बोलो बच्चों. आज की कहानी से क्या सबक सीखा ?
डस्टर से ब्लैकबोर्ड साफ़ करते मास्टरजी ने कक्षा में बच्चों की ओर मुख करते हुए पूछा .
उत्साहित मोहन ने हाथ खड़ा कर कहा - सर ! मैं बताऊँ !!
हाँ हाँ .बताओ मोहन ...उसका उत्साह बढ़ाते हुए सोहनलाल जी ने पूरी कक्षा को चुप रह कर सुनने का आदेश दिया .
जी सर! हमने इस कहानी से सीखा कि जो आपको ईश्वर ने दिया है उससे संतुष्ट रहना चाहिए . लालच नहीं करना चाहिए . कभी किसी का धन चुराने की इच्छा भी नहीं रखनी चाहिए .
पास की सीट पर बैठा रोहित बोल उठा - सर ! ये झूठ बोल रहा है. कल इसने मेरे टिफिन में से खाना चुरा कर खा लिया था .
चुराया कब था ? टेबल पर टिफिन बॉक्स रखा था . मैंने उठा कर खा लिया .ये क्या चोरी हुई . नहीं ना सर !....
अनुमोदन के लिए चमकदार हो उठी उसकी आँखे और मुंह बनाते मोहन को देख शिक्षक मुस्कुरा दिए .बचपन कितना भोला और निष्कपट होता है . क्या होता जो बच्चे हमेशा बच्चे ही रह जाते . सोचते हुए वे कुछ जवाब देते इससे पहले ही घंटी की आवाज़ आयी और सभी बच्चे अपना बैग सँभालते उठ खड़े हुए . मोहन और रोहित कक्षा से बाहर निकलते हुए एक दूसरे का हाथ पकडे थे .
कक्षा से बाहर निकलते हुए सोच रहे थे सोहनलाल जी . बच्चे भी कितना कुछ सिखा देते हैं . शब्दों और भाषा की सजावट के बिना भी!!
सायकिल पर तेजी से पैडल मारते हुए सोहन लाल जी को थोड़ी दूर पर काले बैग सी चमकती कोई चीज नजर आयी . पास जा कर देखा तो किसी का बटुआ जमीन पर गिरा पड़ा था . इधर उधर नजर दौड़ते हुए सोहनलाल जी ने बटुए को खोल कर देखा . तीन- चार हजार रूपये , फोटो , कार्ड जैसी कई वस्तुएं उस बटुए में थी . सोहन लाल जी ने एक बार फिर इधर- उधर देखा . बटुए में से पैसे निकाल कर जेब के हवाले किये और पुनः बटुए को सड़क पर फेंक दिया .
सोहनलाल जी की नजर नहीं पड़ी. उनके पीछे साईकिल पर चलते मोहन और रोहित बहुत हैरानी से उन्हें ही देख रहे थे।
सोहनलालजी को मिल गये आत्माराम जी भी पीछे आते हुए ...
क्या सोहनलाल जी!!
बच्चों को नैतिक शास्त्र पढ़ाते हो और स्वयं पाठ भूले हो .
बच्चों को नैतिक शास्त्र पढ़ाते हो और स्वयं पाठ भूले हो .
ओहो ! आत्माराम जी . आप भी ...
बताईये क्या करता इस बटुए का . पुलिस वाले के पास जमा करता तो क्या जरुरी था कि उक्त व्यक्ति को उसकी रकम मिल ही जाती. व्यक्ति का नाम -पता ढूंढ कर उस तक पहुंचाता तो जाने कैसा व्यक्ति होता!! कही मेरे गले ही पड़ जाता तो . कही मुझ पर उसमे ज्यादा रकम होने का इलज़ाम लगा देता तो जेब से या जेल में भुगतनी पड़ती ईमानदारी की सजा . नैतिकता के पाठ जो भी पढाये जाए उनको समयानुसार बदलाव के साथ स्वीकारने में ही भलाई है .
बताईये क्या करता इस बटुए का . पुलिस वाले के पास जमा करता तो क्या जरुरी था कि उक्त व्यक्ति को उसकी रकम मिल ही जाती. व्यक्ति का नाम -पता ढूंढ कर उस तक पहुंचाता तो जाने कैसा व्यक्ति होता!! कही मेरे गले ही पड़ जाता तो . कही मुझ पर उसमे ज्यादा रकम होने का इलज़ाम लगा देता तो जेब से या जेल में भुगतनी पड़ती ईमानदारी की सजा . नैतिकता के पाठ जो भी पढाये जाए उनको समयानुसार बदलाव के साथ स्वीकारने में ही भलाई है .
