत ही सहज और प्रभावशाली शैली है,कहानी लेखन की...आँखों के आगे चल-चित्र से घूम गए दृश्य.
जवाब देंहटाएंउत्सुकता जगा रही है,कहानी....खासकर शीर्षक....इंतज़ार है,अगली कड़ी का.
प्रतीक्षारत।
जवाब देंहटाएंयह पढ़ कर मन में आया कि एक रिक्शावाला तलाशूं, जो दिन भर साथ रहे और जहां ले जाना चाहे, वहां जाऊं मैं!
जवाब देंहटाएं@बहुत दिनों से नहीं, सालों से कहानियों के पात्र दिल और दिमाग में हलचल मचाते रहे हैं
जवाब देंहटाएंपात्रों को ज़्यादा दिन छुट्टा नहीं छोडना चाहिये, उद्दंड हो जाते हैं। कहानी का स्वागत है! पिछले दिनों 26 साल पुराने पात्रों से बतियाने बैठा, बडी कठिनाई हुई। हाथ छुडाकर भागे जा रहे थे। इस कहानी में पृष्ठभूमि/महौल का चित्रण बडी कुशलता से कर रही हैं आप।
आप के कहानी के पात्र है लगा जैसे मै ही तो हूँ जो इतने दिनों बाद अपने शहर बनारस में घूम रही हूँ परिवर्तन हर जगह हो रहे है | अब अगली कड़ी का इंतजार होगा |
जवाब देंहटाएंअत्यंत कुशल और रोचक चित्रण है, और की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत रोचक....
जवाब देंहटाएंइन्तजार करते हैं अगले भागों का...एकदम सही जा रही हैं आप...अपनी लेखन प्रतिभा पर अविश्वास न कीजिये...
किसी शहर को जानना हो , उसकी ख़ूबसूरती निहारनी हो तो , उसे पैदल घूमो , या फिर छोटे रिक्शा में ...तेज भागते वाहनों से भी कभी किसी शहर को जाना जा सकता है
जवाब देंहटाएं*** सही कहा आपने।
क्या हैदराबादी बोली की तस्वीर खींची है आपने। मज़ा आ गया। बिताये दिन याद आ गए।
आगे की प्रतीक्षा।
फिर क्रमश:?
जवाब देंहटाएंरोचक कहानी....क्रमश 'नको होना' लेकिन फिर भी इंतज़ार करते हैं आगे की कहानी का..
जवाब देंहटाएंजैसे ऊनी स्वेटर उधेड़ते समय "फ़ंदे" उछल उछल के खुलते चले जाते हैं,और उन्हें देखो तो बहुत रोमांच होता है ,वैसे ही है, आपका कहानी -लेखन । घटनाएं खुद खुल खुल के आनंदित एवं मुदित सी हो रही हैं ।
जवाब देंहटाएंआगे भी स्वेटर उधेड़े जाने का इंतज़ार रहेगा ।
bahut achche se chitran kiya aapne haderabaad ka .achchi kahani.per aapne beech main hi rok di ab jaldi se aage likhiye.intajaar rahegaa.
जवाब देंहटाएंplease visit my blog and leave the comments also.thanks
कथानक प्रभावशाली है ...
जवाब देंहटाएंइन्तजार करते हैं...
नहीं नहीं...अभी पढ़ते हैं..:)
जवाब देंहटाएंअब यहाँ से पढने की शुरुवात की है।
जवाब देंहटाएंअपने शहर की खुश्बू को सांसों में भर लेना,याने पुरानी यादों को ताजा कर लेना।
....जब दिल से लिखो,अच्छा ही निकलता है।
जवाब देंहटाएं.
.ऐसे ही हुमककर लिखा करें :)
dekhe age hota hai kya?
जवाब देंहटाएं