कहते तो ठीक ही हैं सोहनलाल जी. आत्मारामजी अपनी राह चलते सोच रहे थे .
क्या आप भी सोहनलाल जी की राय से इत्त्तिफाक रखते हैं , हमसे मत पूछियेगा , इस पर एक संस्मरण अलग से लिखा जाएगा .
परिभाषाएं बदल रही हैं, मान्यताएं बदल रही हैं, लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो शाश्वत हैं, उन्हें नहीं बदलना चाहिए। ये श्रीमान जी तो मास्टर कहलाने लायक ही नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंइतनी ज़रूरी चीज़ें थीं लौटाने की कोशिश तो होनी चाहिए थी |
जवाब देंहटाएंन हम तो सोहनलाल जी से कहते आपको देखना भी नहीं था, जब लौटाना नहीं था तो .... :-)
जवाब देंहटाएंबटुआ तो लौटना ही चाहिए था ......अर्चना जी से सहमत ..सच बात है अगर लौटना नहीं था तो देखना भी नहीं था ....!!
जवाब देंहटाएंबटूआ लोटा रे ………… :)
जवाब देंहटाएंमेरे ख्याल से ऐसे पैसे को रखना नहीं चाहिए - गरीबों को दे देना चाहिए . हाँ,उससे पूर्व खोजने में भी समय देना चाहिए . पुलिस तो खुद रख लेगी - हाँ कम से कम आप अपनी आत्मा के आगे ग्लानि नहीं महसूस करेंगे,मासूमियत के आगे सवाल नहीं बनेंगे
जवाब देंहटाएंजमाना कितना भी बदल जाए .. मूल बातें ज्यों की त्यों रहनी चाहिए ..
जवाब देंहटाएंव्यक्ति कितना भी चालाक बने .. मिलता वही है जो मंजूरे खुदा होता है ..
Naitiktaa...
जवाब देंहटाएं:(
नैतिकता अपने लिये कुछ औरों के लिये कुछ और रह गयी है..
जवाब देंहटाएंजब बाड ही खेत खाए तो कहने को क्या रह जाता है . सोहनलाल को मास्टर नहीं होना था,
जवाब देंहटाएंEternal values never change!
जवाब देंहटाएंएक शिक्षक हो कर जो उन्होने किया गलत था .... क्यों कि नैतिक शिक्षा किताबों से नहीं आचरण से सीखी जाती है ॥ आज के जमाने में आम आदमी ऐसी धारणा रखे तो भी एक बार बटुआ लौटाने का प्रयास तो करना ही चाहिए था । कथनी और करनी में फर्क ही आज हर जगह देखने को मिलता है इसी लिए समाज का नैतिक पतन हो रहा है ।
जवाब देंहटाएंजब नीयत खराब होती है तब बचाव के बहाने भी आ जाते हैं।
जवाब देंहटाएं...ऐसे गुरुओं से बचने की ज़रूरत है पर बच्चे जब तक समझेंगे,वे खुद गुरु हो लेंगे !
जवाब देंहटाएं.
.मास्टर जी ने बच्चों की ओर मुख करते हुए पूछा....वाक्य शिल्प की दृष्टि से थोड़ा खटकता है.
अक्सर बेईमान अपने को ईमानदार साबित करने के लिए मन को तसल्ली देना जानते हैं !
जवाब देंहटाएंसोहनलाल जी की राय से इत्तेफ़ाक नहीं रख पा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंबढ़िया कहानी ! जब शिक्षकों की नैतिकता की बुनियाद ही कच्ची होगी तो वे बच्चों को क्या नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाएंगे ! उन्हें ही अपने पढ़ाये मूल्यों पर श्रद्धा और विश्वास नहीं तो आने वाली पीढी तो दिशाहीन ही होगी ना !
जवाब देंहटाएंजिसका था उसतक पहुंचकर उसे लौटना ही चाहिए था...उन्होंने कोशिश भी नहीं की
जवाब देंहटाएंसोचने पर मजबूर करती है यह कहानी ... आजकल हर जगह यही दिखता है ... कथनी कुछ और करनी कुछ !
जवाब देंहटाएंबुद्धिमान बनना है तो चुइंगम चबाओ प्यारे - ब्लॉग बुलेटिनआज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आभार !
हटाएंबहुत सी चीजो की परिभाषा समय के साथ बदल सकती है किन्तु नैतिकता की परिभाषा नहीं ?सोहनलालजी ने जब पैसे देखे और कार्ड भी देखे पर्स में, तो उसके द्वारा उस व्यक्ति तक पहुंचना कठिन नहीं था किन्तु सोहनलालजी पर लालच इतना हावी था की पुलिस की नकारात्मक ता को अपने विचारो जैसे ही प्रबल माना और एक शिक्षक के रूप में बहुत ही गलत उदाहरन बन गये ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (11-02-2013) के चर्चा मंच-११५२ (बदहाल लोकतन्त्रः जिम्मेदार कौन) पर भी होगी!
सूचनार्थ.. सादर!
आभार !
हटाएंनैतिकता के पैमाने अलग अलग हैं. असल में रूपया चीज ही ऐसी है जो अच्छे अच्छों के ईमान को फ़िरा देती है फ़िर बेचारे सोहनलाल जी का क्या कसूर? दूसरों को दिख गया तो यह बात उठी वर्ना तो माल जेब के हवाले हो ही गया.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
परिभाषा बदलने से सत्य नहीं बदलता ... शाश्वत सत्य का साथ नहीं छोड़ना चाहिए ... समयानुसार बदलते सत्य को चाहे बदल दें ...
जवाब देंहटाएंशिक्षक यदि ऐसे हैं तो बच्चों को उनसे दूर ही रखना होगा..
जवाब देंहटाएंकम से कम मैं तो ऐसी नहीं हूँ और न ऐसा मानती हूँ कि नैतिक मूल्य और नागरिक बोध बदलते समय के साथ बदलने चाहिए. ईमानदारी, सच बोलना, चोरी न करना, धोखा न देना, किसी को जानबूझकर दुःख न देना वगैरह ऐसे ही नैतिक मूल्य हैं जो युगों से शाश्वत हैं और इस दुनिया में ऐसे लोग हमेशा होते हैं, जो इन पर विश्वास करते हैं. चूँकि मैं खुद ऐसी हूँ इसलिए मानती हूँ कि ऐसे और लोग भी होंगे.
जवाब देंहटाएंमास्टर जी की जगह मैं होती, तो उस बटुए के मालिक का पता लगाकर खुद उसको पहुँचाकर आती.
कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए |नैतिकशिक्षा केवल किताबों तक सीमित नहीं होना चाहिए उस पर अमल भी करना चाहिए |अच्छी शिक्षाप्रद कहानी \
जवाब देंहटाएंआशा
बच्चे भी कितना कुछ सिखा देते हैं , शब्दों और भाषा की सजावट के बिना भी।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सच कहा ...
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जवाब देंहटाएं.
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@ व्यक्ति का नाम -पता ढूंढ कर उस तक पहुंचाता तो जाने कैसा व्यक्ति होता , कही मेरे गले ही पड़ जाता तो , कही मुझ पर उसमे ज्यादा रकम होने का इलज़ाम लगा देता तो जेब से या जेल में भुगतनी पड़ती ईमानदारी की सजा
सोहनलाल जी का यह तर्क एकदम बकवास है, बटुआ खोने वाला कोई भी अपने घर उस बटुऐ को तीन चार हजार रूपये , फोटो , कार्ड जैसी कई वस्तुएं समेत लाये आदमी के साथ ऐसा नहीं करता... यह पैसे अपनी जेब में करने के लिये गढ़ा हुआ तर्क लगता है... :)
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प्रिय भाई
जवाब देंहटाएंआपकी लघुकथा अच्छी लगी। अगर आपको आपत्ती ना हो तो इसे हमलोग कल्पतरू एकसप्रेस दैनिक में छापना चाहेंगे। यह आगरा और मथुरा से निकलने वाला दैनिक है
हमेशा अनैतिक व बेकार के कार्यों के लिए सोहनलाल जैसे तर्क(कुतर्क) गढ़े ही जाते हैं।
जवाब देंहटाएंभारत में शिक्षकोचित आचरण के लिए हम परम्परा की ओर उन्मुख हों, अनगिन उदाहरण भरे पड़े हैं!
कहानी बेहतर है।
"कहते तो ठीक ही हैं सोहनलाल जी, आत्मारामजी अपनी राह चलते सोच रहे थे."-- इस पंक्ति से कहानी का अंत हुआ; आत्माराम पर भी प्रभाव दिखा दिया आपने सोहनलाल का।
बच्चो तुम सुधर कर रहो ....हम बड़ों को सब माफ़ है .......आल इज इन द वैल ......धन्य हो ऐसे मास्टर ......हाहा ......
जवाब देंहटाएंगनीमत है कि सोहनलाली दुनिया मे भी आदर्श शिक्षकों की कमी नहीं है ...
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